बड़े फैसले-बड़ी वजह: न खेमेबाजी और न ही पॉलिटिकल शो बाजी, इन आधारों पर होता है सीएम का चयन, जानिए क्या है मोदी-शाह का सक्सेसफुल फॉर्मुला?
- मोदी-शाह युग में सफलता के शिखर पर पहुंची बीजेपी
- गुटबाजी और अंदरुनी कलह का पार्टी से किया खात्मा
- नाम की जगह काम को दिया महत्व
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान हो गया है। जिन लोगों के नाम सीएम पद के लिए सामने आए हैं उन्हें देखकर हर कोई चौंक गया है। साथ ही सियासी गलियारों में मोदी-शाह की कार्यशैली को लेकर भी चर्चा हो रही है। जहां कांग्रेस समेत सभी विरोधी दल बीजेपी पर निशाना साध रहे हैं कि किस तरह इन राज्यों खासकर मध्यप्रदेश में जनभावनाओं की उपेक्षा की गई। दरअसल, मोहन यादव के चुनाव के समय कई लोगों का मानना था कि पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान दोबारा सूबे की सत्ता संभालने के प्रमुख हकदार थे। उन्हें योजना के तहत किनारे किया गया।
पर वर्तमान समय में बीजेपी अन्य पार्टियों के मुकाबले जिस तेजी से आगे बढ़ रही है, उसका मुख्य कारण यह भी है कि वो फैसले लेने में किसी तरह का दबाव नहीं लेती है। मोदी शाह के युग में फैसला लेने का सिर्फ एक ही आधार है और वो है पार्टी हित। जिसका मतलब है आने वाले चुनावों में किसी फैसले से जनसमर्थन में कितनी बढ़ोतरी होगी। यदि कोई इस टेस्ट में पास होता है तो चाहे उसके नाम पर कितने ही दाग हों, सब उजले हो जाते हैं।
नाम नहीं, काम सर्वोपरी
बीजेपी की सफलता के पीछे बहुत बड़ा कारण यह है कि यहां आज के समय में पॉलिटिकल शो बाजी के जगह एक आम कार्यकर्ता के जैसे काम करने वालों को आगे किया जाता है। यहां पीआर एजेंसी या फिर ब्रांडिंग करके अपना नाम चमकाना बेवकूफी होगी। ऐसा करके लोग अपना खुद का नुकसान करवा लेते हैं। क्योंकि बीते कुछ सालों के दौरान पार्टी आलाकमान द्वारा सीएम चयन के पैटर्न को देखें तो ऐसे चेहरों को चुना गया है जिनका नाम बड़ा होने की बजाय उनके जमीनी स्तर के काम और राज्य में जातीय समीकरण को देखा गया। चाहे वो हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर हों, झारखंड के पूर्व सीएम रघुबर दास हों, बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम ताराकिशोर प्रसाद हों या फिर उमा देवी इन सभी को पद ग्रहण करने से पहले कोई जानता तक नहीं था।
मध्यप्रदेश का उदाहरण लें तो यहां के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान भले ही राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। पर उन्हें इस बात का घमंड हो गया था कि उनकी लाड़ली लक्ष्मी योजना और अन्य फैसलों के चलते प्रदेश में पार्टी ने प्रचंड बहुमत के साथ वापसी की है। शायद यही वजह रही कि उन्हें अपने दोबारा सीएम का पद नहीं मिला। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश बीजेपी के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय के उस बयान पर गौर करें जो उन्होंने राज्य के नतीजे आने के बाद दिया था। उन्होंने कहा था कि छिंदवाड़ा में क्यों नहीं लाडली बहना को वोट मिला ? छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी तो लाडली बहना योजना नहीं थी फिर भी बीजेपी वहां भारी बहुमत कैसे जीत कर आई?
जातिगत समीकरण बड़ा फैक्टर
बीजेपी में अब पद का वर्गीकरण जिस आधार पर किया वो है जातिगत समीकरण। 'जिसकी जितनी आबादी-उसकी उतनी हिस्सेदारी' भले ही ये नारा विपक्ष का हो। पर इसे सही तरीके से बीजेपी ने ही लागू किया है। उदाहरण के रूप में हरियाणा के सीएम मनोहरलाल खट्टर के चयन को देखें तो उनका चयन मुख्यमंत्री के रुप में इसलिए हुआ क्योंकि वो पंजाबी हैं और हरियाणा में जाट समुदाय के बाद पंजाबी समुदाय की जनसंख्या ही सबसे ज्यादा है।
वहीं हालिया राज्यों में घोषित हुए सीएम के नाम खास जातियों को ध्यान में रखकर घोषित किए गए हैं। यदि आप इस समीकरण में फिट नहीं बैठते तो फिर आप आलाकमान के कितने भी करीब हों कोई फायदा नहीं होने वाला। ऐसा नहीं है कि यह समीकरण केवल सीएम पद तक ही सीमित है। मौजूदा समय में राज्यपाल, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और यहां तक राज्यों में उपमुख्यमंत्री व विधानसभा अध्यक्ष के पद का चुनाव भी बीजेपी में इसी फैक्टर को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। उदाहरण के लिए राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू और पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का चयन दलित वोटरों और उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ का चयन राजस्थान, यूपी, हरियाणा और एमपी के जाट समुदाय को साधना था।
शक्ति का केंद्रीकरण
मौजूदा समय में बीजेपी की सफलता का एक बड़ा कारण शक्ति का केंद्रीकरण है। आज पार्टी में किसी गुट को आलाकमान के सामने सर उठाने की इजाजत नहीं है। जो फैसला शीर्ष नेतृत्व ने कर दिया उसके खिलाफ जाने की किसी की हिम्मत नहीं होती। ऐसा ही कुछ कांग्रेस में इंदिरा गांधी के समय होता था। लेकिन आज की कांग्रेस पार्टी के लगातार गिरते प्रदर्शन की यही सबसे बड़ी वजह है कि उसमें शक्ति एक जगह केंद्रित नही है। देश की सबसे पुरानी पार्टी में न उसके शीर्ष नेता राहुल गांधी की बात सुनी जा रही है और न ही प्रियंका गांधी की। यही वजह है कि बीते कई राज्यों में बीजेपी से अच्छी स्थिति होने के बावजूद भी कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई। गोवा में जहां बीजेपी से ज्यादा सीटें लाकर भी कांग्रेस की सरकार नहीं बनी , वहीं एमपी में बनी बनाई सरकार केवल डेढ़ साल ही चल सकी। अंदरुनी कलह और मजबूत नेतृत्व के न होने के चलते कांग्रेस का प्रदर्शन चुनाव-दर-चुनाव कमजोर होती जा रहा है।
गुटबाजी का खात्मा
मोदी-शाह के युग में पार्टी के अंदर जारी गुटबाजी और अंदरुनी कलह को खत्म कर दिया है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान को लें तो यहां बीते 5 सालों में गुटबाजी चरम पर थी। लेकिन आलाकमान के लगातार प्रयासों से पार्टी में चल रही गुटबाजी को खत्म कर दिया गया। जिसका परिणाम रहा कि एक समय राजस्थान विधानसभा चुनाव में पिछड़ती नजर बीजेपी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया। इसके अलावा एमपी और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष का पद भी उन्हें दिया गया जो गुटबाजी में शामिल नहीं थे।