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सेहत रहता है चंगा इसलिए विदेश में मची है धूम, विदेशी सीख रहे चरखा चलाने का हुनर
डिजिटल डेस्क, नागपुर। चरखा चलाने से सेहत भी चंगा रहता है इसलिए महात्मा गांधी का चरखा शारीरिक और मानसिक सेहत का भी प्रतीक बन गया है। फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, फिनलैंड, अमेरिका, जापान, रशिया आदि देशों में हर वर्ष ग्राम सेवा मंडल गोकुरी संस्था से सैकड़ों चरखे भेजे जाते हैं। वहां के स्कूलों में विद्यार्थियों को सप्ताह में एक दिन चरखा चलाना सिखाया जाता है। विदेशी स्कूलों में न केवल ड्राइविंग, स्विमिंग, स्पोर्ट्स एक्टिविटी कंपलसरी है, बल्कि वहां स्कूलों में विद्यार्थियों को चरखा चलाने की कक्षाएं भी दी जाती हैं। चरखा की क्लास आर्ट एंड क्रॉफ्ट में स्पिनिंग के अंतर्गत आती है। महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर इसकी शुरुआत कैसे हुई, इस बारे में ग्राम सेवा मंडल गोकुरी की अध्यक्ष करुणा फुटाणे ने जानकारी दी।
आइलिन की दादी थीं गांधी के विचारों से प्रभावित
करुणा फुटाणे ने बताया कि अमेरिका में रहने वाली आइलिन हॉलमन स्कूल के बच्चों को चरखा चलाना सिखाती हैं। आइलिन हॉलमन की दादी जब भारत आई थीं, तो वे महात्मा गांधी से मिलीं और जब उन्होंने चरखा चलाना देखा तो वे इससे बहुत प्रभावित हुईं। उन्होंने चरखे की फोटो और वीडियो भी बनाया। साथ ही उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि चरखा चलाने से मानसिक और शारीरिक विकास होता है, जिस तरह से मन और तन दोनों के लिए योग फायदेमंद है, वैसे ही चरखे को चलाने से फायदा होता है। साथ ही उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि किसी भी एक्टिविटी के वक्त मस्तिष्क का खास हिस्सा सक्रिय होता है। हम अगर कंस्ट्रक्टिव एक्टिविटीज में अपना समय देते हैं, तो सकारात्मक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। और अगर डिस्ट्रक्टिव एक्टिविटी में अपना समय देते हैं, तो नकारात्मक व्यक्तित्व बनता है।
चरखा चलाने के लिए हमें एकाग्र होना पड़ता है। फिर उन्होंने वो वीडियो और फोटो आइलिन हॉलमन के सुपुर्द किया। इसके लिए कई प्रयोग भी किए गए फुटाणे ने बताया कि मनोचिकित्सा विज्ञान में स्थापित तथ्य है कि हर तरह की एक्टिविटी का असर हमारे व्यक्तित्व पर पड़ता है। इसके लिए प्री और पोस्ट एक्सपेरिमेंटल मैथड का इस्तेमाल किया गया, जिसमें दो ग्रुप को अपने अध्ययन के लिए लिया। एक ग्रुप को प्रतिदिन चरखा चलाना था, दूसरे ग्रुप को कुछ नहीं करना था। अध्ययन शुरू करने से पहले इनके कुछ मनोवैज्ञानिक पैरामीटर जैसे एकाग्र होने की क्षमता, याददाश्त, मस्तिष्क की तरंगों का डेटा लिया गया और फिर दोबारा इसी तरह हमने छह महीने तक चरखा चलवाने के बाद फिर इसका असर जानने के लिए साइकोलोजिकल टेस्ट के जरिए डेटा कलेक्ट किया। इस ग्रुप का भी प्री एंड पोस्ट डेटा लिया, जिसे कुछ नहीं करवाया गया था। दोनों की तुलना कर चरखा चलाने वाले और नहीं चलाने वाले ग्रुप के बीच के फर्क का डेटा इकट्ठा किया गया।
हर सप्ताह आइलिन हॉलमन लेती हैं कक्षा
ग्राम सेवा मंडल के व्यवस्थापक मिलिंद नागपुरे ने बताया कि आइलिन की दादी ने जो वीडियो बनाया उसके जरिए उन्होंने भी चरखा चलाना सीखा। आइलिन अभी तक भारत नहीं आई हैं, लेकिन उन्होंने वीडियो के जरिए चरखा कैसे चलाया जाता है यह सीखा। श्री नागपुरे ने बताया कि आइलिन की दादी गांधीजी के विचारों से प्रेरित थीं। साथ ही चरखा मैथड से बहुत फायदे हैं, इससे विद्यार्थियांे को भी बहुत फायदा हो रहा है। एक तो वे स्वावलंबी बन रहे हैं, साथ ही उनमें एकाग्रता भी बढ़ रही है।
चरखे में किए गए विविध संशोधन
परंपरावादी गांधी चरखा के बारे में सभी को मालूम है। जिसे पेटी चरखा भी कहा जाता है जो बहुत भारी होता है। उसे एक-स्थान से दूसरे स्थान में रखना बहुत कठिन होता है। चरखे में संशोधन हो इसके लिए गांधीजी बहुत बेचैन थे। सन् 1923 में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना प्राप्त नहीं हुआ। 29 जुलाई सन् 1929 को चरखा संघ की ओर से गांधीजी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपए पुरस्कार देने की घोषणा की गई। गांधीजी ने जो शर्ते रखी थीं उन्हें पूरा करने की कोशिश तो कई लोगों ने की, लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिली। किर्लोस्कर बंधुओं द्वारा एक चरखा बनाया गया था, लेकिन वह भी शर्तांे पूरी नहीं होने के कारण असफल ही रहा। चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। खड़े चरखे का किसान चरखे की शकल में सुधार हुआ। गांधीजी स्वयं कताई करते थे।
पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय
यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बांस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। बांस का ही जनताचक्र (किसान चरखे की ही भांति) बनाया गया, जिस पर वीरेंद्र मजूमदार लगातार बरसों कातते रहे। बच्चों के लिए या प्रवास में कातने के लिए प्रवासी चरखा भी बनाया गया, जिसकी गति किसान चक्र से तो कम थी, लेकिन यह ले जाने लाने में सुविधाजनक था। पारंपरिक चरखे के साथ ही चरखा भी बहुत सारे प्रकार के हैं, जैसे पेटी चरखा, बुक चरखा, किसान चरखा, प्रवासी चरखा आदि। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद जो लोग जेल गए थे उनके लिए बुक चरखा हुआ करता था। ब्रिटिश सरकार द्वारा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो को जेल के अंदर केवल बुक ही पढ़ने के लिए दी जाती थी, इसलिए बुक चरखा बना। जिसमें जेल के अंदर ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चरखा चलाकर सूत काटते थे। इससे ब्रिटिश सरकार को शक भी नहीं होता था, साथ ही बुक चरखा का वजन भी नहीं था।
Created On :   2 Oct 2019 11:26 AM IST