पटाखों के बिना अधूरी है दीपावली, जानें कैसे हुई पटाखों की शुरूआत
दीपावली पटाखों के बिना अधूरी है दीपावली, जानें कैसे हुई पटाखों की शुरूआत
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। दीपावली का पंच दिवसीय उत्सव "धनतेरस" यानि आज से शुरू हो रहा है। ऐसे में लोगों की दीपावली की तैयारियां लगभग अंतिम चरण में हैं। घरों-की साफ-सफाई के बाद लोगों ने अब खरीदारी के लिए बाजारों का रूख कर लिया है। देशभर में बाजारों में जमकर खरीदारी हो रही है। लोग सोना-चांदी जैसी कीमती चीजें तो खरीद ही रहे हैं साथ ही मां लक्ष्मी की मूर्ति, दीपक, खील-बताशे, नये कपड़े, घरों की सजावट का सामान, मिठाईयां इत्यादि भी खरीद रहे हैं। लेकिन एक चीज जो हम सबके लिए बचपन से उद्वेलित करती आई है और हमेंशा हम इसके लिए उत्सुक रहते हैं वह है ‘पटाखे’। पटाखों के बिना तो शायद ही किसी ने दीपावली मनाई हो। पटाखे हर आम और खास की पहुंच में होते हैं।
बचपन से जुड़ा है पटाखों का लगाव
बचपन में घर के आंगन, गली-मोहल्लो में दीपावली के त्योहार के पहले से ही हम सुतली बम, मुर्गा छाप बम, बंदर छाप बम, दीवार पर मारकर फूटने वाले पटाखे, चटर पटर बम, स्काइ शाट बम, सायरन वाली फिरकी, चकरी, फुलझड़ी, मिट्टी के बने अनार, अनार बम, टिकली, राकेट, पिस्टल खिलौने, सांप की गोलियां, लड़ियां आदि चलाते आए हैं। कभी-कभी तो हम दीपावली के दूसरे दिन भी जले हुए पटाखों का मिश्रण इकट्ठा करके रात में जलाते थे। यह सिलसिला दीपावली से लेकर ग्यारस यानी देवउठनी एकादशी तक चलता रहता था। स्कूल की एक महीने से अधिक की छुट्टियों, दोस्तों की टोली, रात-दिन पटाखे बीनने में लगी रहती थी। दीपावली पर काम था तो सिर्फ इतना पकवान खाना है और पटाखे चलाना है। लेकिन अब चलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। दीपावली सिर्फ चार दीवारों में सिमटती जा रही है।
प्रदूषण ने छीना हमारा उत्सव
देश के अनेक राज्यों में प्रदूषण पर लगाम कसने के लिए पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और यूपी समेत कई राज्यों में पटाखों को प्रतिबंधित कर दिया गया है। हालांकि कुछ राज्यों में पटाखे चलाने की भी छूट दी गई है। वहीं कुछ राज्यों ने सिर्फ ग्रीन पटाखे चलाने की अनुमति दी है।
न्यायालय की सख्ती ने पटाखा कारोबारियों की उलझन बढ़ाई
इस बार माननीय उच्चतम न्यायालय की सख्ती भी पटाखे प्रेमियों और पटाखा व्यवसायियों के लिए चिंता का विषय बन गई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह किसी भी व्यक्ति के उत्सव मनाने के खिलाफ नहीं है लेकिन यह धूमधाम दूसरों की जान की कीमत पर नहीं हो सकती। वहीं कई राज्यों के उच्च न्यायालयों ने इस बार पटाखों को लेकर कड़ा रूख अनाया है। लेकिन यह हो-हल्ला आम हो गया है। लेकिन प्रश्न यह है कि देश में 5000 करोड़ रुपए का पटाखा कारोबार को बहुत नुकसान होगा। पटाखा बैन के चलते व्यवसायियों के माथे पर चिंता की लकीर उभर आईं हैं।
पटाखों की शुरुआत
पटाखों की शुरुआत कैसे हुई इसको लेकर कई प्रकार की किवदंतियां हैं, लेकिन कुछ इतिहासकार इसकी खोज चीन में बताते हैं। छठी शताब्दी में चीन में एक दुर्घटना के साथ इसकी शुरूआत मानी जाती है। यहां एक खाना बनाने वाले रसोइए ने गलतीवश साल्टपीटर यानी पोटेशियम नाईट्रेट आग में फेंक दिया था, जिसके चलते उससे रंगीन लपटें निकलने लगीं। इसके बाद उस रसोइए ने साल्टपीटर के साथ उसमें कोयले और सल्फर को मिलाकर आग में डाला, जिसके चलते आग में एक जोरदार धमाका हुआ और तेजी से रंगीन लपटें निकलनें लगीं। इस तेज धमाके को ही बारूद की खोज माना जाता है और पटाखों की शुरूआत।
कई किंवदंतियां यह भी मानी जाती हैं कि यह सब चीन के सैनिकों ने किया था। इसके बाद तो इस मिश्रण को बांस की नली में भरकर विस्फोट करने के लिए किया जाने लगा। यहां प्रथम बार बांस से पटाखे तैयार किए गए।
चीन में बारूद की शुरूआत की एक ओर कहानी भी है जिसके अनुसार चीन में लगभग 22 सौ साल पहले लोग आग में बांस को डाल देते थे और गर्म होने के बाद जब इसकी गांठ तेज आवाज के साथ फटती थी। चीनी लोगों का मानना था कि बांस के फटने की तेज आवाज से बुरी आत्माएं भाग जाती हैं और बुरे विचारों का भी अंत होता है। इससे घर में सुख-शंाति आदि आ जाती हैं। इसलिए चीनी लोग महत्वपूर्ण त्योहारों पर यह कार्य करते थे। यहीं से नववर्ष, जन्म दिवस, विवाह, त्योहार के अवसरों पर आतिशबाजी की शुरूआत मानी जाती है।
इसके बाद 13वीं सदी में बारूद चीन से यूरोप और अरब देशों में पहुंच चुका था। यहीं से शक्तिशाली हथियार बनाने की भी शुरूआत हुई। यूरोप में तो पायरोटेक्निक यानी आतिशबाजी बनाने के लिए ट्रेनिंग स्कूल तक खुल गए थे और रिसर्च के आधार पर बारूद से पटाखे और हथियार बनाने का कौशल प्रदान किया जाने लगा। इसके बाद ही पूरे यूरोप में खुशी के अवसरों पर आतिशबाजी का चलन होने लगा।
भारत में पटाखों की शुरूआत
महाभारत काल में भी रुक्मिणी और भगवान कृष्ण के विवाह में आतिशबाजी का उल्लेख मिलता है। भारत में ईसा पूर्व काल में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे चूर्ण का उल्लेख किया गया है जिसके जलने पर तेज लपटें उठती थीं, जिसे बांस जैसे किसी नलिका में डालकर बांधने पर पटाखा बन जाता था। किंतु, भारत में पटाखों का इतिहास 15वीं सदी से भी पुराना माना जाता है। जिसकी प्रमाणिकता प्राचीन पेंटिंग्स में मिलती हैं जिसमें आतिशबाजी और फुलझड़ियों के दृश्य उकेरे गए थे। यह इस बात का प्रमाण है कि उस दौर में भी भारत में पटाखे मौजूद थे।
15वीं सदी में भी भारत में पटाखों का प्रमाण अंकित हैं। बाबर ने जब भारत पर आक्रमण किया तोे उस समय हथियार के रूप में बारूद का उपयोग किया था। शाहजहां के बेटे दारा शिकोह के बेटे के विवाह से जुड़ी सन् 1633 की एक पेंटिंग में भी आतिशबाजी का अंकन किया गया है। इतिहासकार पीके गोड़े ने अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ फायरवर्क्स इन इंडिया बिटवीन 1400 एंड 1900 एडी’ में 1518 में गुजरात में हुई एक ब्राह्मण दंपत्ति की शादी में आतिशबाजी का का उल्लेख किया है।
17वीं सदी में भारत आए विदेशी यात्री फ्रैंकोसिस बर्नियर ने उल्लेख किया है कि उस समय पटाखों का उपयोग हाथी जैसे बड़े जानवरों की ट्रेनिंग में किया जाता था. लड़ते हुए बड़े जानवरों को पटाखों की आवाज से ही अलग-थलग किया जाता था।
शिवाकाशी में बनते हैं सबसे ज्यादा पटाखे
दुनियाभर में सबसे जयादा पटाखे बनाने में चीन का प्रथम स्थान है। चीन का पटाखा व्यवसाय 5000 करोड़ से भी ज्यादा का है। वहीं पटाखे बनाने में भारत दूसरे पायदान पर है। भारत में सबसे ज्यादा पटाखे चेन्नई से 500 किलोमीटर दूर शिवाकाशी में बनाए जाते हैं। शिवाकाशी में 800 से अधिक पटाखा उद्योग हैं जो देश का 80 प्रतिशत पटाखा तैयार करता है।
1922 में शिवाकाशी के नडार भाईयों ने कोलकाता में माचिस बनाने की कला सीखी और वापस शिवाकाशी लौट आए। के.के. मुगम नडार और अय्या नडार ने एक छोटी सी माचिस की यूनिट लगाई। कारोबार ठीक-ठाक व्यवस्थित होने के बाद दोनों 1926 में अलग हो गए। फिर दोनों ने पटाखे बनाने के काम में जुट गए। आज दोनों भाईयों की पटाखा कंपनियां स्टैंडर्ड फायर वर्क्स और श्री कालिश्वरी फायर वर्क्स के नाम से भारत की सबसे बड़ी पटाखा निर्माता कंपनी जानी जाती हैं। देश का 80 प्रतिशत पटाखे यहीं से तैयार होते हैं।
प्रदूषण के चलते पटाखों पर बैन ने पटाखा से जुड़े लोगों को भारी नुकसान हो रहा है कई यूनिट्स तो बंद हो गई हैं और कई बंद होने की कगार पर हैं। जिसके चलते कई लोगों का रोजगार भी छिन गया है।
किंतु प्रदूषण के कारण सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रूख, राज्यों की संख्ती, ने हमारे बचपन की दीपावली की यादों को पुर्नजीवित कर दिया है। अब चाहकर भी हम वैसी दीपावली नहीं मना पा रहे हैं जैसी बचपन में हम मनाते थे। शायद बढ़ते प्रदूषण और उससे होने वाली बीमारियों ने हमारे इस पवित्र त्योहार को सीमित कर दिया है।