रामलला प्राण प्रतिष्ठा: रामलला की स्थापना के साथ शंकराचार्य को आई 'रामलला विराजमान' की याद, जानिए राम मंदिर आंदोलन में क्यों महत्वपूर्ण रही भूमिका

  • शंकराचार्य ने श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट को लिखा एक पत्र
  • अविमुक्तेश्र्वरानंद ने 'रामलला विराजमान' को लेकर किए प्रश्न
  • नई मूर्ति को गर्भ-गृह में स्थापित करने को लेकर उठाए सवाल

Bhaskar Hindi
Update: 2024-01-18 12:40 GMT

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। अयोध्या सहित पूरे देश के लिए आज एक ऐतिहासिक दिन है। जिस पल का देश के हिंदुओं को बीते दो सौ सालों से इंतजार था वो आज आ ही गया। राम की जन्मभूमि पर राम लला विराजमान हो गए हैं। पूरे विधि विधान के साथ उनकी प्रतिमा को गर्भगृह में स्थापित कर दिया गया है। लेकिन इसके साथ ही कुछ भक्तों को पुराने रामलला की याद भी सताने लगी है। जिनकी प्रतिमा स्वयं राम मंदिर में प्रकट हुई बताई जाती है। और, जिनके नाम से बरसों तक राम मंदिर का केस भी लड़ा गया। जिन्हें नाम मिला रामलला विराजमान, जो स्वयं भगवान भी हैं और सालों तक अपना केस लड़ने वाले एक पक्षकार भी। 

ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य ने श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में स्वामी अविमुक्तेश्र्वरानंद ने 'रामलला विराजमान' को लेकर कुछ प्रश्न किए हैं। साथ ही रामलला की नई मूर्ति को गर्भ-गृह में स्थापित करने पर सवाल भी उठाया है। शंकराचार्य का मानना है कि नई मूर्ति स्थापित करने से 'रामलला विराजमान' की उपेक्षा होगी। इसके अलावा मंदिर आंदोलन में भाग लेने वाले संत समाज के साथ उन सभी लोगों का अपमान होगा जिन्होंने मंदिर के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित किया। उनका मानना है कि अब तक जिन लोगों ने मंदिर आंदोलन में बलिदान दिया है वह गर्भ-गृह में नई मूर्ति स्थापित करने से व्यर्थ हो जाएगा।

कौन हैं 'रामलला विराजमान'?

22 दिसंबर 1949 में मंदिर आंदोलन में एक नया मोड़ आया। इस दिन बाबरी मस्जिद के केंद्रील गुम्बज में रामलला की मूर्ति का प्राकट्य हुआ। विवादित परिसर में उस समय पहरा दे रहे मुस्लिम चौकीदार ने भी प्राकट्य स्थान से नीली रौशनी देखने की बात कही थी। हालांकि, बाद में अन्य लोगों की मदद से संत अभिराम दास के सुनियोजित ढंग से गुम्बज के भीतर मूर्ति रखने की बात सामने आई। इसी मूर्ति को 'रामलला विराजमान' कहा गया जिन्होंने आगे जाकर खुद अदालती मुकदमा लड़ा और जीता।

संत अभिराम दास जी महाराज अयोध्या के हनुमानगढ़ी में उज्जैनिया पट्टी के नागा साधु थे और रामनंदी संप्रदाय के युवा साधुओं में अग्रणी थे। माना जाता है कि इस संत का शीर्ष पुलिस अधिकारियों के साथ अच्छा संपर्क था और उनकी मदद से ही उन्होंने रामलला को मस्जिद के अंदर रखा था। भगवान राम की मूर्ति स्थापित करना हमेशा से उनका ध्येय था। उनके कुछ शिष्य थे जिन्हें वह अपने सपने के बारे में बताते थे जिसमें भगवान राम ने उन्हें अपने जन्म के सटीक जगह के बारे में बताया था। संत अभिराम दास उस स्थान की पहचान बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुम्बज के भीतर के स्थान के रूप में करते थे। 'अयोध्या - द डार्क नाइट' नाम की किताब के मुताबिक, 'केंद्रीय गुंबद के अंदर रामलला की मूर्ति को रखना अभिराम दास और दो शीर्ष जिला अधिकारियों का समन्वित कार्य था।' कृष्ण झा और धीरेंद्र झा इस किताब के लेखक हैं। बाद में रामलला की मूर्ति को मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के अंदर रखने के संबंध में संत अभिराम दास जी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई।

'रामलला विराजमान' कब और क्यों बने पक्षकार?

जब मंदिर को लेकर फैजाबाद के सिविल कोर्ट में मुकदमा चल रहा था तो हिंदू पक्ष के पास सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मंदिर का पक्ष लेने वाला कोई नहीं था। क्योंकि, जो पक्षकार मुकदमा लड़ रहे थे उनका मंदिर से सीधे तौर पर कोई जुड़ाव नहीं था। जस्टिस देवकीनंदन ने वरिष्ठ अधिवक्ता अरूण गुप्ता को रामलला विराजमान को ही पक्षकार बनाने का आइडिया दिया। उनका मानना था कि जब रामलला खुद पक्षकार बन जाएंगे तो इस तरह की सारी समस्या खत्म हो जाएगी और ऐसा ही हुआ।

दरअसल, सिविल कानून में प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ति को जीवित व्यक्ति के समान दर्जा प्राप्त है और ईश्वर होने के कारण उनकी कभी मृत्यु भी नहीं हो सकती है। इस विषय पर देवकीनंदन अग्रवाल ने अशोक सिंघल से बातचीत की और सहमति मिलने पर 1 जुलाई 1989 को लखनऊ खंडपीठ ने रामलला को पक्षकार बनाने के लिए याचिका दायर की। कोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार कर लिया।

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