क्या आप जानते हैं अफगानिस्तान के उस राष्ट्रपति का नाम, जिसके साथ तालिबान ने की थी ऐसी बर्बरता,जान कर हो जायेंगे हैरान।
- तालिबान की बेरहमी का असल किस्सा
डिजिटल डेस्क, दिल्ली। तालिबान का खौफ लोगों में 20 साल पहले भी दिख चुका है। जब कट्टरपंथी तालिबानियों ने बंदूक के बल पर अफगानिस्तान की सरकार को सत्ता से बाहर उखाड़ फेंक दिया था। उस समय अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह थे। ये अफगानिस्तान के ऐसे राष्ट्रपति थे। जिनके साथ तालिबानियों ने बर्बरता कर मौत के घाट उतार दिया था। नजीबुल्लाह साल 1947 में पैदा हुए थे। उनकी शुरूआती पढ़ाई काबुल में हुई इसके बाद वह जम्मू-कश्मीर के बारामुला गए। हालांकि बाद में काबुल से ही उन्होंने डॉक्टर की पढ़ाई की। नजीबुल्लाह 18 साल की उम्र में ही कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टी पीपल्स डेमोक्रैटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान से जुड़ गए थे। साल 1987 में सोवियत संघ ने ही नजीबुल्लाह को अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनवाया था. इसके बाद नजीबुल्लाह ने पुनः अफगानिस्तान का संविधान लिखवाया और अफगानिस्तान का नाम बदलकर रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान करवा दिया। दिसंबर 1991 में सोवियत संघ टूटने से नजीबुल्लाह को मिलने वाली सारी मदद बंद हो गई। 1992 में तालिबान के बढ़ते आतंक को देखकर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह ने इस्तीफे का एलान कर दिया। नजीबुल्लाह ने कहा था कि उनके विकल्प की व्यवस्था होते ही वो सत्ता छोड़ देंगे। इस दौरान उन्होंने देश छोड़ने की कोशिश भी की, लेकिन तालिबान ने कामयाब नहीं होने दिया।
संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड में जिंदगी काटी
साल 1987 में सोवियत संघ ने ही नजीबुल्लाह को अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनवाया था। 1991 में सोवियत संघ टूट गया। इसी दौरान अफगानिस्तान में तालिबान खड़ा हुआ। हालात ये थे कि 1992 से लेकर अपनी मौत के दिन तक नजीबुल्लाह को संयुक्त राष्ट्र के कंपाउंड में अपनी जिंदगी बितानी पड़ी थी। नजीबुल्लाह को काबुल भी नहीं छोड़ने दिया गया। अपनी जान बचाने के लिए वह एक कंपाउंड में छिप गए और वह 1996 तक कंपाउंड में ही रहे। तालिबान को उस वक्त पाकिस्तान और अमेरिका से मदद मिलती थी। तालिबान के लड़ाकों से हर कोई खौफ खाता था। वह धीरे-धीरे अफगानिस्तान के हर शहर पर कब्जा करता चला गया। मदद की आस में कंपाउंड में छिपे नजीबुल्लाह कभी वहां से बाहर नहीं निकल पाए। इसके बाद तालिबान जब काबुल में दाखिल हुआ तो उन्होंने नजीबुल्लाह को अपने साथ चलने को कहा, लेकिन वह नहीं गए।
तालिबान को क्यों थी इतनी नफरत?
बता दें कि, नजीबुल्लाह 18 साल की उम्र में ही कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टी पीपल्स डेमोक्रैटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान से जुड़ गए थे। अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह सोवियत संघ की मदद से ही सत्ता में आए था। तालिबान की नजर में नजीबुल्लाह एक ऐसा कम्युनिस्ट मुसलमान था, जो अल्लाह में विश्वास नहीं करता था। तालिबान एक कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन हैं, फिर इस चीज को कैसे बर्दाश्त कर सकता था कि उसके जानकारी में कोई अल्लाह में विश्वास न करें। लंबे समय तक अफगानिस्तान में इस्लामिक कानूनों और शरियत के नाम पर लोगों के मानवाधिकारों को खत्म करने वाले आतंकी संगठन तालिबान की बर्बरता के किस्से किसी से छिपे नही हैं। नजीबुल्लाह की मौत से पहले संयुक्त राष्ट्र की ओर से उनको अफगानिस्तान से बाहर निकालने की कोशिश की गई थी। लेकिन, तालिबान से किसी भी देश ने दुश्मनी उठाने की हिम्मत नहीं दिखाई। इसी कारण किसी भी देश ने उन्हें अपने यहां शरण देने से इनकार कर दिया। इस दौरान नजीबुल्लाह के साथ अपने ही करीबियों ने धोखा दिया था। हालांकि, भारत ने उस मुश्किल दौर में भी नजीबुल्लाह की पत्नी और बेटियों को अपने यहां शरण दी थी।
तालिबान ने बेरहमी से मारकर खंबे पर लटकाया
तालिबानियों ने जिस बर्बरता के साथ नजीबुल्लाह को मौत के घाट उतारा था। वहां के लोग आज भी सोचकर सदमें में चले जाते हैं। तालिबान जब दोबारा सत्ता पर काबिज हो रहा हैं। तो अफगान की आवाम उस खौफ को देखकर काफी भयभीत हैं।
द न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, नजीबुल्लाह ने शॉर्ट वेव रेडियो पर यूएन की पोस्ट से संपर्क करके अपने लिए सुरक्षा मांगी। लेकिन उनकी मदद नहीं की जा सकी थी। इसके बाद तालिबान ने उन्हें जान से मार दिया और काबुल के आरियाना चौक में एक खंबे पर टांग दिया। इतना ही नही खंभे पर लटकाये जाने के पहले उन्हें एक ट्रक के पीछे बांधकर सड़कों पर घसीटा गया था। रिपोर्टस के मुताबिक, तालिबान ने उनके सिर में गोली मारी थी। बड़ी बात यह है कि इसी खंबे पर उनके भाई शाहपुर अहमदज़ाई की लाश भी लटक रही थी। तालिबान ने नजीबुल्लाह की लाश के साथ बर्बरता कर अपनी ताकत का खौफ लोगों के दिमाग में भर दिया था। वो समय जब अफगानिस्तान की जनता याद करती हैं तो रूह कांप जाती है।
Created On :   18 Aug 2021 5:01 PM IST