प्रकाश पर्व: दसवें पात्शाह गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के इस फैसले से रुक सका बड़ा धर्म परिवर्तन
- सांसारिक, आध्यात्मिक साथ ही साथ शस्त्र विद्या हासिल की
- कई भाषाओं में गुरुबाणी की रचना
- मनवता की रक्षा के लिए 16 युद्ध लड़े
- खालसा पंथ की स्थापना
डिजिटल डेस्क, नांदेड़। दवसें पात्शाह श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज का आगमन दिवस दुनियाभर में मनाया जा रहा है। संसार में ऐसा कोई देश नहीं जहां पात्शाह जी के शबद (कीर्तन) का गायन न होता हो। पंगत और लंगर गुरु जी के पावन उपदेश के साथ दुनिया को नई रौशनी दे रहे हैं। यही कारण है कि गुरु गोविंद सिंह जी महाराज को विश्व पिता के रूप में माना जाता है। जिनका पूरा परिवार मानवता की रक्षा और दुनियाभर के धर्मों की आजादी के लिए शहीद हो गया। सचखंड श्री हुजूर साहिब में पात्शाह ज्योति ज्योत (अलोप) समाए थे। जहां उन्होंने साहिब श्री गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु गद्दी सौंपकर आदेश किया कि अब कोई भी शारीरिक रूप से सिखों का हुरु नहीं होगा, ज्ञान रूपी गुरु ग्रंथ कौम की अगुवाई करेंगे। प्रकाश पर्व के मौके पर तख्त साहिब में खास आयोजन चल रहे हैं।
मुंबई में वडाला स्थित गुरुद्वारे में प्रकाश पर्व के मौके पर कीर्तन दरबार का आयोजन किया गया। इस दौरान बड़ी तादाद में संगत ने कीर्तन सुना और लंगर के दौरान सेवाकार्यों में हिस्सा लिया। महिलाएं लंगर बनाती नजर आईं तो खास तौर से छोटे बच्चों के सिर पर पगड़ी बांधने का कार्यक्रम हुआ। जिससे वे अपने गौरवमई इतिहास को समझ सकें।
गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज और सिख इतिहास शौर्य से भरा है। जिसके आंतरिक बिन्दू में सेवा, सिमरन, मिल बांट के भोजन करना और जरूरत पड़ने पर पराक्रम का भाव प्रवाहित है।
नांदेड़ स्थित नेताजी सुभाषचंद्र बोस महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ परविंदर कौर महाजन के बताया कि श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज क्रांतिकारी, आध्यात्मिक एवं आलौकिक गुणों से संपूर्ण मानव समाज के उद्धारक और मानवता के परीपोषक हैं | गुरु गोविंद सिंह जी का संपूर्ण जीवन मानवता का उच्च आदर्श प्रस्तुत करता है| संत सिपाही श्री गुरु गोविंद सिंह जी के जीवन और कार्य को देखने से पूर्व हमें तत्कालीन धार्मिक,राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को समझना होगा | गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म उन राजनीतिक परिस्थितियों के बीच हुआ जब यहां मुगल साम्राज्य था | अकबर की उदारता तथा उसके द्वारा प्रस्थापित राजनैतिक शांति पूरी तरह नष्ट हो चुकी थी | राजनीतिक दृष्टि से यह घोर अव्यवस्था का समय था |
औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के चलते जनता अन्याय अत्याचार सह रही थी | इस राजनीतिक परिस्थिति का प्रभाव समाज एवं धर्मों पर भी पड़ा | उस वक्त देश का समाज दो वर्गों में बंटा था | एक वर्ग शासक था, जिनका जीवन विलासी एवं ऐश्वर्य पूर्ण था | दूसरा वर्ग सामान्य जनता का था, जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती थी | धर्म के नाम पर आडंबर था | हिंदू और मुसलमान दो वर्गों में बटां समाज सच्चे धर्म और सच्चे मजहब से बहुत दूर था | जात-पात के भेदभाव के कारण समाज में चारों ओर अव्यवस्था और असमानता थी | धार्मिक दृष्टि से यह घोर पतन का काल था | अंधविश्वास, कुरूढ़ियों का अनुसरण और बाह्य आडंबरों का पालन ही धर्म की परिभाषा बन था| स्त्री और पुरुष के बीच बड़ा भेदभाव था, ऐसे समय में गुरु जी ने स्त्री को भी अमृतपान करा, युद्धभूमि के लिए तैयार कर दिया। इससे पहले पहले पात्शाह गुरुनानक जी ने महिलाओं के लिए पर्दा प्रथा समाप्त कर दी थी।
(पटना साहिब, बिहार)
उस वक्त सामाजिक जीवन जाति- उपजाति में बंट गया था | जातिगत भेदभाव के कारण जनता में आपसी द्वेष बढ़ गया था | इन्हीं सारी पृष्ठभूमि में संत सिपाही श्री गुरु गोविंद सिंह जी का जीवन दुनिया के लिए एक आदर्श बनकर स्थापित हुआ।
विक्रमी संवत 1723 की पौष सुदी सप्तमी, सन 1666 में पटना में गुरु गोविंद सिंह जी का आगमन हुआ | गुरु गोबिन्द सिंह जी ने कई रचनाएं लिखीं, जो शौर्य एवंं एक अकाल पुरख की स्तुुति और शक्ति का बखान करती हैं। अपनी रचना में पात्शाह ने धर्म स्थापना, साधु संतों की रक्षा तथा दुष्टों के नाश हेतु ईश्वरीय आज्ञा से इस जगत में अवतार लेने का उल्लेख किया|
अपनी आयु के आरंभ के 6 साल बाल गोबिंद राय ने पटना में व्यतीत किए | उसके पश्चात अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी की आज्ञा अनुसार वह आनंदपुर साहिब, पंजाब में आ गए |उनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अपने पुत्र बालक गोविंद राय की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया | आठ वर्ष की आयु तक बालक गोबिन्द राय ने सांसारिक, आध्यात्मिक साथ ही साथ शस्त्र विद्या भी हासिल कर ली थी | पंजाबी, संस्कृत, फारसी और उन्य भाषाओं के अध्ययन के साथ ही साथ बालक गोविंद राय ने नेजा बाजी, तीरंदाजी, घुड़सवारी, तैराकी आदि शस्त्र विद्या में भी निपुणता प्राप्त कर ली थी |
संत सिपाही गुरु गोविंद सिंह जी के जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी की शहादत है। उस समय भारत में मुगलों का साम्राज्य था। मुगल शासक औरंगजेब बड़े पैमाने पर जबरदस्ती तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन करवा रहा था | इसका प्रारंभ कश्मीर से किया गया था | औरंगजेब ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे मालूम था कि ब्राह्मण हिंदू समाज में पूज्य माने जाते हैं। यदि ये पंडित अपना धर्म परिवर्तन कर लेंगे, तो बाकी हिंदू समाज स्वयं उनके पीछे चलेंगे और धर्म परिवर्तन कर लेंगे |
औरंगजेब ने कश्मीरी पंडितों को मृत्यु का भय देकर धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया। औरंगजेब के इस धर्म परिवर्तन के आदेश से त्रस्त होकर कश्मीरी पंडितों ने अपने धर्म एवं प्राणों की रक्षा के लिए बहुत जगह जाकर सहायता मांगी, लेकिन कहीं से सहायता नहीं मिली | तब उन्हें बताया गया कि आप गुरु नानक देव जी की गुरु गद्दी पर सुशोभित नवम गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी के पास चले जाएं। जिसके बाद कश्मीरी पंडितों का समूह आनंदपुर साहेब श्री गुरु तेग बहादुर जी के पास पहुंचा और अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की दासतान उन्होंने गुरु तेग बहादुर जी को सुनाइ, जिसे सुन गुरु तेग बहादुर जी ने बालक गोबिंद राय की ओर देखा, तभी गोबिंद जी अपने पिता के पास आए और उन्होंने पिताजी से पूछा कि यह लोग कौन हैं? तब गुरु तेग बहादुर जी ने कहा कि, यह कश्मीरी पंडित हैं | इनके ऊपर अत्याचार हो रहा है, यह सुनकर बालक गोबिंद जी ने पूछा कि पिताजी फिर इसका क्या उपाय है ? तब गुरु तेग बहादुर जी ने कहा कि, इनके धर्म की रक्षा का एक ही उपाय है, लेकिन इसमें किसी महापुरुष को शहादत प्राप्त करनी होगी। तब बालक गोबिंद राय बड़ी निडरता और सहजता से बोले कि पिता जी इस समय आप से बड़ा महान पुरुष और कौन हो सकता है? आपको ही इनकी सहायता करनी चाहिए |
9 वर्षीय बालक के साहसिक उत्तर से प्रभावित गुरुजी ने दुखी पंडितों से कहा कि मुगल बादशाह से जाकर कह दो यदि गुरु तेग बहादुर जी धर्म परिवर्तित कर लेंगे, तो सभी अपना धर्म परिवर्तित कर लेंगे | औरंगजेब तक यह संदेश पहुंचा | उसने गुरु तेग बहादुर जी को बंदी बनाकर दिल्ली लाने का हुक्म दिया, लेकिन गुरु तेग बहादुर जी खुद ही दिल्ली चले गए।
भाई मती दास, भाई सती दास, भाई दयाला, भाई जैता, भाई उदा और भाई गुरदित्ता ये सिख भी गुरु तेग बहादुर जी के साथ दिल्ली गए | गुरु तेग बहादुर जी को प्रलोभन दिए गए | जब गुरु तेग बहादुर जी नहीं माने तो उनके सामने भाई मती दास जी को दो टुकड़ों में शहीद किया गया |
भाई दयाला जी को उबलती हुई देग में डालकर शहीद किया गया | भाई सती दास जी के चारों ओर रुई लपेटकर आग लगा दी गई | इसके बावजूद गुरु तेग बहादुर जी का निर्णय ना बदला | आखिर में 11 नवंबर सन 1675 को गुरु तेग बहादुर जी को दिल्ली के चांदनी चौक में शहीद कर दिया गया। इसी स्थान पर सुशोभित गुरुद्वारा शीशगंज गुरु तेग बहादुर जी की अनुपम शहादत को याद दिलाता है |
गुरुजी के शहीद होते ही चारों ओर हाहाकार मचा। इसी बीच गुरुजी का सिख भाई जैता फुर्ती से उनका शीश उठा आनंदपुर बालक गोबिंद जी के पास पहुंचा | बालक गोबिंद जी ने भाई जैता के साहसिक कार्य को सराहा और गले से लगाते हुए कहा- रंगरेटा गुरु का बेटा | एक दूसरा सिख लक्खी शाह बंजारा बैलगाड़ी में गुरुजी का शरीर रख अपनी बस्ती पहुंचा | मुगल सैनिकों को पता ना चले इस कारण गुरुजी के शरीर को अपने घर में रख घर को ही आग लगा दी और उनका अंतिम संस्कार किया। इसी स्थान पर गुरुद्वारा रकाब गंज सुशोभित है |
संसार का इतिहास साक्षी है कि महान क्रांतियों की नींव महान शहीदों के खून से रखी जाती है | धर्म और मानवता की रक्षा हेतु दी गई कुर्बानी के कारण गुरु तेग बहादुर जी को ‘हिंद की चादर’ कहा गया।
कवि सेनापति के अनुसार गुरु तेग बहादुर जी केवल हिंद कि नहीं बल्कि संपूर्ण सृष्टि की चादर है | फिर अंग्रेजी विद्वान मैकालीफ़ का कहना है कि, इस शहादत की तुलना दुनिया की किसी भी घटना के साथ नहीं की जा सकती, क्योंकि यह अपने आप में अनोखी और अलौकिक घटना है |
अपने पिता के बलिदान के समय बालक गोबिंद राय की उम्र केवल 9 वर्ष की थी | इतनी छोटी सी उम्र में ही सिखों के दसवें गुरु के रूप में गुरु पद का दायित्व उनके कंधों पर आ गया, सर्वस्वदानी गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस दायित्व को बड़ी वीरता से निभाया |
गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य खालसा पंथ के सृजना है | गुरु तेग बहादुर जी की शहादत के बाद गुरु गोविंद सिंह जी भली-भांति जान गए थे, कि जुल्म और अत्याचारों को रोकने के लिए सशस्त्र संघर्ष ही अपरिहार्य है, हालांकि छठवें गुरु, गुरु हरगोबिंद साहिब ने पहले ही सिखों को सैनिक के रूप में तैयार करना शुरु कर दिया था, लेकिन खालसा पंथ की स्थापना के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिख को संपूर्ण रूप से संत के साथ-साथ सिपाही भी बना दिया।
गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने नए खालसा पंथ के निर्माण के लिए बैसाखी वाला दिन चुना | बैसाखी जागृति का प्रतीक माना जाता है | सन 1699 में बैसाखी के दिन केसगढ़, आनंदपुर साहेब में एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया गया | इसमें संपूर्ण भारत तथा अफगानिस्तान ईरान तक फैले गुरुजी के सिखों को बुलाया गया था | विशाल समुदाय के सम्मुख हाथ में चमकती तलवार लिए गुरु जी ने क्रम से 5 शीश मांगें |
लाहौर निवासी दयाराम खत्री, हस्तिनापुर के रहिवासी धर्मदास जाट ,जगन्नाथ पुरी के रसोइए हिम्मत राय, द्वारका के धोबी मोहकम चंद और बीदर के नाई साहेब चंद ने अपना अपना शीश भेंट किया | गुरुजी ने पांचों प्यारों अमृत पान कराया और उन्हें दया सिंह जी, धर्म सिंह जी, हिम्मत सिंह जी ,मोहकम सिंह जी और साहेब सिंह जी ये नाम दिए | गुरुजी ने उन्हें पंज प्यारे की पदवी प्रदान की | फिर से गुरु जी ने उन पांचों प्यारों से खुद भी अमृत पान किया और वे गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए |
संसार के इतिहास में यह एक ऐसा इंकलाबी कदम माना गया, जिसमें किसी गुरु ने अपने ही शिष्यों से दीक्षा प्राप्त की हो | इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने अमृत पान करा जात-पात तथा ऊंच नीच के भेद को नष्ट कर समानता की घोषणा की | पांच ककार- केश, कंघा, कड़ा, कछहरा और कृपाण से सुसज्जित खालसा की एक विशिष्ट पहचान बनाई |
गुरु जी के दो साहिबजादे (पुत्र) चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए और दो छोटे साहिबजादों को नवाब के हुक्म से सरहंद स्थित दीवारों में चुनवाकर शहीद किया गया था। अपने चारों पुत्रों की शहीदी पर दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने सिखों की ओर संकेत करते हुए कहा-
“ इन पुत्रन के शीश पर ,वार दिए सुत चार ,
चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार |”
श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने जीवन में जितने भी युद्ध किए, वे धर्म युद्ध थे | यह धर्मयुद्ध उन्होंने जुल्म तथा अत्याचार पीड़ित जनता को गुलामी से मुक्त कराने के लिए किए थे | वे अद्भुत भाषाविद एवं महान कवि भी थे। उनके दरबार में 52 कवियों का होना भी प्रसिद्ध है। दमदमा साहिब, पंजाब में श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने ‘ श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी ‘ को पुनः संपादित करने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया |
सन 1708 को गुरु गोविंद सिंह जी दक्षिण के गोदावरी नदी के तट पर स्थित स्थान नांदेड पहुंचे | जब उन्हें ज्ञात हुआ कि सचखंड गमन का समय करीब पहुंचा है, तब उन्होंने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु गद्दी प्रदान की और पूरे सिख जगत को यह आदेश दिया कि आज के बाद व्यक्ति गुरु की परंपरा यहां समाप्त हो गई और सिर्फ शब्द गुरु ‘ श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी ‘ को ही प्रत्येक सिख अपना गुरु मानेगा | विक्रमी संवत 1765 की कार्तिक सुदी पंचमी, 7 अक्टूबर 1708 को श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ज्योति ज्योत समा गए | तब इनकी आयु 42 वर्ष की थी |
(सचखंड तख्त श्री हुजूर साहिब, नांदेड़)