Nagpur News: अभियंता को 22 साल के बाद आखिर मिली राहत, निचली अदालत का फैसला रद्द

  • कोर्ट ने कहा-निष्पक्ष प्रक्रिया लागू करना बेहद जरूरी
  • निचली अदालत का फैसला रद्द

Bhaskar Hindi
Update: 2024-09-24 14:23 GMT

Nagpur News : रिश्वत लेने के आरोप में सिंचाई विभाग के अभियंता को कनिष्ठ अदालत ने दोषी करार देते हुए सजा सुनाई थी। बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने कनिष्ठ अदालत के इस फैसले को रद्द करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी दी गई है। इसलिए मुकदमे के दौरान निष्पक्ष प्रक्रिया लागू करना जरूरी है और उसकी निगरानी करना कोर्ट का कर्तव्य है। हाईकोर्ट के फैसले से सिंचाई विभाग के इस अभियंता को लगभग 22 साल बाद राहत मिली है। न्या. उर्मिला जोशी-फालके ने यह फैसला सुनाया।

पूरा मामला इस प्रकार है

अधिकारी का नाम देवीदास जगन्नाथ जोशी (66) है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अनुसार 4 सितंबर 2009 को एक विशेष अदालत ने उन्हें तीन साल की कैद और दस हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) ने 2002 में इस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की थी। फैसले के मुताबिक शिकायतकर्ता सुरेश रामटेके भी वर्ष 2000 में इसी विभाग में डिवीजनल इंजीनियर के पद पर कुही में कार्यरत थे। 29 अगस्त 2000 को उनके सहयोगी रमेश कुमार गुप्ता ने रामटेके से मुलाकात की और संदेश दिया कि आरोपी जोशी ने उन्हें नागपुर में अपने निवास पर बुलाया है।

फिर यह हुआ

मुलाकात के दौरान आरोपी जोशी ने बताया कि रामटेके और गुप्ता ने कार्यालय का काम करते समय कदाचार किए हैं और इसके कारण बड़ी मात्रा में पैसों का दुरुपयोग हुआ है। साथ ही जांच रोकने के लिए डेढ़-डेढ़ लाख रुपये की मांग की। इस पर रामटेके और गुप्ता ने 3 लाख रुपये नकद देने की व्यवस्था की। हालाँकि, वह पैसे देना नहीं चाहते थे, इसलिए वह भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के नागपुर कार्यालय गए और शिकायत दर्ज कराई। आरोपी अधिकारी जोशी एसीबी के बिछाए जाल में फंस गए। 2009 में एक विशेष अदालत ने उन्हें सज़ा सुनाई थी। इसके खिलाफ जोशी ने हाई कोर्ट में अपील दायर की। पंद्रह साल बाद इस अर्जी पर फैसला आया और बाइस साल तक पूरा मामला न्यायिक प्रक्रिया में रहा।

छह माह में दोबारा फैसला दें

हाई कोर्ट अपने निरीक्षण में कहा कि आरोपी देवीदास जोशी की ओर पक्ष रखने के लिए कोई वकील नहीं था। विधि सेवा प्राधिकरण ने भी उन्हें वकील उपलब्ध नहीं कराया। इसलिए गवाहों की उलट जांच नही हो सकी। कोर्ट ने कहा है कि यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। इसलिए हाई कोर्ट ने 2009 का कनिष्ठ अदालत का आदेश रद्द किया और इस पर दोबारा फैसले के लिए मामले को एक विशेष अदालत में भेज दिया और छह महीने के भीतर फैसला सुनाने का आदेश दिया।

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