मध्य प्रदेश की सियासत में साधु- संतों के समीकरण को समझिए, चुनाव से पहले मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर जमीनी स्तर पर पार्टी के लिए कितने जरूरी हैं संत
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। मध्य प्रदेश में कुछ माह बाद विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, लेकिन प्रदेश में अभी से ही सियासी तपिश बढ़ने लगी है। राजनेताओं से लेकर साधु-संत भी अपने-अपने इलाकों में सक्रिय हो गए है। पिछले दिनों राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के बीच हुई मुलाकात सुर्खियों में है। भले ही कमलनाथ इस मुलाकात को औपचारिक बता रहे हों, लेकिन राज्य की सियासत में बाबाओं और नेताओं का गठजोड़ बहुत पुराना है। साधु-संत के द्वारा जमीनी स्तर पर पकड़ बना के नेताओं को कुर्सी तक पहुंचाने की परंपरा से हर कोई वाकिफ है। हालांकि, कुर्सी पर पहुंचने के बाद राजनेता भी इस कर्ज को बखूबी अदा करते हैं।
कथावाचक उमा भारती के सियासी उदय के बाद मध्य प्रदेश की सियासत में साधु-संतों की एंट्री तेजी से होने लगी। इनमें कम्प्यूटर बाबा, भैयूजी महाराज, हरिहरनंद जी महाराज आदि संत शामिल हैं। अब इसमें नया नाम बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री का जुट गया है। राज्य में जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं वैसे-वैसे बागेश्वर धाम दरबार में नेताओं का तांता लगना शुरू हो गया है। ऐसे में लोगों के जहन में यह सवाल तेजी से उठ रहा है कि मध्य प्रदेश की सियासत में चुनाव से ठीक पहले सांधु-संत क्यों सक्रिय हो जाते हैं? और अचानक यह सुर्खियों में कैसे आ जाते हैं? वर्तमान समय के ताजा हालात भी ऐसे ही हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं...
सत्ता पाने के लिए साधु-संत क्यों जरूरी?
1. माहौल बनाने का काम करते है संत
आपको याद होगा कि राज्य के पिछले चुनाव में कम्प्यूटर बाबा अचानक सुर्खियों में आ गए थे और वे शिवराज सरकार के पक्ष में माहौल बना रहे थे, लेकिन आश्रम पर छापे पड़ने के बाद कम्प्यूटर बाबा सरकार के विरोध में बयान दे रहे हैं। आधिकांश कथा वाचक या साधु-संत राजनीति पर भी बेबाक बात करते हैं। चुनावी सालों में राजनीतिक दलों को ऐसे ही लोगों की जरूरत होती है, जो राज्य में किसी मुद्दे को लेकर जनता के बीच माहौल तैयार कर सकें। साधु संत इस काम को बखूबी अंजाम देते हैं। यहीं वजह है कि राजनीतिक दलों को साधु-संत खूब भाते हैं।
साल 2018 में नर्मदा और क्षिप्रा नदी की सफाई को लेकर साधु-संतों ने इसे बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया। जिसका असर उज्जैन, भोपाल, नर्मदापुरमा आदि विधानसभा सीटों में देखने को मिला था। जिसकी वजह से महाकौशल प्रांत में बीजेपी को नुकसान का सामना करना पड़ा था।
2. कथा के जरिए जनता में पार्टी की पकड़ को मजबूत करना
गौरतलब है कि, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, निमाड़ और मालवा भाग में कथा का बहुत ज्यादा प्रचलन है। ऐसे राजनेता अपने इलाके में पॉपुलर कथावाचक को बुलाकर कथा करवाते हैं। संत भागवत कथा के दौरान नेताओं का खूब गुणगान करते हैं, जिससे लोगों के बीच पार्टी और नेता दोनों का प्रचार-प्रसार होता है। इतना ही नहीं कई संत नेताओं को पार्टी का टिकट दिलवाने में भी मदद करते हैं और सत्ता में आने के बाद नेता भी संतों और कथावाचकों का कर्ज उतारते हैं।
3. भक्तों से वोट की अपील
रिपोर्ट्स के मुताबिक, मध्य प्रदेश की 230 में 100 सीटों पर साधु-संतों और आश्रम का प्रभाव है। ऐसे में इन सीटों को पर अपनी जीत पक्की करने के लिए नेताओं के लिए संत और आश्रम जरूरी हो जाते हैं। कई बार नेताओं के लिए संत सीधेतौर पर वोट मांगने का काम करते हैं, तो कई संत अंदरूनी तौर पर संदेश भेज देते हैं। दोनों ही सूरत में राजनीतिक दलों को फायदा होता है और जहां टक्कर कांटे की होती है। वहां पर साधु-संतों की भूमिका और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
4. नेताओं के लिए रक्षा कवच है संत
लोगों की मान्यता है कि गंगा में नहाने से सारे पाप धूल जाते हैं, लेकिन यदि ऐसा कहें कि एमपी की सियासत में नेतागण अपने पाप को धोने के लिए साधु संतों का सहारा लेते हैं तो इसमें कोई संशय नहीं है। मालूम हो कि जब दिग्विजय सिंह हिंदुत्व के खिलाफ विवादित बयान दे रहे थे, तब दिवंगत शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने कई मौकों पर उनका बचाव किया।
इसके अलावा 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भोपाल लोकसभा सीट से बीजेपी की ओर से प्रज्ञा ठाकुर मैदान में थी, तब उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी दिग्विजय सिंह को हिंदू विरोधी बताया था। जिसके बाद दिग्विजय सिंह के समर्थन में हजारों संत राजधानी भोपाल की सड़कों पर उतर आए थे। इतना ही नहीं, यदि कोई नेता अपने कार्यकाल के दौरान अपने क्षेत्र में काम नहीं कर पाते हैं तब वे साधु-संतों की आड़ में अपनी गलतियों को छुपाने की भी कोशिश करते हैं।
Created On :   16 Feb 2023 3:42 PM IST