दत्त पूर्णिमा: जानें क्यों खास है मार्गशीर्ष की पूर्णमासी, ये है व्रत विधि
डिजिटल डेस्क। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव यानी ब्रह्म, विष्णु और महेश का स्वरूप माना गया है। इनकी गणना भगवान विष्णु के 24 अवतारों में छठे स्थान पर की जाती है। भगवान दत्तात्रेय महायोगी और महागुरु के रूप में भी पूजनीय हैं। दत्तात्रेय एक ऐसे अवतार हैं, जिन्होंने 24 गुरुओं से शिक्षा ली। इनका पृथ्वी पर अवतार मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ था, जो इस बार 11 दिसंबर बुधवार को है।
महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी, अवधूत और दिगम्बर रहे थे। मान्यता है कि वे सर्वव्यापी हैं और किसी प्रकार के संकट में बहुत जल्दी से भक्त की सुध लेने वाले हैं। दत्तात्रेय की उपासना में अहं को छोड़ने और ज्ञान द्वारा जीवन को सफल बनाने का संदेश है। आइए जानते हैं मार्गशीर्ष पूर्णिमा से जुड़े और रोचक तथ्य और मान्यताएं...
करें ये कार्य
मार्गशीर्ष की पूर्णिमा पर प्रात: काल उठें और नित्यकर्म के बाद स्नान करें।
स्नान के बाद सफेद वस्त्र धारण करें, फिर आचमन करें।
इसके बाद भगवान का ध्यान करें और व्रत का संकल्प लें।
अब ॐ नमोः नारायण कहकर, श्री हरि का आह्वान करें।
इसके बाद भगवान को आसन, गंध और पुष्प आदि अर्पित करें।
पूजा स्थल पर वेदी बनाएं और हवन के लिए उसमे अग्नि जलाएं।
इसके बाद हवन में तेल, घी और बूरा आदि की आहुति दें।
हवन समाप्त होने पर सच्चे मन में भगवान का ध्यान करें।
व्रत के दूसरे दिन गरीब लोगों या ब्राह्मणों को भोजन कराएं और उन्हें दान-दक्षिणा दें।
उपासना विधि
श्री दत्तात्रेय जी की प्रतिमा को लाल कपड़े पर स्थापित करने के बाद चन्दन लगाकर, फूल चढ़ाकर, धूप, नैवेद्य चढ़ाकर दीपक से आरती उतारकर पूजा करें। इनकी उपासना तुरंत प्रभावी हो जाती है और शीघ्र ही साधक को उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है। साधकों को उनकी उपस्थिति का आभास सुगन्ध के द्वारा, दिव्य प्रकाश के द्वारा या साक्षात उनके दर्शन से होता है। विश्वास किया जाता है भगवान दत्तात्रेय बड़े दयालु हैं।
पौराणिक ग्रंथों से
देवी अनसूया महान तपस्विनी थीं, एक बार त्रिदेव उनके कुटिया पर पधारे और विकार-वासना रहित भोजन के इच्छा प्रकट की। यह बात सुनकर अचंभित अनसूया ने अपनी आंख मूंदकर ध्यान किया। त्रिदेव अतिथियों को अनसूया ने अपने तपोबल से शिशु बनाया और मातृत्व का अमृत पिलाया। त्रिदेव इच्छा भोजन से तृप्त हो गए और उन्हीं की कृपा से अनसूया को चंद्रमा, दत्त एवं दुर्वासा पुत्र रत्न प्राप्त हुआ।
पृथ्वीतल पर शांति स्थापित करने के लिए भगवान श्री दत्तात्रेय ने सर्वत्र भ्रमण किया। एकांत प्रेमी श्री दत्त औदुम्बर वृक्ष के नीचे बैठकर सृष्टि नियमों की चिंतन करते थे. परोपकार और ईमानदारी इन दो गुणों के रूप में उनका साथ गाय और श्वान होते थे। युवावस्था में ही परम विरागी, अगाध ज्ञानी होते हुए भी संयमी और विश्वशांति के प्रवर्तक श्री दत्त शांत और संयमी युवावस्था के महान आदर्श हैं।
Created On :   10 Dec 2019 11:08 AM IST