Explained: चीन को मिला हॉन्ग कॉन्ग पर अपनी मनमानी करने का अधिकार, कॉन्ट्रोवर्शियल नेशनल सिक्योरिटी लॉ को पारित किया
डिजिटल डेस्क, बीजिंग। चीन की नेशनल पीपल्स कांग्रेस की स्थायी समिति ने मंगलवार को सर्वसम्मति से आखिरकार हॉन्ग कॉन्ग के लिए नेशनल सिक्योरिटी लॉ को पारित कर दिया। इस कानून के पारित होने से हॉन्ग कॉन्ग के अधिकारों, स्वायत्तता में कटौती हो जाएगी। इस कानून में जेल में अधिकतम सजा उम्रकैद है। जानकारों का कहना है कि नेशनल सिक्योरिटी लॉ के पास होने से राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हॉन्ग कॉन्ग की आजादी अब खत्म हो जाएगी। राजद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे की परिभाषा तय करने का अधिकार अब चीन और उसकी कठपुतली चीफ एक्जीक्यूटिव सरकार को मिल गया है। इस लॉ के बहाने अब लोकतंत्र समर्थकों और आजाद हॉन्ग कॉन्ग की मांग करने वालो को निशाना बनाया जाएगा। जानकार इसे हॉन्ग कॉन्ग की लोकतंत्र की उम्मीदों के ताबूत में आखिरी कील बता रहे हैं। ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं हॉन्ग कॉन्ग के बारे में वो सब कुछ जो आपके जानने लायक है।
अफीम युद्ध में चीन ने गंवाया हॉन्ग कॉन्ग
चीन और हॉन्ग कॉन्ग के बीच के विवाद को समझने के लिए हमें अतीत में जाना होगा। कितना पीछे, 1841 में जब ओपियम वॉर (अफीम युद्ध) हुआ था। दरअसल, चीन के पास बेचने के लिए के लिए रेशम, चाय और सिरेमिक प्रोडक्ट जैसी बहुत सारी चीजें थी। लेकिन पश्चिमी देशों से इंपोर्ट में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। वह अपने उत्पादों का भुगतान भी चांदी मे लेता था। ऐसे में ब्रिटेन जैसे देशों को व्यापार घाटा होने लगा। इस घाटे को पाटने के लिए ब्रिटेन ने ड्रग्स का सहारा लिया। उस समय भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा था। ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में खूब सारा अफीम उगाती और फिर ये अफीम चीन में सप्लाई कर देती। चीन में एक बड़ी आबादी को अफीम की लत पड़ गई। जवाब में चीन ने अफीम पर बैन लगा दिया। दोनों पक्षों के बीच छिटपुट झड़पे हुई और फिर ब्रिटेन ने युद्ध का ऐलान कर दिया। चीन को इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा। इस हार की कीमत चीन को हॉन्गकॉन्ग आइलैंड को गंवाकर चुकानी पड़ी। ये आइलैंड मौजूदा हॉन्ग कॉन्ग के दक्षिणी हिस्से में पड़ता है। हार के बाद 1842 में नानजिंग संधि हुई जिसके तहत चीन को अंग्रेजों को हॉन्गकॉन्ग सौंपना पड़ा।
ब्रिटेन ने 99 साल की लीज पर हॉन्ग कॉन्ग को लिया
इसके बाद 1856 में ब्रिटेन और चीन के बीच एक और युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध को सेकंड ओपियम वॉर कहा जाता है। चार साल बाद 1860 में ये युद्ध खत्म हुआ। इस बार फिर चीन को युद्ध में हार का सामना करना पड़ा और अपना एक हिस्सा गंवाना पड़ा। इस हिस्से का नाम था काउलून प्रायद्वीप। अंग्रेजों ने इस प्रायद्वीप को भी हॉन्ग कॉन्ग की अपनी कॉलोनी में मिला लिया। इसके बाद सदी के आखिरी दशक में जापान और उसके बीच एक और युद्ध हुआ। इसमें भी चीन हार गया। इसका फायदा उठाया जर्मनी, रूस और फ्रांस जैसे देशों ने। उन्होंने लीज पर चीन के इलाके ले लिए। ब्रिटेन ने भी इसका फायदा उठाया और उसने अपने पास मौजूद हॉन्ग कॉन्ग और काउलून प्रायद्वीप में अन्य इलाके जुड़वा लिए और इसे 99 साल की लीज पर ले लिया। जून 1898 में ब्रिटेन और चीन के बीच हुए लीज वाले इस समझौते को कन्वेंशन फॉर द एक्सटेंशन ऑफ हॉन्ग कॉन्ग टेरिटरी कहते हैं। इन 99 सालों में हॉन्ग कॉन्ग ने काफी तरक्की की।
चीन ने हॉन्ग कॉन्ग को विशेष प्रशासनिक क्षेत्र का दर्जा दिया
जैसे-जैसे लीज के खत्म होने की तारीख करीब आने लगी, नए क्षेत्रों को हॉन्ग कॉन्ग से अलग करना अकल्पनीय होने लगा। ऐसे में 1970 के दशक में चीन और ब्रिटेन ने हॉन्गकॉन्ग के भविष्य पर चर्चा करना शुरू किया। 1984 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर और चीन के प्रमुख झाओ ज़ियांग ने सीनो ब्रिटिश जॉइंट डिक्लेरेशन पर साइन किया। इस डिक्लेरेशन के तहत दोनों देश इस बात पर राजी हुए कि चीन 50 साल के लिए "एक देश-दो व्यवस्था" की नीति के तहत हॉन्ग कॉन्ग को कुछ पॉलिटिकल और सोशल ऑटोनॉमी देगा। इसके बाद चीन ने हॉन्ग कॉन्ग को विशेष प्रशासनिक क्षेत्र का दर्जा दिया। अब हॉन्ग कॉन्ग के पास अपना एक मिनी संविधान था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकार थे। हालांकि इस नए सिस्टम में हॉन्ग कॉन्ग के लोगों पर 50 साल की तलवार भी लटक रही थी जिसके बाद उन्हें दिए गए स्वायत्तता के अधिकार छीन लिए जाने थे। 50 साल की मियाद 2047 में पूरी होनी है, लेकिन चीन की कम्युनिस्ट सरकार 50 साल का भी इंतजार करने को राजी नहीं है। वो अभी से हॉन्ग कॉन्ग को अपने कब्जे में लेना चाहती है।
चुनाव सुधार के नाम पर चीन ने घपलेबाजी की
2007 में चीन ने कहा था कि वह 10 साल बाद 2017 में हॉन्ग कॉन्ग के लोगों को एक नागरिक एक वोट का अधिकार देगा। लेकिन 2014-2015 में चीन ने चुनाव सुधार के नाम पर बड़ी घपलेबाजी की। चीन ने कहा कि 1200 सदस्यों की एक नॉमिनेटिंग कमेटी उम्मीदवारों के नाम पर मुहर लगाएगी। यही उम्मीदवार चुनाव में खड़े हो सकेंगे। इस प्रस्ताव के विरोध में हॉन्ग कॉन्ग में जमकर प्रदर्शन हुए। इस प्रदर्शन को "अंब्रैला मूवमेंट" के नाम से जाना जाता है, जो 79 दिन तक चला था। इसे अंब्रैला मूवमेंट इसलिए कहा जाता है क्योंकि पुलिस जब प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए उन पर पेपर स्प्रे का छिड़काव करती थी तो उससे बचने के लिए लोग छाता लेकर आने लगे और इसे अपनी ढाल बनाने लगे। धीरे-धीरे ये छाता, आंदोलन का प्रतीक बन गया। लेकिन इसके बावजूद 2017 में चीन की परस्त कैरी लैन हॉन्ग कॉन्ग की चीफ एक्जीक्यूटिव चुन ली गई।
चीन ने नेशनल सिक्योरिटी लॉ को पास किया
अंब्रैला मूवमेंट के बाद चीन में प्रत्यर्पण कानून के खिलाफ लोग सड़क पर उतरे। दरअसल, हॉन्ग कॉन्ग के मौजूदा प्रत्यर्पण कानून में कई देशों के साथ इसके समझौते नहीं है। इसके चलते अगर कोई व्यक्ति अपराध कर हॉन्ग कॉन्ग वापस आ जाता है तो उस मामले की सुनवाई के लिए ऐसे देश में प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता जिसके साथ इसकी संधि नहीं है। चीन को भी अब तक प्रत्यर्पण संधि से बाहर रखा गया था। लेकिन नया प्रस्तावित संशोधन इस कानून में विस्तार करेगा और ताइवान, मकाऊ और मेनलैंड चीन के साथ भी संदिग्धों को प्रत्यर्पित करने की अनुमति देगा। इस कानून का विरोध कर रहें लोग मानते हैं कि अगर हॉन्ग कॉन्ग के लोगों पर चीन का क़ानून लागू हो जाएगा तो लोगों को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया जाएगा और उन्हें यातनाएं दी जाएंगी। जबकि सरकार का कहना है कि नया क़ानून गंभीर अपराध करने वालों पर लागू होगा। वहीं अब चीन ने नेशनल सिक्योरिटी लॉ के पास कर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हॉन्ग कॉन्ग की आजादी को खत्म कर दिया है। अब से, चीन के पास किसी भी क्रिमिनल सस्पेक्ट पर अपने स्वयं के कानूनों को लागू करने की शक्ति होगी।
Created On :   30 Jun 2020 12:04 PM GMT