छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2023: बस्तर से होकर निकलता है छत्तीसगढ़ की सत्ता का रास्ता, जानिए बस्तर संभाग की 12 सीटों का सियासी समीकरण

बस्तर से होकर निकलता है छत्तीसगढ़ की सत्ता का रास्ता, जानिए बस्तर संभाग की 12 सीटों का सियासी समीकरण
  • विधानसभा राजनीतिक दृष्टिकोण से काफी अहम बस्तर
  • विधानसभा की 12 और लोकसभा की एक सीट
  • आदिवासी ही निर्णायक
  • जो बस्तर जीता वहीं सिकंदर

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में मौजूद विधानसभा सीटों को राजनीतिक दृष्टिकोण से काफी अहम माना जाता है। छत्तीसगढ़ की सियासत का रास्ता बस्तर से होकर जाता है ,क्योंकि यहां विधानसभा की 12 और लोकसभा की एक सीट है। अभी सभी 12 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। ऐसे में 15 साल तक सत्ता पर काबिज रही बीजेपी को बैचेनी हो रही है। बस्तर को लेकर बीजेपी के तमाम बड़े नेता दौरा, बैठक कर रहे है, ताकि सत्ता में फिर वापसी हो सकें। क्योंकि छत्तीसगढ़ की सत्ता की चाबी बस्तर संभाग के पास है। कहा जाता है कि राज्य में अगर सत्ता में वापसी करना है तो बस्तर का किला फतह करना जरूरी है।

बस्तर संभाग में हैं 12 विधानसभा सीटें

छत्तीसगढ़ की सियासत का रास्ता बस्तर से होकर जाता है ,क्योंकि छत्तीसगढ़ में विधानसभा की 90 सीट है जिनमें से 29 सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित है, इन 29 में से 12 सीटें बस्तर संभाग से आती है। बस्तर एक आदिवासी बाहुल्य वाला इलाका है। बस्तर संभाग की 12 विधानसभा सीटों में 11 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति और एक सीट सामान्य है। इनमें बस्तर,कांकेर,चित्रकोट,दंतेवाड़ा,बीजापुर,कोंटा,केशकाल,कोंडागांव,नारायणपुर,अंतागढ़,भानुप्रतापपुर यह सभी सीटें अनुसूचित जनजाति की आरक्षित हैं। वहीं जगदलपुर विधानसभा सीट सामान्य है।

बस्तर विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस के लखेश्वर बघेल

2013 में कांग्रेस के लखेश्वर बघेल

2008 में बीजेपी से डॉ. सुभाउराम कश्यप

2003 में बीजेपी के बलिराम कश्यप

बस्तर विधानसभा में सबसे ज्यादा आदिवासियों की संख्या होने की वजह से इस विधानसभा में आदिवासी नेताओं को प्राथमिकता दी जाती है। सीट पर 90 फीसदी के आस पास आदिवासी वर्ग है। फ्लाोराइड वाला लाल पानी यहां की प्रमुख समस्या है, जो कई बिमारियों को जन्म देने का कारण बनता है। क्षेत्र के कई गांव ड्राई जोन में आते है। उद्योग और रोजगार की मांग यहां दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। स्थानीय युवा बेरोजगार घूम रहे है। इस विधानसभा में आदिवासियों के मुख्य आय का स्त्रोत वनोपज है और इसके अलावा खेती किसानी हैं। उद्योग के नाम पर इस विधानसभा अब तक कोई उद्योग नहीं लगाया गया है, फ्लोराइड युक्त पानी इस विधानसभा की सबसे बड़ी समस्या है।

राजनीति समीकरण की बात की जाए तो बस्तर विधानसभा को हमेशा से ही कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है,अब तक हुए 4 विधानसभा चुनाव में दो बार बीजेपी और दो बार कांग्रेस ने बाजी मारी है, 2023 के विधानसभा चुनाव में इस सीट में कांटे की टक्कर हो सकती है आपको बता दें 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के प्रत्याशी जबकि 2013 और 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने इस सीट पर बाजी मारी। वर्तमान में इस सीट से कांग्रेस के कद्दावर नेता कहे जाने वाले लखेश्वर बघेल विधायक है।

2007 में भानपुरी विधानसभा को बस्तर विधानसभा किया गया और भानपुरी को नारायणपुर विधानसभा में जोड़ा गया। बस्तर विधानसभा बनने के बाद क्षेत्र के ग्रामीण अंचलों की तस्वीर बदली, हालांकि आदिवासियों की जनसंख्या ज्यादा होने की वजह से यह सीट हमेशा से ही आदिवासियो के लिए आरक्षित है। विधानसभा चुनाव में बस्तर विधानसभा में सभी की निगाहें टिकी रहती है। यहां आदिवासियों की संख्या 70 फीसदी से अधिक है,आदिवासी वर्ग में भी भतरा,मुरिया,महारा जाकि के लोग अधिकाधिक निवास करते है। भतरा जाति 70 फीसदी, मुरिया जाति 20 फीसदी के करीब है, ये समुदाय ही चुनाव में निर्णायक भूमिका में रहते है। विधानसभा क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं अभाव है।

कांकेर विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से शिशुपाल शोरी

2013 में शंकर धुव्र

2008 में बीजेपी से सुमित्रा मार्कोले

2003 में अज्ञान सिंह ठाकुर

1998 को कांकेर को एक नया जिला बनाया गया था,कांकेर विधानसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है। कांकेर जिले में अंतागढ, कांकेर,भानुप्रतापपुर विधानसभा सीट आती है। कांकेर विधानसभा सीट पर वनोंपज और खेती से यहां के रहवासियों का जीवन यापन होता है। बढ़ती बेरोजगारी यहां के लोगों की प्रमुख समस्या है क्षेत्र में मूल भूत सुविधाओं का अभाव है। क्षेत्र में 70 फीसदी से अधिक अनुसूचित जनजाति वर्ग के मतदाता है। 20 से 25 फीसदी के बीच ओबीसी शेष अन्य वर्ग के मतदाता रहते है।

अंतागढ़ विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से अनूप नाग

2013 में बीजेपी से विक्रम उसेंडी

2008 में बीजेपी से विक्रम उसेंडी

अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित अंतागढ़ विधानसभा सीट पर आदिवासी मतदाताओं का दबदबा है। बीजेपी के प्रभाव वाली इस सीट पर मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच होता आया है। एक समय में बीजेपी का गढ़ कही जाने वाली इस सीट पर 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने छीन लिया। आपको इस सीट का एक दिलचस्प किस्सा बताता हूं। 2014 के उपचुनाव में इस सीट पर मतदान से पहले कांग्रेस उम्मीदवार ने अपना नाम वापस ले लिया था, जिसकी चर्चा अंतागढ़ से लेकर दिल्ली तक हुई थी। बाद में इस सीट पर बीजेपी और अम्बेडकराइट पार्टी ऑफ इंडिया के बीच सीधा मुकाबला देखा गया था। यहां धर्मांतरण के मामले अधिक होते है। यहां गोंड और बंग समुदाय की संख्या सबसे ज्यादा है, दोनों ही समूह चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते है।

आदिवासी बाहुल्य इलाका होने के साथ साथ ये क्षेत्र नक्सल प्रभावित और संवेदनशील है। यहां किसी जगह विकास नजर आता है,किसी जगह नहीं। सड़क शिक्षा , स्वास्थ्य केंद्रों की कमी आज भी क्षेत्र में है। बढ़ती महंगाई,बेरोजगारी से साथ विस्थापन यहां की प्रमुख समस्या है।

भानुप्रतापपुर विधानसभा सीट

2022 में कांग्रेस से सावित्री मंडावी

2018 में कांग्रेस से मनोज सिंह मंडावी

2013 में कांग्रेस से मनोज सिंह मंडावी

2008 में बीजेपी से ब्रह्मानंद नेताम

2003 में बीजेपी से देवलाल दुग्गा

काकतीय वंश के राजा भानुप्रताप देव के नाम पर इसका नाम पड़ा था। भानुप्रतापपुर विधानसभा सीट कांकेर जिले में आती है। यह सीट आदिवासी आरक्षित है। विधानसभा क्षेत्र में 60 फीसदी आदिवासी है जबकि 20 फीसदी के करीब ओबीसी है। बाकी सामान्य और एससी वर्ग के लोग है। नक्सल प्रभावित इलाका होने के कारण यहां चुनाव प्रचार से लेकर वोटिंग कराना चुनौतीपूर्ण होता है। जनता की आय का मुख्य स्त्रोत वनोपज है। चारों ओर पहाड़ों से घिरे भानुप्रतापपुर खनिज और वन संपदा से परिपूर्ण है। 2003 ,2008 में बीजेपी जबकि 2013 और 2018 में कांग्रेस उम्मीदवार की जीत हुई थी। 2022 में भी उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की जीत हुई थी। क्षेत्र के कई इलाकों में विकास दिखाई देता है, जबकि कुछ जगहों पर यह आज भी नजर नहीं आ रहा है। कई गांव के लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जी रहे है। भानुप्रतापपुर को जिला बनाने की मांग इस बार अधिक चुनावी शोरगुल मचा रही है। चुनाव में पार्टियों से इतर आदिवासी समाज की ओर से सामूहिक प्रत्याशी खड़े करने से चुनावी मुकाबला त्रिकोणीय होने की उम्मीद है। अबकी बार चुनाव में कांटे की टक्कर होते हुई दिखाई देगी।

चित्रकोट विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से दीपक बैज

2013 में कांग्रेस से दीपक बैज

2008 में बीजेपी से बैदुराम कश्यप

चित्रकोट विधानसभा की राजनीति के केंद्र में किसान और आदिवासी होते है। 2003 में यह विधानसभा सीट केशलूर नाम से प्रचलित थी, 2008 से इसे चित्रकोट किया गया। 2008 में यहां टाटा स्टील ने नींव रखी थी, लेकिन तत्कालीन बीजेपी सरकार के कार्यकाल में वह प्लांट काम पूरा नहीं हो सका. प्लांट में किसानों की जमीन अधिग्रहण कर ली गई, कुछ किसानों को मुआवजा मिला,कुछ को नही। प्लांट न स्थापित होने के कारण किसानों की जमीन वापस नहीं हुई जिसके चलते किसानों में तत्कालीन बीजेपी सरकार के खिलाफ गुस्सा पैदा हो गया। जिसे कांग्रेस ने भुनाया। और सत्ता में आने पर जमीन वापस कराने का वादा किया था। जिसके कारण क्षेत्र में कांग्रेस के पैर धीरे धीरे मजबूत होते गए। और अब ये इलाका कांग्रेस का मजबूत किला बना गया है। और राजनीति रूप से चित्रकोट सीट काफी अहम सीट हो गई। वहीं पूरे देश में मिनी नियाग्रा के नाम से मशहूर चित्रकोट वाटरफॉल भी इसी विधानसभा क्षेत्र में है। पर्यटन के क्षेत्र में हर साल राज्य सरकार को लाखों रुपए की कमाई यहां से होती है।

क्षेत्र के मतदाताओं का जीविकापर्जन वनोंपज और खेती पर निर्भर है। बेरोजगारी और पेयजल समस्या यहां का सबसे अहम मुद्दा है। विधानसभा क्षेत्र के कई गांव आज भी बेसिक सुविधाओं की कमी से जूझ रहे है। सुविधाओं के अभाव और सरकार की अनदेखियों के बाद भी चित्रकोट के बास्तानार विकासखंड में सौ से अधिक गांव मंदिर में संविधान को पूजते है। और मतदाता पेसा कानून और ग्राम सभा को सर्वोच्च मानते है। जातीय समीकरण की बात की जाए तो 80 फीसदी से अधिक यहां आदिवासी आबादी है। जो चुनाव में निर्णायक भूमिका में होते है। 60 फीसदी से अधिक एसटी, 30 फीसदी एससी और बाकी सामान्य वर्ग रहता है। मारिया और मुरिया दोनों ही जनजातिय समूहों की संख्या अधिक है। चुनाव में इन्हीं दोनों जातियों पर राजनीतिक पार्टियों की नजर रहती है।

दंतेवाड़ा विधानसभा सीट

2019 उपचुनाव में कांग्रेस से देवती कर्मा

2018 में बीजेपी से भीमाराम मंडावी

2013 में कांग्रेस से देवती कर्मा

2008 में बीजेपी से भीमाराम मंडावी

2003 में कांग्रेस से महेंद्र कर्मा

दंतेवाड़ा विधानसभा सीट एसटी वर्ग के लिए सुरक्षित है। सीट को कर्मा परिवार का गढ़ माना जाता है। बस्तर टाइगर के नाम से चर्चित स्व महेंद्र कर्मा दंतेवाड़ा से ही थे। चारों ओर पहाड़ियों से घिरे दंतेवाड़ा नक्सली प्रभावित इलाका है। विकास और नक्सलवाद दोनों ही यहां देखने को मिल जाता है। भौगोलिक स्थिति पहाड़ी और जंगली क्षेत्र होने से कई इलाके विकास की पहुंच से दूर है। दंतेवाडा की प्रमुख समस्या नक्सलवाद और बेरोजगारी है। मां देवी दंतेश्वरी का यहां भव्य मंदिर है।

बैलाडीला लौह उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। यहां एनएमडीसी द्वारा लोहे का खनन किया जाता है, इन पहाड़ियों में हेमेटाइट की उच्च मात्रा पाई जाती है। लोहे का निर्यात पूरे भारत के साथ- साथ विदेशो में जैसे श्रीलंका, जापान इटली में निर्यात किया जाता है। खनिज संपदा से भरपूर दंतेवाड़ा में एनएमडीसी का केवल मात्र एक प्लांट है। कुछ जगह पर विकास हुआ है। पीने के लिए पानी , यातायात के लिए जर्जर सड़क, शिक्षा के लिए स्कूल, बिजली की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी यहां साफ देखी जा सकती है। बरसात के मौसम में कई गांव टापू में तब्दील हो जाते है।

बीजापुर विधानसभा सीट

2018 में विक्रम मंडावी

2013 में बीजेपी से महेश गग्डा

2008 में बीजेपी से महेश गग्डा

2003 में कांग्रेस से राजेंद्र पंभोई

नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले में बीजापुर ही एक मात्र सीट है। जो अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। 2018 से पहले बीजापुर विधानसभा सीट पर करीब डेढ़ दशक तक बीजेपी का कब्जा था. लेकिन 2018 के चुनाव में यहां से कांग्रेस ने जीत हासिल की थी। यहां 80 फीसदी से अधिक आबादी एसटी वर्ग की है। आदिवासी समुदाय में भी गोंड, मुरिया, डोलिया, हल्बा समूहों का दबदबा है, जो चुनाव में निर्णायक भूमिका में होते है। बीजापुर विधानसभा सीट आज भी विकास की राह देख रहा है, क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।

कोंटा विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से कवासी लखमा

2013 में कांग्रेस से कवासी लखमा

2008 में कांग्रेस से कवासी लखमा

2003 में कांग्रेस से कवासी लखमा

आदिवासी बाहुल्य होने के कारण कोंटा विधानसभा सीट पर अनुसीचित जनजाति के लिए सुरक्षित है, यहां करीब 80 फीसदी आदिवासी, 20 फीसदी अनुसूचित जाति के लोग रहते है। थोड़े बहुत ओबीसी और सामान्य वर्ग के लोग भी रहते है। अनुसूचित जनजाति में भी माड़िया,हल्बा,दोरला,मुरिया आदिवासी रहते है जो चुनाव में अहम रोल निभाते है। क्षेत्र बेसिक सुविधाओं और नक्सलवाद का दंश झेल रहा है। यहां नक्सलवाद के नाम पर सैकड़ों आदिवासियों को जेल में डाल दिया जाता है। उनकी रिहाई का मुद्दा भी चुनावी माहौल में सुनाई देता है। पोलावरम बाँध यहां का एक बड़ा मुद्दा है। कोंटा विधानसभा सीट कांग्रेस के अभेद किले में गिनी जाती है, पिछले चार चुनावों पर नजर डाले तो यहां से कांग्रेस के कवासी लखमा ही इकलौते विधायक निर्वाचित होते आ रहे है।

कोंडागांव विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से मोहन मरकाम

2013 में कांग्रेस से मोहन मरकाम

2008 में बीजेपी से लता उसेंडी

2003 में बीजेपी से लता उसेंडी

कोंडागांव जिला बस्तर संभाग के अंतर्गत आता है। इस जिले में तीन विधानसभा सीट है, जिनमें केशकाल,कोंडागांव और नारायणपुर शामिल है। छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद 2003 में कोंडागांव विधानसभा पर पहली बार चुनाव हुआ था। आदिवासी बाहुल्य कोंडागांव अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। यहां 60 फीसदी से अधिक एसटी आबादी है, जबकि 20- 30 फीसदी के करीब ओबीसी और 10 के आस पास एससी मतदाताओं की संख्या है। क्षेत्र में पार्टियों का फोकस आदिवासी समुदाय के चर्चित चेहरें और प्रत्याशी का फोकस ओबीसी वोटर्स पर टिका रहता है। ओबीसी वोटर्स किंगमेकर की भूमिका में रहता है।

2003 ,2008 के विधान चुनाव में बीजेपी का वर्चस्व रहा था। 2013 और 2018 में कांग्रेस के प्रत्याशी ने बाजी मारी। खेती किसानी में सिंचाई के पानी कि किल्लत यहां बनी रहती है। न केवल सिंचाई के लिए पेयजल समस्या भी यहां पैर पसार रही है। आधारभूत सुविधाओं की कमी क्षेत्र में खूब है। बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहा कोंडागांव पिछले चार दशकों से नक्सलवाद से पीड़ित है।

केशकाल विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से संतराम नेताम

2013 में कांग्रेस से संतराम नेताम

2008 में बीजेपी से सेवकराम नेताम

2003 में बीजेपी से महेश बघेल

केशकाल सीट कोंडागांव जिले में आती है, जो अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। वर्तमान में यहां से कांग्रेस के नेता संतराम नेताम विधायक है। जातिगत समीकरण की बात की जाए तो यहं 60 फीसदी से अधिक एसटी आबादी है। यहां 20 फीसदी के करीब ओबीसी मतदाता है जो किंगमेकर की भूमिका में होता है।

क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं की कमी है। ये क्षेत्र भी नक्सल प्रभावित है। जनता नक्सल के साथ साथ स्वास्थ्य, शिक्षा,सड़क, पेयजल और बिजली के संकट से जूझ रहे है। रायपुर को जगदलपुर से जोड़ने वाला एनएच30 बस्तर की लाइफलाइन है। इस पर 10 घुमावदार मोड़ वाली घाटी है। जिस पर आए दिन जाम लगता रहता है, जो लोगों की समस्या बनता है। सरकार भी आज तक इससे निजात दिलाने में सफल नहीं हुई है।

नारायणपुर विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से चंदन कश्यप

2013 में बीजेपी से केदार नाथ कश्यप

2008 में बीजेपी से केदारनाथ कश्यप

छत्तीसगढ़ का नारायणपुर जिला 11 मई 2007 को अस्तित्व में आया। जो बस्तर संभाग का ही एक जिला है। 2008 तक नारायणपुर भानुपरी विधानसभा के नाम से जाना जाता था। 2007 में भानुपरी के कुछ इलाके को नारायणपुर मे मिलाकार जिला गठित किया।

जिले के कई गांव आज भी प्रशासन की पहुंच से दूर है, क्षेत्र में नक्सल खूब फल फूल रहा है। आदाविसाी बाहुल्य होने के कारण नारायणपुर विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। प्राकृतिक संसाधनों और प्राकृतिक सुंदरता से नारायणपुर पूरी तरह से समृद्ध है।

विधानसभा क्षेत्र में 70 फीसदी से अधिक मतदाता आदिवासी है।जिनमें भी गोंड,मारिया,मुरिया,धुर्वे,भत्रा और हलबा जनजाति काफी अधिक संख्या में रहते है। जो चुनाव में निर्णायक होते है। समस्याओं की बात की जाए बुनियादी सुविधाओं के साथ साथ यहां धर्मांतरण और उसके कारण होती हिंसा बड़ा चुनावी मुद्दा हो।

जगदलपुर विधानसभा सीट

2018 में कांग्रेस से रेखाचंद

2013 में बीजेपी से संतोप बाफना

2008 में बीजेपी से संतोष बाफना

2003 में बीजेपी से डॉ सुभाऊ कश्यप

2008 से जगदलपुर विधानसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित थी। 2008 में ये सीट सामान्य सीट हो गई। जगदलपुर बस्तर संभाग की इकलौती सामान्य सीट है। यहां 55 फीसदी सामान्य और 35 से 40 फीसदी के बीच आदिवासी वर्ग निवास करता है। 2003,2008, 2013 में यहां से बीजेपी ने दर्ज की थी। लगातार तीन बार चुनाव जीतने के बाद जगदलपुर को बीजेपी के अभेद किले के रूप में देखा जाने लगा था। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस ने ये किला बीजेपी से छीन लिया था। जातिगत समीकरण की अपेक्षा यहां पानी ,साफ सफाई बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई प्रमुख समस्या है। आज भी कई स्थानों पर बुनियादी सुविधाओं की कमी है।

छत्तीसगढ़ का सियासी सफर

1 नवंबर 2000 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के अंतर्गत देश के 26 वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। शांति का टापू कहे जाने वाले और मनखे मनखे एक सामान का संदेश देने वाले छत्तीसगढ़ ने सियासी लड़ाई में कई उतार चढ़ाव देखे। छत्तीसगढ़ में 11 लोकसभा सीट है, जिनमें से 4 अनुसूचित जनजाति, 1 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। विधानसभा सीटों की बात की जाए तो छत्तीसगढ़ में 90 विधानसभा सीट है,इसमें से 39 सीटें आरक्षित है, 29 अनुसूचित जनजाति और 10 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, 51 सीट सामान्य है।

प्रथम सरकार के रूप में कांग्रेस ने तीन साल तक राज किया। राज्य के पहले मुख्यमंत्री के रूप में अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने। तीन साल तक जोगी ने विधानसभा चुनाव तक सीएम की गद्दी संभाली थी। पहली बार 2003 में विधानसभा चुनाव हुए और बीजेपी की सरकार बनी। उसके बाद इन 23 सालों में 15 साल बीजेपी की सरकार रहीं। 2003 में 50,2008 में 50 ,2013 में 49 सीटों पर जीत दर्ज कर डेढ़ दशक तक भाजपा का कब्जा रहा। 2018 में कांग्रेस की बंपर जीत से बीजेपी नेता डॉ रमन सिंह का चौथी बार का सीएम बनने का सपना टूट गया। रमन सिंह 2003, 2008 और 2013 के विधानसभा कार्यकाल में सीएम रहें। 2018 में कांग्रेस ने 71 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज कर सरकार बनाई और कांग्रेस का पंद्रह साल का वनवास खत्म हो गया। और एक बार फिर सत्ता से दूर कांग्रेस सियासी गद्दी पर बैठी। कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत हासिल की और सरकार बनाई।

Created On :   2 Oct 2023 5:50 PM IST

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