राह सबसे अलग: लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार को बना लिया जिंदगी का मकसद

लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार को बना लिया जिंदगी का मकसद
  • अब तक 5 हजार से ज्यादा लोगों का कर चुके हैं अंतिम संस्कार
  • बना लिया जिंदगी का मकसद

डिजिटल डेस्क, मुंबई, दुष्यंत मिश्र। भागती-दौड़ती मुंबई में लोग खुद के लिए बमुश्किल समय निकाल पाते हैं। दूसरों के बारे में सोचने की फुर्सत कहां-किसी को मिलती है। सवा करोड़ से ज्यादा आबादी वाले महानगर में रोजाना चार से पांच ऐसे लोगों की मौत होती है, जिनके आगे-पीछे कोई नहीं है। ऐसे लावारिस शवों के अंतिम संस्कार को इकबाल ममदानी ने अपने जीवन का मकसद बना लिया है। कोरोना काल में इसकी शुरुआत हुई, जो सिलसिला जारी है। ममदानी अपने साथियों के साथ अब तक 5 हजार से ज्यादा लावारिस लाशों का मृतकों के धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करा चुके हैं। मुंबई पुलिस और रेलवे पुलिस ने उन्हें लावारिस शवों के अंतिम संस्कार की इजाजत दी है।

तीन दशक तक पत्रकारिता

करीब तीन दशक तक पत्रकारिता के बाद ममदानी ने समाजसेवा की राह चुनी। उन्होंने बताया कि कोरोना संक्रमण की इतनी दहशत थी कि इससे मरने वालों के शवों के अंतिम संस्कार के लिए परिवार के लोग ही तैयार नहीं होते थे। यह प्रशासन के सामने बड़ी चुनौती थी। कोरोना से मौत होने पर मालवणी के इकबाल का शव दफनाने के लिए कब्रिस्तान से इजाजत नहीं मिली।

चुनौतियों के बीच राह खुली

मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) ने कोरोना से मौत के बाद शवों के दाह संस्कार के निर्देश दिए थे। मुस्लिम समाज ने इसका विरोध किया। इस काम में काफी मुश्किलें आईं। लेकिन चुनौतियों के बीच राह खुली। मृतक के धर्म के अनुसार शवों का अंतिम संस्कार किया गया।

पुरानी गाड़ी का एंबुलेंस की तरह इस्तेमाल

ममदानी ने बताया कि कोरोना संक्रमितों के लिए एंबुलेंस नहीं मिल रही थी। पुरानी गाड़ियों को ठीक कर हमने एंबुलेंस की तरह इस्तेमाल किया। सात लोगों के साथ मैंने शुरुआत की और महीने भर में 200 लोग जुड़ गए।

परिवार काम आया न धन

अस्पतालों के शव गृह में सैकड़ों शव पड़े हुए थे। उनका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं था। कुछ दोस्तों, पंडितों और श्मशान में काम करने वाले लोगों की मदद से हमने प्रशासन की इजाजत से मुंबई ही नहीं पालघर, ठाणे और नवी मुंबई में हिंदू रीति-रिवाज से शवों के अंतिम संस्कार किए। ममदानी ने कहा कि हमने उस समय देखा कि लोगों के न परिवार काम आया और न ही धन।

हर महीने 100 से 125 शवों का अंतिम संस्कार

ममदानी ने बताया कि हर महीने वे 100 से 125 लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करते हैं। इनमें करीब 85 फीसदी हिंदू, 14 फीसदी मुस्लिम और अन्य धर्म के मानने वालों के शव होते हैं। हिंदुओं के शव को हिंदू लड़के मुखाग्नि देते हैं।

दोस्तों से मिलती है आर्थिक मदद

उन्होंने कहा कि अंतिम संस्कार से जुड़े खर्च की भरपाई जान-पहचान वाले करते हैं। एंबुलेंस के लिए काम पर रखे गए लोगों को वेतन देने में मुश्किल होती है। इसलिए कोशिश है कि वेबसाइट बनाकर ममदानी हेल्थ एंड एजुकेशन ट्रस्ट के जरिए लोगों से आर्थिक सहायता ली जाए और सीएसआर फंड भी हासिल किया जाए।

हमारे काम की सराहना

ममदानी ने बताया कि कई बार ऐसा हुआ कि घर से बाहर निकले बुजुर्ग की मौत हो गई। पहचान नहीं हो पाने के चलते लावारिस समझ हम अंतिम संस्कार करते हैं। जानकारी होने पर परिवार के लोग हमारी सराहना करते हैं।

Created On :   30 Oct 2023 4:37 PM IST

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