चुनाव आयोग की पाबंदी के बावजूद जाति-धर्म के नाम पर वोट मांगने का खेल
चुनाव आयोग की पाबंदी के बावजूद जाति-धर्म के नाम पर वोट मांगने का खेल
डिजिटल डेस्क, मुंबई। देश में चुनाव का धर्म-जाति, भाषा व प्रांतवाद से गहरा नाता रहा है। टिकट बांटने से उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने तक इसका सहारा लेना आम है। चुनाव आयोग की तमाम पाबंदियों के बावजूद चुनाव में धर्म, जाति, भाषा के नाम पर वोट मांगने का खेल नहीं रुक रहा।
सिर्फ कानून से नहीं आएगा बदलाव
महाराष्ट्र के पूर्व चुनाव आयुक्त जेएस सहारिया कहते हैं कि मतदान के लिए जाति,धर्म, भाषा का सहारा लेने पर रोक है, इस पर पाबंदी के लिए कानून में प्रावधान भी हैं, लेकिन इस पर वास्तव में रोक लगाने के लिए राजनीतिक दलों को सरकार के साथ मिलकर नए सिरे से आचार संहिता तैयार करनी होगी। सिर्फ कानून बना देने से काम नहीं चलेगा। वैसे भी चुनाव आचार संहिता यानी कोड ऑफ कंडक्ट कोई कानून नहीं है। 20-25 साल पहले राजनीतिक दलों के नेताओं ने सरकार के साथ मिलकर यह कोड ऑफ कंडक्ट तैयार किया था।
ऐसे उम्मीदवारों-दलों पर लगे पाबंदी
समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आसिम आजमी कहते हैं कि चुनाव में धर्म, जाति, भाषा का इस्तेमाल रुकना चाहिए। चुनाव में धर्म-जाति का इस्तेमाल करने वाले उम्मीदवार व उसकी पार्टी पर पाबंदी लगनी चाहिए। इसको लेकर जो कानून हैं, वह केवल कागजों तक सीमित हैं। मेरे पास कई ऐसी सीडी है, जिसमें लोग धर्म के नाम पर भड़काऊ भाषण दे रहे हैं। दरअसल धर्म-जाति को लेकर लोग भावनात्मक हो जाते हैं, इसलिए नेताओं को लोगों को धर्म-जाति के नाम पर बरगलना आसान होता है, पर इससे नुकसान आम जनता का ही होता है।
1991 में निर्वाचन रद्द हुआ था
जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के तहत बॉम्बे हाईकोर्ट ने 1990 में भाजपा के टिकट पर मुंबई की सांताक्रुज सीट से विधायक चुने गए अभिराम सिंह का निर्वाचन ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू राष्ट्र’ ने नाम पर वोट मांगने के कारण रद्द कर दिया था। अभिराम सिंह ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। अभिराम सिंह के मामले में दिवंगत बाल ठाकरे और प्रमोद महाजन पर ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू राष्ट्र’ ने नाम पर वोट मांगने का आरोप था। सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2017 में इस मामले में अपना फैसला सुनाया था।
सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की संवैधानिक पीठ ने इस फैसले में कहा था कि चुनावों में ‘धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट नहीं मांगे जा सकते। यह फैसला जनप्रितिनिधि कानून की धारा 123(3) की व्याख्या करते हुए दिया गया था। इस धारा के अनुसार उक्त आधारों पर वोट मांगना ‘भ्रष्ट आचरण’ की श्रेणी में आता है और ऐसा करने पर किसी प्रत्याशी का चुनाव तक रद्द किया जा सकता है। 1990 में अभिराम सिंह के चुनाव जीतने के बाद दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस प्रत्याशी सीडी उमाचन ने उनके खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में एक चुनाव याचिका दाखिल की थी। याचिका में आरोप था कि अभिराम सिंह ने वोटरों से हिंदू धर्म को आधार बनाते हुए वोट मांगे थे। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इन आरोपों को सही पाया और 1991 में अभिराम सिंह का चुनाव रद्द करने का फैसला सुना दिया था। इस फैसले को चुनौती देते हुए अभिराम सिंह सुप्रीम कोर्ट गए थे।