नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज 122वीं जयंती, जानिए उनसे जुड़ी कुछ खास बातें
- नेताजी ने 'तुम मुझे खून दो
- मैं तुम्हे आजादी दूंगा' का दिया था नारा
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज के संस्थापक थे
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा" का नारा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज 122वीं जयंती है। आजाद हिंद फौज के संस्थापक और अंग्रेजों से देश को मुक्त कराने में अपना बहुमूल्य योगदान देने वाले नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में हुआ था। सुभाष चंद्र बोस एक संपन्न बंगाली परिवार से संबंध रखते थे। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस था। जबकि उनकी मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के एक मशहूर वक़ील थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस समेत उनकी 14 संतानें थी। जिनमें 8 बेटे और 6 बेटियां थीं। सुभाष चंद्र उनकी 9वीं संतान और पांचवें बेटे थे।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल से प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता चले गए। और वहां के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे इण्डियन सिविल सर्विस (ICS) की तैयारी के लिए इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। अंग्रेज़ों के शासन में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत मुश्किल था। लेकिन सुभाष चंद्र बोस ने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया। 1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस भारत लौट आए और उन्होंने सिविल सर्विस छोड़ दी। लेकिन सुभाष का मन अंग्रेजों के अधीन काम करने का नहीं था। उन्होंने 22 अप्रैल 1921 को उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद नेताजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए थे।
महात्मा गांधी से पहली मुलाकात
सुभाष चंद्र बोस की मुलाकात पहली बार महात्मा गांधी जी से 20 जुलाई 1921 में हुई। गांधी जी की सलाह पर वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए काम करने लगे। भारत की आजादी के साथ-साथ उनका जुड़ाव सामाजिक कार्यों में भी बना रहा। बंगाल की भयंकर बाढ़ में घिरे लोगों को उन्होंने भोजन, वस्त्र और सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने का साहसपूर्ण काम किया था। समाज सेवा का काम नियमित रूप से चलता रहे इसके लिए उन्होंने "युवक-दल" की स्थापना की।
टाइपिस्ट से किया था प्रेम विवाह
सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में ठहरे हुए थे, उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात कराई। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु चिकित्सक थे। एमिली ने सुभाष के टाइपिस्ट के तौर पर काम किया। इसी दौरान सुभाष एमिली को दिल दे बैठे। एमिली भी उन्हें बहुत पसंद करती थीं। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिंदू रीति-रिवाज से विवाह कर लिया। इसके बाद वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, अनिता पौने तीन साल की थी। उनका पूरा नाम अनिता बोस फाफ है। अपने पिता के परिवार जनों से मिलने अनिता फाफ कभी-कभी भारत भी आती हैं।
हिटलर से मुलाकात
साल 1942 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने हिटलर से मुलाकात की थी। लेकिन हिटलर के मन में भारत को आजाद करवाने के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं थी। हिटलर ने सुभाष को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया था।
एक लाख रुपये के नोट पर बोस की तस्वीर
आजाद हिंद सरकार की अपनी बैंक थी, जिसका नाम आजाद हिंद बैंक था। आजाद हिंद बैंक की स्थापना साल 1943 में हुई थी, इस बैंक के साथ दस देशों का समर्थन था। आजाद हिंद बैंक ने दस रुपये के सिक्के से लेकर एक लाख रुपये का नोट जारी किया था। एक लाख रुपये के नोट पर सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर छपी थी।
नेताजी कारों के थे शौकीन
नेताजी पर शोध करने वालों का कहना है कि यूं तो नेताजी भवन में कई कारें रखी हुई थीं, लेकिन वांडरर कार छोटी और सस्ती थी और इस कार का आमतौर पर मध्यम आय वर्ग के लोग ही ग्रामीण इलाकों में इस्तेमाल किया करते थे। नेताजी भवन में रखी वांडरर कार का ज्यादा इस्तेमाल नही होता था, इसलिए जल्दी किसी का ध्यान इस पर नहीं जाता था। विलक्षण बुद्धि के मालिक नेताजी भली-भांति जानते थे कि किसी और कार का इस्तेमाल करने पर वे आसानी से ब्रिटिश पुलिस की नजर में आ सकते हैं। अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने के लिए उन्होंने इस कार को चुना था। 18 जनवरी, 1941 को इस कार से नेताजी, शिशिर के साथ गोमो रेलवे स्टेशन (तब बिहार में, अब झारखंड में) पहुंचे थे और वहां से कालका मेल पकड़कर दिल्ली गए थे।
11 बार गए थे जेल
सार्वजनिक जीवन में नेताजी को कुल 11 बार कारावास की सजा दी गई थी। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 को छह महीने का कारावास दिया गया था। 1941 में एक मुकदमे के सिलसिले में उन्हें कोलकाता (कलकत्ता) की अदालत में पेश होना था तभी वे अपना घर छोड़कर चले गए और जर्मनी पहुंच गए। जर्मनी में उन्होंने हिटलर से मुलाकात की। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के लिए उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया और युवाओं को "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" का नारा भी दिया।
रहस्यमयी मौत
साल 1945 में 18 अगस्त को ताइवान में एक विमान दुर्घटना में नेताजी की मौत हो गई थी। लेकिन भारत में बहुत बड़ा तबका ये मानता रहा कि सुभाष बोस जीवित बच निकले थे और वहां से रूस चले गए थे। सुभाष चंद्र बोस की मौत आज तक एक रहस्य की तरह ही है। भारत सरकार ने उनसे जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए कई बार अलग-अलग देश की सरकार से संपर्क किया लेकिन उनके बारे कोई ठोस जानकारी नहीं मिल पाई। सुभाष चंद्र बोस की मौत को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित है लेकिन उनकी मौत को लेकर अभी तक कोई साक्ष्य किसी के पास नहीं हैं।
विजयालक्ष्मी पंडित ने बताई ये बातें
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार नेताजी की मौत के बात उस समय फिर से सुर्खियों में आई थी जब भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयालक्ष्मी पंडित ने मीडिया में एक बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि मेरे पास ऐसी खबर है कि भारत में तहलका मच सकता है। ये खबर आजादी से भी बड़ी है, लेकिन नेहरू ने कुछ भी कहने से उन्हें मना कर दिया था। विजया की बात को इसलिए इस मुद्दे से जोड़कर देखा गया था, क्योंकि वह उस समय रूस में बतौर इंडियन एंबेसडर नियुक्त थीं। देश को आजादी मिलने के बाद विजयलक्ष्मी पंडित 1947 से 1949 तक रूस में राजदूत रही थीं। कहा जाता है कि उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को रूस में देखा भी था। विजया ने इसकी जानकारी तत्कालीन सरकार को दी थी, पर इस मामले में कुछ भी नहीं किया गया।
Created On :   23 Jan 2019 3:39 PM IST