जानें कौन है वास्तुपुरूष, वास्तुशांति में क्या है योगदान
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डिजिटल डेस्क। हर किसी का सपना होता है कि उसका खुद का एक घर हो और यह घर सिर्फ चार दीवारों का एक ढांचा मात्र नहीं होता, यह परिवार की खुशियों से भरा एक आशियाना होता है। लेकिन कई बार नए घर में भी दोष होता है, जो आपके परिवार की खुशियों पर ग्रहण लगाने का कार्य करता है। इन दोषों को दूर करने के लिए भारतीय संस्कृति में सनातन काल से ही कई विधान समाहित हैं।
जब नए घर में व्यक्ति गृह प्रवेश करता है, तो पहले उस स्थान के दृश्य तथा अदृश्य दोषों के शमन के लिए, जमीन के साथ ही उस निर्माण में उपयोग की गई सामग्री की शुध्दि के लिए वह सचेत होता है। यहां वास्तुशांति एक उदाहरण है...
हवन पूजन के माध्यम से शुध्दिकरण
आपको बता दें कि दोषों को दूर करने की परंपरा हमारे यहं है साथ ही उस जगह के वातावरण में व्याप्त अशुध्दियों को हवन पूजन के माध्यम से शुध्दिकरण करने का कार्य भी हम प्राचीन काल से करते आ रहे हैं। वैदिक हवन के द्वारा उस स्थान की नकारात्मकता को दूर किया जाता है। मंत्रो के माध्यम से एक सुरक्षा कवच देने का कार्य करते हैं।श्रीगणेशपूजन, षोडष मातृका पूजन, पुण्याहवाचन, नवग्रह, वास्तुदेव का पूजन आदि का विधिवत पूजन करता है। इसके बाद वह उस घर में प्रवेश करता है।
वास्तुशांति के समय कई बार प्रश्न पूछा जाता है कि ये वास्तुपुरूष कौन हैं? और उनकी उत्पत्ती कैसे हुई? हालांकि इस विषय में जो वास्तुशांति कराने आते हैं उन्हें भी कई बार पता नहीं होता जिसके कारण वे भी इसका ठीक उत्तर नहीं दे पाते। व्यक्ति के मन में उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर न मिलने से मन में वास्तुशांति के प्रति श्रध्दा कम हो जाती है। आइए जानते हैं वास्तुदेव की उत्पत्ती और मान्यता के बारे में...
शास्त्रों के अनुसार
प्राचीन काल में हिरण्याक्ष दैत्य ने भगवान शिव की आराधना कर अन्धकासुर नाम के पुत्र को प्राप्त किया। हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु के वराह अवतार के द्वारा किए जाने से भगवान विष्णु को अंधकासुर अपना शत्रु मानता था। ब्रम्हाजी की आराधना कर अन्धकासुर ने देवताओं द्वारा न मारे जाने का वर प्राप्त किया। अन्धकासुर ने उस वर के बल पर इन्द्रलोक को जीत कर इन्द्र को राज्य विहिन कर दिया।
पद्मपुराण में तो यह वर्णन है कि उसने अमृतपान कर लिया था, अपनी शक्ति और विकराल स्वरूप के अभिमान में अंधा हो गया था। उस दैत्य ने एक बार पार्वतीजी को देख मोहित हो, पार्वतीजी का हरण कर लिया तब भगवान शंकर के बीच भयंकर युध्द हुआ। शंकरजी ने उसे परास्त कर अपने त्रिशूल पर लटका दिया।
अन्धकासुर के हजारों हाथ पांव, आंखे और अंग आकाश से पृथ्वी पर गिर रहे थे, इस युध्द में शंकरजी के ललाट से पसीने की कुछ बुंदे जमीन पर गिरी। उन बूंदो से आकाश और पृथ्वी को भयभीत कर देनेवाला भयंकर प्राणी प्रकट हुआ। वह प्राणी पृथ्वी पर गिरे अन्धकासुर के रक्त का पान करने लगा तथा अंगो को खाने लगा।
रक्त का पान करने और अंगो का भक्षण करने के बाद भी उस उस विचित्र प्राणी की भूख शांत नही हो रही थी। अपनी भूख मिटाने वह सब देवां को मारने चला। तब भगवान शिव ने उसे अपने प्रभाव से स्तंभित कर दिया। जिससे सब देवाताओं की जान में जान आयी। सब देवताओं ने उसे पकड़ा और नीचे मुख करके दबा दिया। नीचे मुख दबाने के बाद सारे देवता उस पर विराजमान हो गए।
इस प्रकार सभी देवताओं द्वारा उस पर निवास करने के कारण वह वास्तुरूप विकराल पुरूष वास्तुपुरूष के नाम से विख्यात हुआ। तब उस दबे हुए वास्तुरूप विकराल पुरूष ने देवताओं से निवेदन किया, क्षमा याचना की। जिससे देवता प्रसन्न हुए तथा उसे वरदान दिया कि तेरी पूजा सब शुभ कार्यों में होगी। देवताओं ने उस पुरूष पर वास किया इसी से उसका नाम वास्तुपुरूष हुआ।
प्रचलित कथा
एक और कथा प्रचलित हैं जो विश्वकर्मा प्रकाश में आई है। विश्वकर्मा प्रकाश ग्रंथ के अनुसार भगवान विश्वकर्मा कहते हैं, कि त्रेतायुग में ब्रम्हाजी ने एक महाभूत पूरूष उत्पन्न किया। वह दिन भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, तृतीया तिथी तथा दिन शनिवार था। कृत्तिका नक्षत्र, व्यतिपात योग, विष्टी करण तथा कुलिक योग था। उस महाकाय पुरूष ने उत्पन्न होते ही अपने शरीर से संपूर्ण भुवन को व्याप्त कर दिया।
उस पराक्रमी पुरूष ने घोर शब्द करते हुए सबको भयभीत कर दिया तब इन्द्र आदि देवताओं ने ब्रम्हाजी की शरण ली। ब्रम्हाजी ने कहा कि आप इस महाबली का विरोध मत करो उसे अधोमुख उल्टा गिराकर इसके उपर बैठ जाओ। जब ऐसा किया तो यह पराक्रमी पुरूष ब्रम्हाजी से बोला हे प्रभु यह चराचर जगत आपने रचा हैं।
यह शरीर भी आपका ही बनाया है, फिर बिना अपराध के ये देवता मुझे क्यों पीड़ा दे रहे हैं। इस पर ब्रम्हाजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम देवताओं के साथ भूमि के नीचे दबे रहो। अब से हर मकान, महल, दुर्ग, जलाशय, उद्यान आदि निर्माण में तुम्हारी पूजा अनिवार्य होगी। इस प्रकार वरदान दिया, तब से वह वास्तुपुरूष रूप से पूजा जाता हैं।
वास्तुशांति में उसे वास्तु के साथ भगवान विष्णु का नाम भी लगता है और उसे वास्तुनारायण की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार से वास्तुपुरूष की उत्पत्ती की कथा का वर्णन ग्रंथों में मिलता है।
आभार: पं. सुदर्शन शर्मा शास्त्री, अकोला
Created On :   11 Oct 2019 4:53 PM IST