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विशेष: न भूख लगी न प्यास, मां भारती की सुरक्षा ही लक्ष्य, करगिल विजय दिवस पर यादें हुई ताजा
- दुश्मन का खात्मा करने उतावले हो रहे थे जवान
- करगिल युद्ध में विदर्भ के तीन जवान शामिल थे
- बोफोर्स तोप से दुश्मन पर निशाना साधा
चंद्रकांत चावरे, नागपुर। जब-जब देश की सुरक्षा खतरे में होती है, तब-तब देश की सेना के जवान जान की बाजी लगा देते हैं। 25 साल पहले हुई करगिल की जंग 83 दिन चली थी। 3 मई से 26 जुलाई तक चली जंग में जवानों ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। 18000 फीट की ऊंचाई पर चढ़कर मां भारती की सुरक्षा करते-करते 527 जवान शहीद हुए। 1300 से अधिक जवान घायल हुए थे। इन सैकड़ों जवानों के बीच करगिल युद्ध में विदर्भ के तीन जवान शामिल थे। वर्तमान में यह जवान नागपुर महानगर पालिका के उपद्रव शोध पथक (न्यूसेंस डिटेक्शन स्क्वॉड) में सेवारत हैं। इन जवानों ने रात में गोलाबारूद पहुंचाने से लेकर बोफोर्स तोप से दुश्मन पर निशाना साधा है। इन जवानों ने दैनिक भास्कर के साथ उन दिनों की याद ताजा की।
83 में से 40 दिन खाने की फुर्सत नहीं थी : गोंदिया जिले की तिरोडा तहसील के गांव करटी बुजरुक निवासी हवालदार गनर अरविंंद कुमार बघेले 33 गन पोजिशन एरिया में तैनात थे। यह एरिया करगिल से 3 किलोमीटर ऊपर था। इनका काम था ओपी यानि आब्जर्वर पोस्ट ऑफिसर के निर्देशानुसार गन पोजिशन सेट करना और दुश्मन को टार्गेट करना। उन्होंने बताया कि युद्ध के दौरान दिन-रात सतर्क रहना पड़ता था। दोनों तरफ से गोलाबारुद फेंका जा रहा था। इस बीच इतना समय भी नहीं मिल पाता कि खाना खा सके। कभी कभी तो खाना भी नहीं बनता था। यानि 83 में से 40 दिन तो खाना भी नसीब नहीं हुआ।
मां भारती की रक्षा, यही लक्ष्य था। दुश्मनों का खात्मा करने के लिए गन पोजिशन एरिया बदलते रहता था। आदेश मिलते ही गन पोजिशन एरिया में जाकर गन सेट करनी पड़ती थी। उनके पास आर्टिलरी तोप 155 एमएम चलाने की जिम्मेदारी थी। उनके साथ खरबू गन पोजिशन एरिया में गुजरात का एक जवान डीएमटी गनर रमेश जुगल था। उसपर तोप का गोला गिर पड़ा और वह शहीद हुआ। यह जवान कम उम्र का था। और उसकी सेवा को एक साल भी पूरा नहीं हुआ था। एक सेकंड में यह जवान शहीद हुआ। हवालदार गनर अरविंद कुमार बघेले 1997 में सेना में नियुक्त हुए थे। पहली पोस्टिंग करगिल में ही हुई थी। 2017 में सेवानिवृत्ति के बाद नागपुर में एनडीएस में शामिल होकर सेवा दे रहे हैं।
श्रीनगर से द्रास सेक्टर पहुंचाते थे गोलाबारूद : परभणी जिले की गंगाखेड़ तहसील के रावराजुर गांव के जवान कैप्टन संजय खंदारे वर्तमान में नागपुर महानगर पालिका के एनडीएस में सेवा दे रहे हैं। करगिल युद्ध शुरु होने से पहले वे पंजाब के अंभोर में सेवारत थे। करगिल युद्ध से एक दिन पहले वे श्रीनगर के आगे जा रहे थे। 3 मई को श्रीनगर में उनका मुकाम था। उसी दिन करगिल युद्ध की शुरुआत हुई। वे हवालदार रैंक के थे। उनके पास एम्यूनेशन (गोलाबारूद) पहुंचाने की जिम्मेदारी थी। अचानक उन्हें श्रीनगर से द्रास सेक्टर में गोलाबारूद पहुंचाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। रात में गोलाबारूद पहुंचाना पड़ता था। दिन में लौटना पड़ता था। युद्ध के 83 दिन तक यह सिलसिला जारी था। यह जिम्मेदारी कैप्टन खंदारे पर थी। वे पहली बटालियन दी महा रेजिमंेट के हवालदार रैंक में शामिल थे। उनके यूनिट के 22 जवान शहीद हुए। 1987 में सेना की नौकरी में शामिल हुए। 2017 में सेवानिवृत्ति के बाद एनडीएस में सेवा शुरू की।
बोफोर्स तोप करती थी दुश्मन का इंतजार : गोंदिया जिले की आमगांव तहसील स्थित साखरीटोला निवासी सुभेदार जे.टी. ब्राह्मणकर मई से अगस्त तक राजस्थान के तनोटराय माता मंदिर रामगढ़ क्षेत्र में थे। यह प्लेन एरिया पाकिस्तान की बॉर्डर है। यहां से दुश्मन कभी भी आक्रमण कर सकता था। इसलिए यहां की जिम्मेदारी सुभेदार को दी गई थी। सुभेदार ब्राह्मणकर को बोफोर्स गन 155 एमएम चलाने के लिए तैनात किया गया था। करगिल युद्ध के दौरान औरंगाबाद महाराष्ट्र से 18 बोफोर्स गन आर्टिलरी तोप फुल लोड कर राजस्थान के रामगढ़ के लिए ट्रेन से निकले थे। रास्ते में आदेश मिला कि उन्हें 6 तोप लेकर जम्मू एंड कश्मीर पहुंचें। वहां से रामगढ़ पहुंचे। लेकिन दुश्मन ने इधर का रास्ता नहीं चुना। बोफोर्स तोप चलाने के लिए भारतीय सैनिक उतावले हो रहे थे। उन्होंने सोच लिया था कि कब दुश्मन आए और बोफोर्स तोप चलाकर उनका खात्मा करे। लेकिन ऐसी नौबत ही नहीं आई। कुल मिलाकर बोफोर्स तोप दुश्मनों का इंतजार करती रही।
Created On :   26 July 2024 3:28 PM IST