प्रयागराज कुंभ : जानें कुंभ में स्नान का महत्व क्या है ?
प्रयागराज कुंभ : जानें कुंभ में स्नान का महत्व क्या है ?
डिजिटल डेस्क। तीर्थ तारण धर्मा होते हैं। जो तार दे वही तीर्थ, अथवा जहां पहुंचकर मनुष्य तर जाये उसे तीर्थ कहते हैं – ‘तारयति यत् तत्तीर्थम् वा तरति अनेन यत् तत्तीर्थम्’। उसमें भी तीरथराज प्रयाग का तो कहना ही क्या है। तीन-तीन पावनतम नदियों का संगम। देव नदी गंगा-स्वर्ग से पृथ्वी तक व्यास सब ताप नसावन सुरसरिता,कृष्णप्रिया लीला सहचरी यमुना और पृथ्वी-उर अन्तर वाहिनी सरस्वती की राशिभूत पावनता में अवगाहन कर कौन अपावन रह सकता है ?
भगवान श्रीराम के चरणरज से पुनीत प्रयागराज किसको पुनीत नहीं बना देता ?
जंगतीर्थरूप ऋषि-मुनियों व संतों का यह तीर्थ किसे तीर्थ नहीं बना देता ?
ऋषि-मुनिसंत समागम से तीर्थ भी तीर्थ बन जाते हैं ‘तीर्थो कुर्वन्ति तीर्थानि’।
ृ
बिना किसी विज्ञापन के लाखों लोग कुम्भ स्नान के लिए जुड़ रहे हैं। विश्व के कोने-कोने से लोग पहुंच रहे हैं। आकाश मार्ग से देवगण भी आ रहे हैं अपनी उस स्मृति में स्नान करने, जो लाखों वर्ष पहले घटित अमृत मंधन की घटना की साक्षी रही है।
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ। देई सवा फल प्रगट प्रभाऊ।।
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
ललहिं चारिफल अछततनु साधु समाज प्रयाग।।
भावार्थ:-
साधु समाज-जंगमतीर्थों से तीर्थीभूत प्रयाग चारों फलप्रदान करने वाला है।
दोहा :- जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
आस्था के व्यापक स्वरूप को समझे बिना और श्रद्धा में भींगे बिना अनात्म होकर कुंभ-पर्व के सुधा स्नान को नहीं समझा जा सकता। भाव के बिना हर मूर्ति पत्थर होती है। आप भाव धारे संगम के किनारे पहुँच कर देखिये तो, आपकी अनास्था आस्था में, नास्तिकता आस्तिकता में औरआधुनिकता आध्यात्मिकता में बदल जायेंगी। विशावस बढ़ जायेगा। श्रद्धा में नहा उठेंगे। यहाँ पहुँचकर यह मेला अंधश्रद्धा को प्रगट नहीं लगेगा। जड़ सृष्टि के साथ चेतन सृष्टि का जड़ाव लगेगा। उस महाभाव की अभिव्यक्ति लगेगा जिसमें डूबकर जड़-चेतन एक दूसरे के आत्मीय और मीत बन जाते हैं।
निश्चय ही यह आस्था का कुंभ स्नान शाश्वत मूल्यों व धर्मबावों का स्नामन है।शाश्वत प्रवहमान जीवन मूल्यों के साथ बहना भी। यह स्नान परंपरा उस सनातन धारा के साथ हो लेना है, जिसमें अटल और चल नैतिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों के जल प्रवहमान रहते हैं. परंपरा स्थिर और गतिशीलमान मूल्यों का नैरंतर्य है। परम और परा का सातत्य है।
पूर्वजों के मंथन प्रयास में अवगाहन है। उन संस्कारों से अभिसिक्त होना है, जो मनुष्य को आपद काल में अविचलित रह कर नदी के समान बहते रहने के लिए संस्कारित करते हैं। मंथन के लिए उत्प्रेरित करते हैं, जड़ता मृत्यु का संदेश देते हैं। यह भी कहते हैं कि मोह से मृत्यु और सत्य से अमृत की प्राप्ति होती है।
अमृतं चैव मृत्यु द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्।
त्युमापद्यते मोहात्सत्येनापयतेsमृगम्।। - मोक्षपर्व, महाभारत
भीतर में निहित इसी अमृत को पा लेने के लिए लोग दूर-दूर से, गाँव-गाँव से शहर-शहर से, चारों ओर से ठिठुरते-उमगते धार बन जाने के लिए गंगा तट पर मोक्ष प्राप्ति के लिए पहुंचते हैं। सुनते हैं यह तब से चला आ रहा है, जब से समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश की छीना झपटी में घट से अमृत बूँदें छलक पड़ी थीं। जहाँ-जहाँ ये बूँदें छलकीं, वे स्थान अमृत रूप हो गये। जब सूर्य एवं चन्द्र मकर राशि में होते हैं, बृहस्पति वृश्चिक राशि में अमावस्या होती है, तब अर्ध कुंभोयग होता है। इसलिए मकर संक्रांति, अमावस्या और वसंत पंचमी का स्नान अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
पौराणिकता के अनुसार वृश्चिक राशि में गुरु, मेष, तुला राशि में चन्द्र, स्वाति नक्षत्र और सौर चन्द्र सापेक्ष्य सिद्धि योग – ये पाँच पवित्र योग अमृत बिंदु निपात के समय थे। स्नान तो लोग रोज करते हैं, परन्तु कुंभपर्व-स्नान की पवित्रता, आनन्द कुछ और ही है। सत्संग की महिमा अघोर है। भगवान ने संतों को अपना ही स्वुरूप बताया है और कहा है कि जिस तरह सूर्य जगत एवं स्वमं को देखने के लिए प्रकाश देता है, वैसे ही संत स्वयं को तथा भगवान को देखने के लिए अन्तर्दृष्टि देते हैं।
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः।
देवता बान्धवा सन्तः सन्त आत्माहमेवच।।
गोस्वामी तुलसीदास स्वर्ग, अपवर्ग व सुख से बढ़कर सत्संग सुख को मानते हैं। इस तरह इस सुख का आनन्द लेते हुए इस तीर्थराज में लघु भारत का दर्शन करके भई लोग धन्य होते हैं। अनेक प्रदेश के लोग, बाँति-भाँति की बोली, वेष, रूप-रंग, अखंड भारत का दर्शन। सामाजिक सभ्यता-सेस्कृति की झाँकी पाकर और मन की क्षुद्रता, क्षेत्रीयता, जातीयता को बहाकर निकालकर लोग लौटते हैं अपने घर। यही अमृत स्नान है। यही पर्व स्नान का आशय है।