संकष्टी चतुर्थी व्रत: जानें पूजन विधि और इससे जुड़ी कथा
संकष्टी चतुर्थी व्रत: जानें पूजन विधि और इससे जुड़ी कथा
डिजिटल डेस्क। प्रथम पूज्य श्री गणेश की पूजा से सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। वैसे तो हरपूजा के पहले गणेश जी की पूजा होती है, लेकिन प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी का व्रत किया जाता है। इनमें संकष्टी चतुर्थी को सभी कष्टों का हरण करने वाला माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन व्रत और भगवान गणेश की आराधना करने से सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिमलती है, इस माह गणेश चतुर्थी का व्रत 20 जून यानी कि गुरुवार को रहा। इस दिन श्रद्धालुओं ने इस व्रत को करने के साथ ही भगवान श्री गणेश की पूजा आराधना की।
पूजन विधि
- सबसे पहले सुबह स्नान कर साफ और धुले हुए कपड़े पहनें। पूजा के लिए भगवान गणेश की प्रतिमा को ईशानकोण में चौकी पर स्थापित करें। चौकी पर लाल या पीले रंग का कपड़ा पहले बिछा लें।
- भगवान के सामने हाथ जोड़कर पूजा और व्रत का संकल्प लें और फिर उन्हें जल, अक्षत, दूर्वा घास, लड्डू, पान, धूप आदि अर्पित करें। अक्षत और फूल लेकर गणपति से अपनी मनोकामना कहें, उसके बाद ओम ‘गं गणपतये नम:’ मंत्र बोलते हुए गणेश जी को प्रणाम करें।
- इसके बाद एक थाली या केले का पत्ता लें, इस पर आपको एक रोली से त्रिकोण बनाना है।
- त्रिकोण के अग्र भाग पर एक घी का दीपक रखें. इसी के साथ बीच में मसूर की दाल व सात लाल साबुत मिर्च को रखें।
- पूजन उपरांत चंद्रमा को शहद, चंदन, रोली मिश्रित दूध से अर्घ्य दें. पूजन के बाद लड्डू प्रसाद स्वरूप ग्रहण करें।
व्रत विधि:
इस दिन व्रत रखा जाता है और और चंद्र दर्शन के बाद उपवास तोड़ा जाता है। व्रत रखने वाले जातक फलों का सेवन कर सकते हैं। साबूदाना की खिचड़ी, मूंगफली और आलू भी खा सकते हैं। मान्यता है कि संकष्टी चतुर्थी संकटों को खत्म करने वाली चतुर्थी है।
वैशाख संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा
एक बार पार्वती जी ने गणेशजी से पूछा की वैशाखमाह के कृष्ण पक्ष की जो संकटा नामक चतुर्थी कही गई है, उस दिन कोन से गणेश का किस विधि से पूजन करना चाहिए एवं उस दिन भोजन में क्या ग्रहण करना चाहिए ? तब गणेश जी ने उत्तर में कहा की हे जगत माता! वैशाख कृष्ण चतुर्थी के दिन व्रत करना चाहिए। उस दिन ‘व्रकतुंड’ नामक गणेश की पूजा कर भोजन में कमलगट्टे का हलवा आहार में लेना चाहिए। हे जग जननी! द्वापर युग में राजा युधिष्ठिर ने इस प्रश्न को पूछा था तब उत्तर में भगवान कृष्ण ने कहा था की मैं उसी व्रत का वर्णन करता हूं। आप श्रद्धापूर्वक सुने।
श्रीकृष्ण बोले-हे राजा युधिष्ठिर! इस कल्याण दात्री चतुर्थी का व्रत जिसने किया और उसे जो फल प्राप्त हुआ, मैं उसे कह रहा हूं। प्राचीन काल में रंतिदेव नामक प्रतापी राजा हुए, जो कि शत्रुओं के विनाशक थे। उनकी मित्रता यम, कुबेर, इन्द्रादिक देवों से थी। उन्हीं के राज्य में धर्मकेतु नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी दो स्त्रियां थी- एक का नाम सुशीला और दूसरी का नाम चंचला था। सुशीला नित्य ही कोई-न-कोई व्रत किया करती थी। फलतः उसका शरीर बहुत दुर्बल हो गया था और इसके विपरीत चंचला कभी भी कोई व्रत-उपवास नहीं करती थी अपितु भरपेट भोजन करती थी।
इधर सुशीला को सुन्दर लक्षणों वाली एक कन्या हुई और उधर चंचला को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह देखकर चंचला बारम्बार सुशीला को ताना देने लगी। अरे सुशीला! तूने इतना व्रत उपवास करके शरीर को जर्जर बना डाला, फिर भी एक कन्या को जन्म दिया। मुझे देख, मैं कभी व्रत के चक्कर में न पड़कर हष्ट-पुष्ट हूं और वैसे ही बालक को जन्म दिया है।
अपनी सौत का व्यंग्य सुशीला के हृदय में चुभने लगा। वह विधिवत गणेशजी की उपासना करने लगी। जब सुशीला ने भक्तिभाव से संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत किया तो रात्रि में गणेशजी ने उसे दर्शन दिया। गणेशजी ने कहा की हे सुशीले! तेरी साधना से हम अत्यधिक संतुष्ट हैं। मैं तुम्हें वरदान दे रहा हूं कि तेरी कन्या के मुख से निरंतर मोती और मूंगा प्रवाहित होते रहेंगे।
हे कल्याणी! इससे तुझे सदा प्रसन्नता रहेगी। हे सुशीले! तुझे वेद शास्त्र वेत्ता एक पुत्र भी उत्पन्न होगा। इस प्रकार का वरदान देकर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए। वरदान प्राप्ति के बाद से ही उस कन्या के मुंख से सदैव मोती और मूंगा झड़ने लगे। कुछ दिनों के बाद सुशीला को एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। कालान्तर में उनके पति धर्मकेतु का स्वर्गवास हो गया। उसकी मृत्यु के बाद चंचला घर का सारा धन लेकर दूसरे घर में जाकर रहने लगी, परन्तु सुशीला पतिगृह में रहकर ही पुत्र और पुत्री का पालन पोषण करने लगी।
चंचाल हाथ जोड़कर कहने लगी-हे बहिन सुशीले! मैं बहुत ही पापिन और दुष्टा हूं। आप मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये। इसके बाद चंचला ने भी उस कष्ट निवारक पुण्यदायक संकट नाशक गणेशजी के व्रत को करने लगी। गणेशजी कहते हैं कि हे देवी! पूर्वकाल का पूरा वृतांत आपको सुना दिया। इस लोक में इससे श्रेष्ठ विघ्नहरण कोई व्रत नहीं हैं। श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे धर्मराज! आप भी विधिपूर्वक गणेश जी का व्रत कीजिए। इस व्रत को करने से आपके शत्रुओं का नाश होगा तथा अष्टसिद्धियां और नवनिधियां आपके सामने करबद्ध होकर खड़ी रहेंगी और थोड़े समय में ही आप अपने राज्य को भी प्राप्त कर लेंगे।