कृष्ण भक्ति के आधारस्तंभ प्रभु वल्लाभाचार्य जी की जयंती आज, जानें इनके बारे में

कृष्ण भक्ति के आधारस्तंभ प्रभु वल्लाभाचार्य जी की जयंती आज, जानें इनके बारे में

Bhaskar Hindi
Update: 2019-04-23 09:31 GMT
कृष्ण भक्ति के आधारस्तंभ प्रभु वल्लाभाचार्य जी की जयंती आज, जानें इनके बारे में

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत अनेकता में एकता रखने वाला देश है। यहां पर विभिन्न धर्म, विभिन्न संस्कृतियों के लोग वास करते हैं। यहां तो प्रकृति में भी विविधता देखने को मिलती है। जब भी भक्ति या अध्यात्म की बात होती है तो हमें भारत में भक्ति काल में हुए संत शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, आचार्य निंबार्क और वल्लभाचार्य जी आदि की याद आती है। पुष्टिमार्ग के इस प्रवर्तक प्रभु वल्लाभाचार्य जी की जयंती वैशाख के पावन मास के कृष्ण पक्ष की वरुथिनी एकादशी के दिन मनाई जाती है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इनकी जयंती 30 अप्रैल यानी आज मनाई जा रही है।

आत्मज्ञान
इस पवित्र वैशाख मास की कृष्ण एकादशी को कृष्णभक्ति के मार्ग को बताने वाले सूरदास को लीलाधर कृष्ण की लीलाओं से परिचित कराने वाले वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। प्रभु वल्लाभाचार्य जी कृष्ण भक्ति के बहुत मजबूत आधारस्तंभ हैं जिन्होंने साधना के लिए सहजमार्ग से परिचित करवाया। इन्होंने सूरदास को भी आत्मज्ञान देकर अमर कर दिया।  

सूरसागर 
सूरदासजी ने एक बार कहा कि, मैं तो नेत्र हीन हूं मैं क्या जानूं लीला क्या होती है ? तब प्रभु वल्लभजी ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। कहा जाता है कि आज से पांच हजार वर्ष पूर्व के ब्रज में चली श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं का वर्णन सूरदासजी अपने काव्यों में कहा है।
वल्लभचार्यजी सूरदासजी को वृंदावन ले लाए और श्रीनाथ मंदिर में होने वाली आरती के क्षणों में हर दिन एक नया पद रचकर गाने का सुझाव दिया। इन्हीं सूरदास के हजारों पद सूरसागर में संग्रहीत हैं। इन्हीं पदों का गायन आज भी मंदिरों में गाए जाते हैं।

प्रभु वल्लभाचार्यजी का संक्षिप्त जीवन परिचय :-
श्री वल्लाभाचार्य जी का जन्म विक्रम संवत 1535 में दक्षिण भारत के कांकरवाड़ ग्राम जो कि वर्तमान में छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर के निकट चंपारण में हुआ। इनकी माताजी का नाम श्रीमति इल्लमागारू और पिताजी का नाम तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मण भट्ट जी था। इनके जन्म को लेकर एक दन्तकथा प्रचलित है जिसके अनुसार कहा जाता है कि इनका जन्म माता इल्लमागारू के गर्भ से अष्टमास में ही हो गया था।

वल्लभाचार्यजी को मृत जान माता पिता ने छोड़ दिया जिसके बाद श्री नाथ जी ने स्वयं स्वप्न में आकर माता इल्लमागारू को दर्शन दिए और कहा कि मैं स्वयं आपके गर्भ से प्रकट हुआ हूं जिस नवजातशिशु को आप लोग मृत जान छोड़ आए हो वह जीवित है। नींद खुलते ही दोनों माता-पिता इन्हें वापस ले जाने के लिए भागे और उसी स्थान पर पंहुचे तो देखा कि अग्निकुंड के बीच वही शिशु पड़ा हुआ बड़े मजे से अंगूठा चूस रहे हैं और अग्निकुंड के ईर्द-गिर्द सात औगढ़ साधु बैठे हैं तब साधुओं ने देखकर पूछा की यह शिशु आपका है तो उन्होंने कहा हां ये बालक हमारा है तब औगढ़ साधुओं ने अग्निकुंड से शिशु को निकालने में अपनी असमर्थता प्रकट की तब माता पिता ने श्रीनाथ जी का स्मरण कर ध्यान लगाया और अपने शिशु को अग्निकुंड से निकाला। तभी से श्री वल्लभाचार्य जी को अग्निअवतार भी माना जाने लगा और चंपारण नामक स्थक को पुष्टिमार्गी साधना का स्थल माना जाने लगा है।

प्रमुख सोलह रचनाएं
श्री प्रभुवल्लभाचार्य जी के अनुसार ब्रह्म, जगत और जीव की सत्ता को स्वीकार्य तत्व मानते हैं। इन्होनें ब्रह्म के आधिदैविक, आध्यात्मिक और अंतर्यामी आदि तीन स्वरूप बताए। भगवान श्री कृष्ण को आप परब्रह्म के रूप में मानते थे। श्रीकृष्ण के लोक को विष्णु लोक से ऊपर बताते हैं और गोलोक गमन को ही जीव की सर्वोत्तम गति मानते हैं। वल्लाभाचार्यजी ने अनेक भाष्य, ग्रंथ, नामावलियां, स्त्रोत आदि की रचना की है। इनकी प्रमुख सोलह रचनाओं को षोडष ग्रंथ के नाम से जाना जाता है।
 

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