पांच साल बाद आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट से मिली जमानत
भीमा कोरेगांव हिंसा मामला
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में गत पांच साल से जेल में बंद सामाजिक कार्यकर्ता वर्नोन गोंजाल्विस और अरुण फरेरा को जमानत दे दी है। जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि हालांकि उनके खिलाफ आरोप गंभीर है, लेकिन केवल यही जमानत से इनकार करने और मुकदमे के लंबित रहने तक उनको हिरासत में रखना उचित नहीं है। वे 5 साल से अधिक समय से जेल में है। लिहाजा उन्हें इस तरह से कैद में नहीं रखा जा सकता।
दोनों को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत कथित अपराधों के लिए अगस्त 2018 से जेल में बंद है। उन्हें 2018 में पुणे के भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा और वामपंथी संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ कथित संबंध होने के कारण गिरफ्तार किया गया था। जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने आज बॉम्बे हाईकोर्ट के दोनों को जमानत देने से इनकार करने के आदेश को रद्द करते हुए निर्देश दिया कि उन्हें विशेष एनआईए कोर्ट द्वारा लगाई गई शर्तों पर जमानत पर रिहा किया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि गोंजाल्विस तथा फरेरा महाराष्ट्र से बाहर नहीं जायेंगे। पुलिस के समक्ष अपना पासपोर्ट जमा करायेंगे। दोनों आरोपी एक-एक मोबाइल का इस्तेमाल करेंगे और मामले की जांच कर रही एनआईए को अपना पता बतायेंगे। एजेंसी को उनका सही पता मालूम होगा तो वो उनकी गतिविधियों पर बारीकी से नजर रख सकेगी। वे सप्ताह में एक बार जांच अधिकारी को भी रिपोर्ट करेंगे।
गोंजाल्विस और फरेरा की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि जिस सामग्री के आधार पर एनआईए ने अपीलकर्ताओं को फंसाने की कोशिश की, वह अप्रत्यक्ष होने के अलावा और कोई सांठगांठ नहीं थी। उनके तर्क का सार यह था कि आतंकवाद विरोधी कानून के तहत आरोपों का आधार बनाने वाले दस्तावेज न तो अपीलकर्ता के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से बरामद किए गए थे, न ही उनके द्वारा भेजे गए या उन्हें संबोधित थे। हालांकि, एनआईए की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने जोर देकर कहा कि यूएपीए की धारा 43 डी की उपधारा (5) के तहत प्रथम दृष्ट्या मामले को समझने के लिए रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री पर्याप्त थी।