पितृतृप्ति का महापर्व महालय श्राद्ध, जानें क्यों जरुरी है श्राद्ध

पितृतृप्ति का महापर्व महालय श्राद्ध, जानें क्यों जरुरी है श्राद्ध

Bhaskar Hindi
Update: 2019-09-14 09:49 GMT
पितृतृप्ति का महापर्व महालय श्राद्ध, जानें क्यों जरुरी है श्राद्ध

डिजिटल डेस्क। भारतीय संस्कृति विश्व में सबसे गरिमामयी और अनूठी है। हमारे यहां सोलह संस्कारों का विधान है। जिसमें गर्भाधान भी एक संस्कार है। गर्भाधान के लिए कौन सा दिन होना चाहिए इन सब बातों का विवरण हमारे ग्रंथों में है। उसी प्रकार जब मृत्यु होती है, तब उस मृतक का भी विधिवत अंत्येष्टि संस्कार किया जाता है। इस प्रकार गर्भाधान से अंत्येष्टि ये षोडष संस्कारों में शामिल हैं।

कृतज्ञता का भाव
कृतज्ञता का भाव प्रत्येक पर्व और त्यौहार में विद्यमान होता है। जीवित संबंधियों का आदर सत्कार तो हम करते ही हैं, हमारे मृत हो चुके पूर्वजों को भी हम श्रध्दा से स्मरण कर उनके निमित्त दान आदि करते हैं। इसके लिए पूरा एक पखवाड़ा होता है। चंद्रलोक के पास ही पितृलोक की मान्यता हमारे ग्रंथों में है। सूर्य जब कन्या राशि में प्रवेश करता है, उस समय पितृलोक की पृथ्वी से दूरी सबसे कम होती है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में महालय श्राध्द होता है। 

जन्म- मरण
इस वर्ष प्रौष्ठपदी पूर्णिमा 13 सितम्बर से महालय श्राध्द का प्रारंभ हो चुका है, जो कि सर्वपितृ अमावस्या 28 सितंबर तक रहेगा। हमारे यहां तिथी की मान्यता है और तिथी चंद्रमा की कलाओं पर आधारित है। जिस कारण जन्म हो या मरण हमारे सभी पूर्वजों का देहांत पूर्णिमा से अमावस्या तक सोलह तिथियों में से ही किसी तिथी को हुआ है। पितृलोक से हमारे पितर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से इन 16 दिनो में पृथ्वीलोक में आते हैं। अपने- अपने घरों के द्वार पर खड़े रहते हैं। इस अंतराल में उनकी तृप्ति के लिए श्रध्दापूर्वक जो अर्पित किया जाय वह श्राध्द  है।

संस्कृत व्यन्जनाद्यं च पयोदधिधृतान्वितम् , श्रध्दया दीयते यस्मात् श्राध्दं तेन प्रकीर्तितम् ! 
इसका अर्थ ये कि पकाये हुए शुध्द पकवान व दूध, दही, घी आदि को श्रध्दापूर्वक पितरों के नाम दान करने का नाम श्राध्द है।

कुछ लोग तर्क करते हैं जीव जब मृत्यु के बाद अलग- अलग योनि में चला जाता है। तब उसे वह श्राध्द का अन्न जो हम इस पृथ्वी पर उनके निमित्त दे रहे हैं वह कैसे मिलेगा? इसका उत्तर एक उदारहण द्वारा समझा जा सकता है।

उदाहरण
जिस प्रकार हर देश की अलग अलग मुद्रा होती है। जैसे भारत में रूपए मुद्रा है तो अमेरिका में अमेरिकी डॉलर है। अमेरिका में रहने वाला आपका पुत्र, वहां के बैंक में डॉलर जमा करता है और हमें वह भारत में रूपए के रूप में मिल जाते हैं उसी प्रकार संपूर्ण ब्रम्हांड में ईश्वर की सत्ता है। वह परमात्मा अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार श्राध्द में दिए हुए भौतिक पदार्थो को मृत प्राणी वर्तमान में जिस योनि में होता है।उसके अनुरूप वह पदार्थ बनाकर उसे तृप्त करते हैं। यजुर्वेद में इसका वर्णन है 

यतदत्तं यत्परादानं यप्पूर्तं याश्च दक्षिणा ! तदग्निवैश्वकर्मणः स्वर्देवेषु नोदधत् !!
इसका अर्थ है कि श्राध्द में पितरों के निमित्त जो कुछ भी दान दिया जाता है, फिर चाहे वह वापी, कूप, तड़ाग आदि पूर्त हों और चाहे नकद दक्षिणा हो, समस्त विश्व का नियंता तेज स्वरूप परमात्मा, उससे हम सबको स्वर्ग आदि लोकों में और देव आदि योनियों में यथावत् पोषण करता है।

यों तो पितृऋण से मुक्त होना बहुत कठिन है, क्योंकि माता-पिता,दादा आदि जो कुछ अपनी संतानों के लिए करते हैं उसको आंकना संभव नहीं है। परंतु श्रध्दा से उनके निमित्त श्राध्द कर हम कुछ प्रमाण में पितृऋण से मुक्ति हो सकते हैं। पितृगण हमारे किए गए श्राध्द से प्रसन्न होकर हमें आयु, वंश वृध्दि, सुख समृध्दि, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। 

आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गम् मोक्षं सुखानिच ! 
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राध्द तर्पिताः  !!

साभार: पं. सुदर्शन शर्मा शास्त्री 

 

 


 
                                                                                                                                     

 

 
 

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