भरत मिलाप उत्सव आज, वनवास के बाद श्रीराम अयोध्या में भरत से मिले थे गले

भरत मिलाप उत्सव आज, वनवास के बाद श्रीराम अयोध्या में भरत से मिले थे गले

Bhaskar Hindi
Update: 2018-10-19 09:54 GMT
भरत मिलाप उत्सव आज, वनवास के बाद श्रीराम अयोध्या में भरत से मिले थे गले
हाईलाइट
  • वनवास के बाद अयोध्या आकर भरत से मिले थे श्रीराम
  • विजयादशमी के दूसरे दिन मनाया जाता भरत मिलाप उत्सव
  • हर साल देशभर में मनाया जाता है भरत मिलाप उत्सव

डिजिटल डेस्क, भोपाल। विजयादशमी के अगले दिन अर्थात अश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी को भरत मिलाप पर्व मनाया जाता है। इस बार ये पर्व 20 अक्टूबर 2018 शनिवार को मनाया जाएगा। भरत मिलाप हिन्दुओं का एक प्रमुख उत्सव है। इस दिन भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या आकर अपने छोटे भाई भरत से गले मिलते हैं। भरत मिलाप का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में दिया गया है। वाल्मीकि रामायण में यह वृत्तांत अंकित है। 

जब भरत को यह पता चला कि उनकी माता कैकयी ने उनका राजतिलक कराने के लिए उनके ज्येष्ठ भ्राता श्री राम को 14 वर्ष का वनवास करवा दिया है, तो वह अपनी माता कैकई को भला-बुरा कहते हुए कोसने लगे और श्री राम को वापस लाने के लिए वन की ओर चल दिए। उधर वन में प्राकृतिक शोभा से युक्त दर्शनीय स्थल चित्रकूट के पर्वत पर निवास करते हुए श्री राम, सीता और लक्ष्मण प्रकृति का आनन्द ले रहे थे, तभी एक दम उन्हें चतुरंगिनी सेना का कोलाहल सुनाई दिया और वन के सभी पशु इधर-उधर भागते हुए दिखाई दिए।

तब यह देखकर राम लक्ष्मण से बोले की लक्ष्मण भाई ऐसा प्रतीत होता है कि इस वन्य-प्रदेश में वन्य पशुओं के आखेट हेतु किसी राजा या राजकुमार का आगमन हो रहा है। लक्ष्मण तुम जाकर इसका पता लगाओ।" लक्ष्मण जी तुरंत एक बड़े ऊँचे से वृक्ष पर चढ़ गये। उन्होंने देखा की उत्तर दिशा की और से एक विशाल सेना, हाथी, घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सैनिकों के साथ चली आ रही है, जिसके साथ अयोध्या की ध्वजा लहराती हुई चल रही है। लक्ष्मण तुरंत समझ गये कि वह सेना तो अयोध्या की है।

अपने बड़े भाई श्री राम के पास आकर क्रोध से लक्ष्मण ने कहा, "भैया! कैकेयी का पुत्र भरत सेना लेकर इधर चला आ रहा है। वह वन में हमें अकेला पाकर हमारा वध कर देना चाहता है ताकि निर्विवाद अयोध्या पर राज्य शासन कर सके। मैं इस भरत को उसके पाप कर्मों का फल चखाउँगा।" तब श्री राम ने कहा भाई "लक्ष्मण! तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? अनुज भरत तो मुझे प्राणों से भी प्रिय है। अवश्य ही वह मुझे अयोध्या ले जाने के लिये आया होगा। भरत में और मुझमें कोई अंतर नहीं है, तुमने जो कठोर शब्द भरत के लिये कहे हैं, वे यथार्थ में मेरे लिये कहे हैं। किसी भी स्थिति में पुत्र पिता के और भाई-भाई के प्राण नहीं लेता। लक्ष्मण जी श्री राम की इस प्रकार की भर्त्सना सुनकर बोले, "हे प्रभु!

किन्तु अवध सेना के साथ पिता जी का श्वेत छत्र नहीं हैं, जिस कारण मुझे आशंका हुई है। कृपया आप मुझे क्षमा प्रदान करें।" श्रीराम से मिलाप करने भरत चित्रकूट पर्वत के पास अपनी सेना को छोड़कर भरत और शत्रुघ्न दोनों भाई राम की कुटिया की ओर चले। भरत ने देखा की  यज्ञ वेदी के पास मृगछाला पर आसीन जटा-जुटधारी बड़े भ्राता श्री राम रूप धारण किये हुये बैठे हैं। वे तत्काल ही दौड़ कर रोते हुये श्री राम के पास पहुँचे। मेरे बड़े भ्राता कहते हुये श्री राम के चरणों में गिर गये,और शत्रुघ्न की भी यही अवस्था थी।

तब श्री राम ने अपने दोनों अनुज को अपने हृदय से लगाया और पूछा, "की पिताजी तथा माताएँ कुशलता से हैं ना? और कुलगुरु वशिष्ठ कैसे हैं? तुमने तपस्वियों जैसा रूप क्यों धारण किया है?" रामचन्द्र के वचन सुन भरत अश्रुपूरित बोले, "भैया! हमारे धर्मपरायण पिता आपके नगर त्यागने के बाद ही स्वर्ग सिधार गये। मेरी माता ने जो महापाप किया है, उसके कारण मुझ पर भारी कलंक लगा है, मैं किसी को अपना मुख नहीं दिखा सकता हूं। अब में आपका अनुज आपकी शरण में आ गया हूँ। आप अयोध्या का राज्य भार सँभालें और मेरा उद्धार करें। समस्त मन्त्रिमण्डल, तीनों माताएँ, और गुरु वशिष्ठ आदि सब यही प्रार्थना लेकर आपके पास आये हैं।

मैं आपका अनुज, आपके पुत्र के समान ही हूं, मेरी माता के द्वारा मुझ पर लगाये गये कलंक को धोकर आप मेरी रक्षा करें।" दोनों भाई राम और भरत का मिलाप हुआ तो भरत और राम लिपटकर विलाप लगे। तब यह दृश्य बहुत मार्मिक था। तब भरत ने बड़े भाई श्री राम से कहा कि अवध पर राज करने का अधिकार एक मात्र आपको ही है, आपका स्थान कोई भी नहीं ले सकता और राम से अवधपुरी पुन: वापस चलने की हठ करने लगे।

इस प्रकार इस दृश्य में दोनों भाईयों के बीच के प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाया गया है। श्रीराम ने कहा कि मैने अपने पिता को वचन दिया है कि मैं 14 वर्ष का वनवास पूरा करके ही अवधपुरी लौटूंगा। तब अनुज भरत श्रीराम की "चरण पादुकायें" आग्रह कर विनय भाव से अपने सिर पर रखकर अवधपुरी ले आये और चरण पादुका को राजसिंहासन पर रखकर सेवक के रूप में राजकाज संभालने लगे।

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