ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जिनका नाम किताबों में भी दर्ज नहीं
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- भारत मां के इन सच्चे सपूतों को वो सम्मान नहीं मिल सका
- जिसके वो यथार्थ में हकदार थे
डिजिटल डेस्क, भोपाल। पूरा देश इस बार आजादी की 75 वीं वर्षगांठ अमृत महोत्सव के रुप में मना रहा है। इस मौके पर देशभर के सभी सरकारी व निजी संस्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लगाकर हर घर तिरंगा अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान को चलाने का प्रमुख उद्देश्य हमारे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति देश के नागरिकों का सम्मान बढ़ाना है।
देश को आजादी दिलाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कई स्वातंत्रता संग्राम सेनानियों और शहीदों को देश का लगभग हर नागरिक जानता है लेकिन उनके अलावा भी कई ऐसे स्वातंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से आजाद कराने में अपना सबकुछ बलिदान कर दिया। 1857 में हुए आजादी के प्रथम आंदोलन से लेकर 1942 में हुए आजादी के सबसे बड़े आंदोलन तक कई ऐसे स्वातंत्रता संग्राम सेनानी रहे जिनका जिक्र इतिहास की किताबों में तक दर्ज नहीं है और न ही कहीं उनके बारे में पढ़ने-सुनने को मिलता है। इस पोस्ट के जरिए आज हम स्वातंत्रता संग्राम के उन गुमनाम नायक-नायिकाओं के बारे में जानेंगे, जिनका प्रमुख उद्देश्य फिरंगियों से देश को आजादी दिलाना था।
बेगम हजरत महल
बेगम हजरत महल 1857 में हुए पहले स्वातंत्रता संग्राम की सक्रिय नेता थीं। अवध के नवाब की पत्नी हजरत महल ने अपने पति को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा देश निकाला दिये जाने के बाद राजपाठ अपने हाथों में ले लिया। यहां तक कि अपने नेतृत्व में बेगम ने विद्रोह के दौरान लखनऊ को ब्रिटिशों से मुक्त तक करा लिया था। लेकिन विद्रोह के कुचले जाने के बाद उन्हें हिंदुस्तान छोड़कर नेपाल जाना पड़ा। बेगम अपनी अंतिम सांस तक फिर नेपाल में ही रहीं।
मातंगिनी हाजरा
असहयोग और भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल मातंगिनी हाजरा एक ऐसी स्वातंत्रता संग्राम सेनानी थीं, जो कि अंग्रेजों की गोलियों का शिकार होने के बाद भी अपने हाथों में देश का झंडा लिये वंदेमातरम के नारे के साथ आगे बढ़ती रहीं। दरअसल, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक जुलूस में शामिल मातंगिनी के ऊपर अंग्रेजों ने गोलियां चला दीं। तीन गोलियां शरीर पर लगने के बावजूद भी वह जरा सी भी डिगी नहीं और वंदेमातरम के नारे के साथ ध्वज हाथ में लेकर चलती रहीं।
अरुणा आसिफ अली
सन 1942 में मुंबई के गोवालियां टैंक मैदान से शुरु हुए आजादी के सबसे बड़े आंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होनी वाली अरुणा आसिफ अली के बारे में एक महत्वपूर्ण बात बहुत कम लोग जानते होंगे। दरअसल, अरुणा ने ही गोवालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झण्डा फहराया था। उस समय उनकी आयु 33 वर्ष थी।
भीकाजी काम
भीकाजी कामा ने स्वातंत्रता संग्राम में अपना अतुलनीय योगदान तो दिया ही। साथ ही उन्होंने देश में फैली लैंगिक असमानता को कम करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाये। कामा ने अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा देश की लड़कियों के लिए अनाथालय बनाने में खर्च कर दिया। भीकाजी कामा के नाम वैसे तो देश में कई सड़कें और भवन हैं पर देश को अंग्रेजों से आजाद करवाने के योगदान के बारे बहुत कम लोग जानते हैं। गौरतलब है कि कामा ने इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस, स्टुटगार्ट जर्मनी में भारत का झंडा फहराया था।
तारा रानी श्रीवास्तव
तारा रानी श्रीवास्तव ने भी भारत माता की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। अपने पति के साथ एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए उन पर अंग्रेजों ने गोलियां चला दी थी। शरीर पर गोलियां लगने के बाद भी वो टस से मस नहीं हुईं। अपने घावों पर पट्टियां बांधकर आगे बढ़ती रहीं। खून ज्यादा बहने की वजह से उनकी मौत हो गई। लेकिन जब तक उनके शरीर में जान रही उन्होंने भारत का मां झण्डा अपने हाथों में पकड़े रहीं।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
भारत में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी ने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की थी। मुंशी ने भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश को फिरंगी हूकूमत से आजादी दिलाने के लिए चलाए गए आंदोलनों में शामिल होने की वजह वह कई बार जेल भी गए।
पीर अली खान
पीर अली खान भारत के उन विद्रोहियों में से एक थे जिन्होंने पहले स्वातंत्रता संग्राम यानि 1857 की क्रांति में भाग लिया था। स्वातंत्रता आंदोलन में सक्रीय भूमिका निभाने के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 14 अन्य विद्रोहियों के साथ फांसी की सजा सुनाई थी।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय
कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने देश की आजादी की लड़ाई में शामिल होने के साथ-साथ एक समाज सुधारक के रुप में भी महत्वपूर्ण निभाई। उन्होंने भारतीय महिलाओं को सामाजिक व आर्थिक रुप से सशक्त बनाने के लिए हस्तशिल्प, थिएटर और हथकरघे को बहुत बढ़ावा दिया। कमलादेवी देश की पहली महिला थीं जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार किया था। साथ ही वे पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने विधानसभा के चुनाव में भाग लिया था।
सेनापति बापट
अहिंसावादी नेता सेनापति बापट वह शख्स जिन्हें आजादी के बाद पहली बार पुणे में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का सम्मान मिला था। सत्याग्रह के सच्चे नेता होने के कारण उन्हें सेनापति कहा जाने लगा था। अहिंसा के वह कितने प्रबल समर्थक थे इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक बार फिरंगी हुकूमत के खिलाफ भाषण देने व तोड़फोड़ में शामिल होने के कारण उन्होंने स्वयं अपनी गिरफ्तारी दे दी थी।
पोटी श्रीरामल्लू
पोटी श्रीमल्लू राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कट्टर समर्थक थे। देश और मानवीय उद्देश्यों के प्रति उनकी श्रृद्धा देखकर खुद महात्मा गांधी ने कहा था कि अगर मेरे पास श्रीरमल्लू जैसे 11 और सहयोगी आ जायें तो मैं एक वर्ष के अंदर स्वतंत्रता हासिल कर लूंगा।
Created On :   14 Aug 2022 1:01 AM IST