कई लोगों ने पर्दे के पीछे रहकर दी आंदोलन को मजबूती, अब जीत का जश्न मनाते हुए घरों की ओर लौट रहे
- 11 दिसंबर को घर लौट चुके है किसान
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। कृषि कानूनों के खिलाफ 379 दिनों तक दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन चला। किसान सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतरे। हालांकि, एक बात तो तय है कि ये आंदोलन जितना सामने रह कर लड़ा गया, उतना ही पीछे रह कर भी लड़ा गया।
किसान आंदोलन के दौरान कई ऐसे व्यक्ति भी हैं, जिन्होंने सब कुछ छोड़ अपना पूरा समय आंदोलन में लगा दिया। इतना ही नहीं, आम जनता तक किस तरह आंदोलन को सही तरह से पहुंचाया जाए और आंदोलन में शामिल हो रहे लोगों के लिए कैसे रुकने की व्यवस्था की जाए, यह भी एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आई।
लाखों की संख्या में किसानों के लिए लंगर बनाया गया। आन्दोलन स्थलों पर टैंट की व्यवस्था की गई, सर्दी, गर्मी, बारिश और आंधी तूफान से भी किसानों ने डट कर सामना किया।
इसके अलावा जब आंदोलन के दौरान टेंट में आग लगी, तो उसकी जगह दूसरा टेंट मुहैया कराना, उनकी मदद की गई, यह सभी वो छोटी छोटी चीजें है, जिसने आंदोलन को मजबूत बनाया।
किसान नेता कैमरे के सामने आकर सरकार के खिलाफ बिगुल बजा चुके थे तो वहीं कैमरे के पीछे कुछ व्यक्ति आंदोलन में जान फूकने में लगे हुए थे। इनमें फुटबॉल प्लेयर, से लेकर कॉलेज छात्रा तक शामिल हैं। आन्दोलनस्थलों पर बुजुर्ग किसान रणनीति बनाते, तो उसको अमल करने के लिए नौजवान युवा इधर से उधर भागते थे।
दरअसल शुरूआत में किसानों को लेकर तमाम तरह की अफवाह फैलाई गई, जिसे किसानों को गलत साबित करना बड़ा मुश्किल हो रहा था, कुछ दिनों बाद आन्दोलनस्थल पर मौजूद एक युवा ने आईटी सेल बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे किसान नेताओं ने स्वीकार कर लिया।
पँजाब निवासी बलजीत सिंह ने किसानों के लिए एक आईटी सेल बनाया और सभी संगठनो के अलग अलग बयानों को एक आधिकारिक बयान में तब्दील किया। किसानों के आंदोलन को लेकर देश दुनिया में सही संदेश जाए, उसको लेकर एक सोशल मीडिया कैम्पेन भी चलाया।
बलजीत सिंह ने आईएएनएस को बताया, शुरूआत में किसानों को लेकर बेहद गलत गलत बातें बोली गई, उसको काउंटर करने के लिए हमें कुछ चाहिए था। तमाम संगठन इस आंदोलन में मौजूद थे, उन सबकी बातों को एक प्लेटफॉर्म के माध्यम से पहुंचाना भी जरूरी था। हमने एक आईटी सेल बनाया और उसे चलाना शुरू किया।
हर दिन सुबह हम आंदोलन से जुड़ी बातों को प्लेटफॉर्म पर डालने लगे, हैशटैग बनाया जिसे दुनिया भर में फैलाया भी। बीच में हमारे ऊपर बंदिशें लगा दी गई। विभिन्न सोशल मीडिया साइट्स को बंद करने का प्रयास हुआ, लेकिन सभी कोशिशें नाकाम रही।
बलजीत के साथ कई अन्य युवा भी शामिल है जिन्होंने अपनी पहचान को छुपाते हुए आंदोलन को आगे बढ़ाया। ऐसे ही एक युवती जिसने आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों की जानकारी इखट्टा की।
दरअसल आंदोलन के दौरान कई किसान रोड एक्सीडेंट, दिल का दौरा पड़ने से तो वहीं किसानों की बीमारी से मृत्यु हो रही थी।
अनुरूप संधू और उनके साथियों ने उन सभी लोगों की जानकारी जुटाना शुरू की और एक जगह पर लिखना शुरू किया। अनुरूप के पास अब तक करीब 714 मृतक किसानों की जानकारी है।
अनुरूप संधू ने आईएएनएस को बताया, हमने यह सभी जानकारी पब्लिक पेलटफॉर्म से जुटाई है, इसमें मेरे एक साथी का भी बहुत बड़ा योगदान था। हम मिलकर डेथ सर्टिफिकेट, अखबार के माध्यम से सभी मृतक किसानों को लेकर एक जगह लिखना शुरू किया, क्योंकि कई किसान दिल का दौरा पड़ने से शहीद हो गई। कई महिला किसानों की सड़क पर कुचलने से मृत्यु हो गई थी।
हमें कोई एक प्लेटफॉर्म चाहिए था जहां सभी किसानों की जानकारी हम दे सकें। उनको भविष्य में याद किया जाए और इनके योगदान को भुला नहीं जाए, ये भी जरूरी था।
इसके अलावा आंदोलन में किसानों के लिए टेंट की व्यवस्था करना, उनके लंगर का इंतजाम करना और किसानों की तस्वीरों को विदेशों तक पहुंचाने का काम युवा किसानों ने किया। कसान संगठनों के बीच समन्वय बनाने का भी काम आंदोलन में मौजूद लोगों ने किया।
हालांकि आंदोलन के शुरूआत में भाषाओं को लेकर दिक्कत आई, लेकिन कुछ युवा किसानों ने इस समस्या को भी दूर करने के काम किया। आन्दोलनस्थलों पर देश के कोने कोने से लोग आए, उनकी भाषा अलग रही जिससे अन्य किसानों को समझने में दिक्कतें आई और मीडिया तक पहुंचाने में मुश्किल होने लगी।
एक किसान का दूसरे किसान तक सन्देश और लोगो तक उनके सन्देश को पहुंचाने में भी युवाओं ने बहुत बड़ा योगदान दिया।
हरिंदर हैपी नामक युवक ने सभी किसानों की भाषाओं को मिडिया तक पहुंचाने का काम किया। उन्होंने अपने साथ कुछ युवाओं को जोड़ा जो अलग अलग भाषाओं को बोलने में माहिर थे और हिंदी, पंजाबी और अंग्रेजी भाषओं में मीडिया तक प्रेस रिलीज भिजवाने का काम किया।
इसके साथ वह मृतक किसानों की जानकारी को भी इकट्ठा करते थे। उनके साथ सजनित मंगत भी थी जो एक एक्सेल शीट बनाया करती थी।
हरिंदर हैपी ने बताया कि, आंदोलन की शुरूआत के बाद तमिलनाडु से किसान आये, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा व अन्य राज्यों से किसान आये जिनकी भाषाओं में बेहद अंतर था। मीडिया तक हम अपनी बात तभी पहुंचा सकते थे, जब हम इनके बीच तालमेल बना सके।
हमने मीडिया तक हिंदी, अंग्रेजी और पंजाबी में प्रेस रिलीज बनाने का विचार किया, क्योंकि कई रिपोर्टर हिंदी इंग्लिश नहीं जानते थे उन्हें पंजाबी आती थी, कुछ को कोई और भाषा आती थी इसलिए हमने तीनों भाषाओं में जानकारी जुटा भिजवाना शुरू किया।
दिल्ली की सीमाओं पर मेडिकल सुविधाओं और किसानों को उन सुविधाओं का लाभ भी पहुंचाने का काम किया गया, आंदोलन की शुरूआत में कई कैम्प लगाए गए थे, जिनमें सिर्फ दवाइयाँ मिला करती थी।
डॉ अवतार सिंह ने सर्दियों के दौरान बुजुर्ग किसानों की बड़ी मदद की उन्होंने आन्दोलनस्थलों पर अस्पताल चलाये, यदि कोई मरीज बीमार होता था, तो उसे भर्ती कर उनका इलाज किया जाता था और तबियत ज्यादा बिगड़ने पर एम्बुलेंस के माध्यम से अन्य अस्पतालों में भर्ती किया जाता था।
आंदोलन में बुजुर्ग किसानों की संख्या ज्यादा थी तो उनका बीपी चैक करना, उन्हें सही सलाह देना यह दिल्ली की सीमाओं पर बैठे डॉक्टर्स ने किया, जो सालों तक आंदोलन को समर्थन देते रहे और उसी किसानों की सेवा करते रहे।
(आईएएनएस)
Created On :   12 Dec 2021 1:30 PM IST