बॉम्बे हाईकोर्ट: नवी मुंबई के डे केयर सेंटर में 10 महीने की बच्ची से क्रूरता मामले में सजा कम करने से इनकार

  • दोषी महिला केयरटेकर की 10 साल की सजा कम करने से किया इनकार
  • खारघर पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर महिला को किया था गिरफ्तार
  • मां काम पर जाते समय डे केयर सेंटर में देखरेख के लिए छोड़ती थी बच्ची

Bhaskar Hindi
Update: 2024-08-30 15:14 GMT

डिजिटल डेस्क, मुंबई. बॉम्बे हाई कोर्ट ने नवी मुंबई के डे केयर सेंटर में 10 महीने की बच्ची को फर्श पर पटकने वाली दोषी महिला केयरटेकरकी 10 साल के कारावास की सजा को काम करने से इनकार कर दिया। अदालत ने महिला के खिलाफ रायगढ़ सेशन कोर्ट के 10 साल के कारावास की सजा के फैसले को बरकरार रखा है। न्यायमूर्ति सारंग बनाम कोतवाल की एकलपीठ के समक्ष दोषी केयरटेकर अफसाना नासिर शेख की ओर से वकील मनीषा जगताप की दायर याचिका पर सुनवाई गुई। याचिका में रायगढ़ सेशन कोर्ट के 10 साल के कारावास की सजा को चुनौती दी गयी थी। याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि याचिकाकर्ता के साथ नरमी बरती जाए, क्योंकि वह एक महिला है और नवंबर 2016 से लगातार हिरासत में है। इस मामले में दो आरोपी बरी हो चुके हैं। इस पर पीठ ने कहा कि साक्ष्यों से पता चलता है कि यह कोई अकेली घटना नहीं थी, बल्कि याचिकाकर्ता अन्य बच्चों को भी पीटती थी और उनके साथ क्रूरता से पेश आती थी। यह अपराध इतना गंभीर है कि दस महीने की बच्ची को दो बार फर्श पर पटक दिया गया और उसकी आंख में मिर्ची का पाउडर डाल दिया गया। याचिकाकर्ता के विरुद्ध धारा 307 के तहत आरोप सिद्ध होते हैं। यदि बच्ची के आंख में चोट पहुंचाई जाती है, तो 10 साल की सजा आजीवन कारावास में भी बदल सकती थी। मुझे सेशन कोर्ट के सजा को कम करने का कोई कारण नहीं दिखता है।

सरकारी वकील प्रशांत जाधव ने दोषी महिला की सजा को कम करने का विरोध करते हुए कहा कि पीड़िता की मां एक कामकाजी महिला थी। वह नवी मुंबई के खारघर में पूर्वा प्ले नर्सरी स्कूल (डे केयर सेंटर) में अपनी 10 महीने की बच्ची के देखरेख करने के लिए छोड़ कर जाती थी और काम से लौटने के बाद उसे केयर सेंटर से लेकर घर जाती थी। वह हर रोज की तरह 21 नवंबर 2016 को अपनी बेटी को सुबह डे केयर सेंटर में छोड़ कर काम पर गयी। जब वह शाम को अपनी बेटी को लेने के लिए वापस आई, तो उसने देखा कि उसकी बेटी की आंख में कुछ सूजन थी। वह उसे घर ले गई। बच्ची की तबीयत बिगड़ गई। उसे डॉक्टर के पास ले गई, जहां डॉक्टर ने बताया कि बच्ची के साथ मारपीट की गई होगी। मां ने खारघर पुलिस स्टेशन में शिकायत की। पुलिस की मदद से वह डे केयर सेंटर गई और सीसीटीवी फुटेज की जांच की। उसने देखा कि याचिकाकर्ता बच्ची के साथ बेरहमी से मारपीट कर रही है। वह बच्ची की आंख में कुछ डालते और उसे फर्श पर पटकते हुए देखी गई। पुलिस ने याचिकाकर्ता के खिलाफ हत्या के प्रयास का मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने उसके खिलाफ सेशन कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल किया, जिसके आधार पर कोर्ट ने 10 साल की कारावास की सजा सुनवाई।

एक व्यक्ति को खतरनाक गतिविधियों के आरोप में हिरासत में लेने के नवी मुंबई पुलिस आयुक्त के आदेश को बॉम्बे हाई कोर्ट ने किया रद्द

वहीं बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक व्यक्ति को खतरनाक गतिविधियों के आरोप में हिरासत में लेने के नवी मुंबई पुलिस आयुक्त के आदेश को रद्द कर दिया है। अदालत ने कहा कि बिना किसी उचित आधार के गलत तरीके से हिरासत में लिए गए व्यक्ति को 25 हजार रुपए मुआवजा की राशि और उसकी रिहाई दो सप्ताह की अवधि के भीतर की जाएगा। अदालत ने मुआवजे की राशि उन पुलिस अधिकारियों से वसूलने को कहा है, जो व्यक्ति को प्रतिबंधात्मक आदेश के तहत हिरासत में लेने का आदेश दिया। न्यायमूर्ति भारती डांगरे और न्यायमूर्ति मंजूषा देशपांडे की पीठ के समक्ष शिबिन दिनेश तिय्यर की ओर से वकील अनिकेत वागल की दायर याचिका पर सुनवाई हुई। याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि बिना पुख्ता सबूत के याचिकाकर्ता को प्रतिबंधात्मक आदेश के तहत हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया। नवी नवी मुंबई के पुलिस आयुक्त ने 7 जून 2014 को महाराष्ट्र खतरनाक झुग्गी-झोपड़ी दादा, शराब तस्करी, खतरनाक गतिविधियों और आवश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी में लिप्त गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम 1981 की धारा 3 की उपधारा (2) के तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किया, जिसके तहत उसे हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिबंध करने का विवादित आदेश कायम नहीं रखा जा सकता है। पुलिस अधिकारी उन सबूतों को पेश नहीं कर सके, जिसके तहत याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिबंधात्मक कार्रवाई की गई। हम हिरासत में लेने वाले पुलिस अधिकारियों और पुलिस आयुक्त या राज्य आबकारी विभाग के कर्मचारियों से अपेक्षा करते हैं कि वे सावधानी बरतेंगे। प्रतिबंधात्मक कार्रवाई एक गंभीर मामला है, जहां व्यक्ति को बिना किसी सुनवाई के हिरासत में लिया जाता है। आबकारी विभाग की ओर से विवेक का प्रयोग न करने और लापरवाही बरतने के कारण व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित होना पड़ता है। प्रतिबंधात्मक आदेश को रद्द करते हुए हम यह उचित समझते हैं कि याचिकाकर्ता को राज्य सरकार द्वारा 25 हजार रुपए का मुआवजा दिया जाए। यह राशि उन व्यक्तियों से वसूल की जाए, जो इस गलती के लिए जिम्मेदार हैं।

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