भारत के नौ राज्यों के लोक गीत जिनके माध्यम से दिल्ली सुनेगी आजादी के नायकों की कहानियां
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डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। दिल्ली में लोक परंपराओं के माध्यम से देशभक्ति की भावना को प्रदर्शित किया जाएगा। भारत के नौ राज्यों के कुल बारह दल और लगभग सौ कलाकार अनोखे ढंग से नायकों की कहानियां प्रस्तुत करेंगे, इनमें हरियाणा की रागिनी, उत्तरप्रदेश की दास्तानगोई से लेकर छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध एकल कथा गायन शैली पंडवानी भी शामिल हैं।
हरियाणा, रोहतक के सुभाष नगाड़ा एंड ग्रुप द्वारा नगाड़ा, चिमटा, बीन, सारंगी, ढोल, तुम्बा, बैंजो, शहनाई और हारमोनियम जैसे वाद्ययंत्रों पर भक्ति गीतों के माध्यम से दिल्ली का माहौल बदलेंगे तो वहीं रामरथ पाण्डेय एवं उनके साथी कलाकार उत्तर प्रदेश के आल्हा गायन शैली में चंद्रशेखर आजाद की वीरता का गुणगान करेंगे। स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति देने वाले आजादी के योद्धाओं की याद में दिल्ली में 9 राज्यों के लोक लोकगीतों को प्रस्तुत तो किया जाएगा लेकिन इन लोकगीतों का क्या इतिहास रहा है इसपर भी प्रकाश डालेंगे।
हरियाणा राज्य में रागिनी बहुत लोकप्रिय है, यह एक कौरवी लोकगीत विधा है जो पूरे उत्तर भारत की विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में प्रसिद्ध हैं, हरियाणा में मनोरंजन के लिए गाए जाने वाले गीतों में रागिनी प्रमुख हैं। बल्कि अब तो इसे स्वतंत्र लोक-विधा के रूप में लोग स्वीकार करने लगे हैं।
दरअसल, रागिनी पूर्वांचल में प्रचलित कजरी से मिलती जुलती है। जिस तरह से कजरी के मुकाबले होते हैं, उसी तरह रागिनी के मुकाबले भी होते हैं। समय के साथ साथ आजकल रागिनियों द्वारा राष्ट्रभक्ति और सामाजिक समस्याओं को उठाने का कार्य भी किया जाता है। वहीं उत्तरप्रदेश की दास्तानगोई पारसी के दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसमें दास्तान का अर्थ है एक लंबी कहानी और गोई का मतलब है कहना। दास्तान सुनाने के फन को ही दास्तानगोई कहा जाता है। यह मौखिक परंपरा का हिस्सा रहा है।
दास्तानगोई के हिंदुस्तान पहुंचने का सफर सदियों का सफर है और इस लंबे सफर में दास्तान को कहने की विधा, दास्तान को बरतने के फन में और जबान में बदलाव आए। दास्तानों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि दास्तानें अलग-अलग परिस्थितियों में भी अपने को कुबूल लेती है और आपकी बन जाती हैं।
राजस्थान में पण्डुवन के कड़े का अलग ही महत्व है। मूल रूप से पण्डुवन के कड़े की रचना 17 वीं सदी में सडाला खां मेवाती ने की थी। यह महाभारत कथा का सांगीतिक आख्यान है और विशेष रूप से हरियाणा और राजस्थान के मेवात क्षेत्र, नूंह, अलवर तथा भरतपुर जिलों में लोक प्रचलित हैं।
मूल पण्डुवन के कड़े में कुल ढाई हजार दोहे हैं, जिन्हें राग दोहा और धानी में गाया जाता है। ये गायक जोगी भपंग, जोगिया सारंगी, ढोलक, नक्कारा, खंजरी और हारमोनियम जैसे वाद्ययंत्रों के लय-ताल पर पण्डुअन के कड़े गाते हैं और दोहों की भाषा स्थानीय मेवाती बोली है।
इसके साथ ही पंडवानी छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध एकल कथा गायन शैली है। पंडवानी में सिर्फ महाभारत की कथा नहीं होती, बल्कि इसमें गायक गायिका क्षेत्रीय दन्तकथाओं और गौड मिथकों का भी समुचित सम्मिश्रण करते हैं और ये जो दन्तकथाएं और मिथक हैं, वे कई बार शास्त्रों के बिल्कुल विपरीत होते हैं। यूं तो पंडवानी की दो शैलियां कृकापालिक और वेदमती हैं।
पंडवानी की परम्परा जितनी पुरानी है, उतना ही विपुल इसका साहित्य है। यह कभी भी, कहीं भी प्रस्तुत किया जा सकता है। गायक-गायिका अपने हाथ में तम्बूरे लिए परम्परागत पोशाक के साथ मंच पर आते हैं। इनके हाथ में थमा तम्बूरा अवसरानुकूल कभी गदा तो कभी धनुष में परिणत होता रहता है।
लोकगीत के मामले मे तेलंगाना भी पीछे नहीं रहा है, राज्य में परम्परागत लोकनाट्य ओग्गु-कथा बहुत लोकप्रिय है ओग्गु का अर्थ डमरूकम है डमरूकम एक वाद्ययंत्र है जो हाथ से बजाया जाता है तथा कथा का अर्थ है कहानी। अत: इस प्रकार हाथ में डमरूकम लेकर उसे बजाते हुए कहानी कहने को औग्गु-कथा कहते हैं। लोकनाट्य का यह रूप विशुद्ध रूप से शैव सम्प्रदाय की कुरुमा और गोल्ला जातियों से सम्बद्ध है।
पंजाब में ढाढ़ी गायन प्रसिद्ध लोक गाथा गायन शैलियों में से एक है। इस गायन परंपरा को सिख धर्म के छठे गुरु हरगोविंद साहेब ने संगत में, या योद्धाओं में जोश लाने के लिए आरंभ की गयी थी। गुरुगोविंद साहेब के अनुसार, जब मातृभूमि की रक्षा का प्रश्न हो या फिर किसी भी तरह के अत्याचार का सामना करना हो तब अस्त्र शस्त्र उठाने की आवश्यकता होती थी और इसी कारण युद्ध के सैनिकों में जोश लाने के उद्देश्य से ही इस परंपरा की शुरूआत हुई थी।
पोवाड़ा महाराष्ट्र की लगभग 400 वर्ष प्राचीन गाथागीत गायन की एक समृद्ध पारंपरिक शैली है। पोवाडा गायन ने इस क्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। पोवाड़ा की प्रस्तुति गणेश वंदना गण से शुरू होती है और गांधल गीत गाकर देवी माता को भी श्रद्धांजलि दी जाती है। गाथागीत गायकों को शाहीर के रूप में जाना जाता है।
पोवाड़ा में किंवदंती पुरुष तथा महान मराठा राजा शिवाजी के जीवन संघर्ष के प्रकरण को पेश किया जाता है, जो न केवल अपनी वीरता के लिए विख्यात थे, बल्कि न्यायप्रियता तथा अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति की सेवा के लिए भी पोवाडा गायन से वीरों में नव चेतना देने का काम एवं राष्ट्र भावना को जागृत करने का काम किया जाता था।
ढिमरयाई मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र का जातिगत लोक नृत्य है। यह नृत्य ढिमर, केवट, नाविक और कोल जाति के लोगों द्वारा किया जाता है। यह पुरूष प्रधान नृत्य है, इस नृत्य में नृतक सारंगी (रेकडिया) को लेकर गायन एवं नृत्य करता है और बाकी साथी संगत करते हैं। ढिमरयाई में कलाकार धोती, कुर्ता, सलूका, बंडी, सर पर साफा और पैरों में घुंघरू पहन कर नृत्य करते हैं। वहीं वाद्य यंत्रों में खंजरी, रेकड़िया, लोटा, ढोलक, तारे इत्यादि वाद्य प्रमुख रूप से प्रयोग किए जाते हैं ढिमरयाई नृत्य एवं गीत विवाह, जन्म, नवरात्रि, गणेश उत्सव में विशेष रूप से किया जाता है।
दरअसल दिल्ली में तीन दिन का कार्यक्रम संगीत नाटक अकादेमी रंग स्वाधीनता उत्सव का आयोजन कर रही है। इसके जरिए लोक कलाओं को बचाने की भी एक पहल है और इसका उद्देश्य विभिन्न रचना शैलियों के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता का जश्न मनाना है।
(आईएएनएस)
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Created On :   28 Aug 2022 12:00 PM IST