लोकसभा इलेक्शन: राजनीतिक दलों के लिए सिरदर्द बने निर्दलीय! ऐसे प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर क्यों होती रही है रोक लगाने की बात?

राजनीतिक दलों के लिए सिरदर्द बने निर्दलीय! ऐसे प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर क्यों होती रही है रोक लगाने की बात?
  • निर्दलीय उम्मीदवार बढ़ा रहे हैं मुसीबत
  • टेंशन में आए राजनीतिक दल!
  • क्यों होती रही है रोक लगाने की बात?

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। एक खास लोकसभा सीट पर प्रभाव रखने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनावी समीकरण में एक नया अध्याय जोड़ने का काम किया है। चुनावी समीकरण में एक अलग एंगल जोड़ने के साथ-साथ निर्दलीय उम्मीदवारों ने राजनीतिक दलों का टेंशन बढ़ाने का भी काम किया है। लोकसभा चुनाव 2024 को देखें तो ऐसे कई निर्दलीय उम्मीदवार हैं जिन्होंने बागी तेवर अपनाते हुए राजनीतिक पार्टियों के लिए मुश्किलें बढ़ाने का काम किया है। चाहे वह बिहार के पूर्णिया सीट से पप्पू यादव हों या राजस्थान के बाड़मेर से रवींद्र सिंह भाटी या कर्नाटक के शिवमोगा सीट से के एस ईश्वरप्पा, इन सभी निर्दलीय प्रत्याशी ने राजनीतिक दलों की राह मुश्किल कर दी है।

निर्दलीय उम्मीदवारों का इतिहास भारत में लोकसभा चुनाव के इतिहास जितना ही पुराना है। पहले और दूसरे लोकसभा चुनावों में भी कई निर्दलीय उम्मीदवार निर्वाचित हुए। कई बार लोकसभा में निर्दलीय चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की भी मांग उठाई गई है। अतीत के पन्नों को पलटें तो ये साफ तौर पर देखा जा सकता है कि आजादी के बाद शुरुआती के दो लोकसभा चुनावों में निर्दलीय सांसदों की तादाद सबसे ज्यादा रही थी। हालांकि, उसके बाद यह ग्राफ उपर नीचे होता रहा है।

देशभर में लोकसभा का चुनावी पर्व शुरु हो चुका है, साथ ही सारे दलों में बागियों को लेकर टेंशन भी बढ़ गया है। भाजपा प्रत्याशी कैलाश चौधरी की मुश्किलें बढ़ाने के लिए रवींद्र सिंह भाटी राजस्थान के बाड़मेर लोकसभा सीट से निर्दलीय खड़े हो गए हैं। बिहार के पूर्णिया लोकसभा सीट का भी कुछ ऐसा ही हाल है। इंडिया अलायंस में तय सीट शेयरिंग फॉर्मूले के तहत पूर्णिया लोकसभा सीट आरजेडी के खाते में चला गया। राष्ट्रीय जनता दल ने पूर्णिया से बीमा भारती को प्रत्याशी बनाया है जिसपर पप्पू यादव शुरू से दावा ठोकते आ रहे थे। अपनी पार्टी जाप का कांग्रेस में विलय करने के बाद पप्पू यादव ने पूर्णिया से बतौर निर्दलीय उम्मीदवारी दाखिल कर दिया है। कर्नाटक के केएस ईश्वरप्पा ने भी भाजपा से बगावत कर शिवमोगा सीट से निर्दलीय ही चुनावी मैदान में खड़े हो गए हैं।

चुनावी मैदान में सभी ने निर्दलीय उम्मीदवारों को अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग नाम दे रहे हैं। कोई उन्हें वोटकटवा तो कोई डमी कैंडिडेट कह रहा है। सभी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे नेताओं को अपने मन-मुताबिक कैटेगरी में बांट रहे हैं।

शुरुआती चुनावों में कितनी थी निर्दलीयों की संख्या?

आजादी के बाद 1951-52 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में 37 निर्दलीय सांसद लोकसभा पहुंचे थे। वहीं दूसरे लोकसभा चुनाव जो कि 1957 में हुआ था उसमें 42 निर्दलीय सांसद चुने गए थे। तीसरे लोकसभा चुनाव में निर्दलीय सांसदों की संख्या में कमी आई। हालांकि, कभी कम तो कभी अधिक लेकिन, हर चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार खड़े होते रहें और संसद पहुंचते रहें। लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या सबसे ज्यादा 1957 यानि दूसरे लोकसभा में रही थी।

कब कितने निर्दलीय पहुंचे संसद?

लोकसभा चुनाव के इतिहास में 1962 के तीसरे लोकसभा चुनाव में 20, 1967 में 35, 1971 में 14 निर्दलीय उम्मीदवारों नें संसद में कदम रखा था। सन् 1975-77 तक देश में 21 महीने के इमरजेंसी के बाद हुए 1977 और 1980 के लोकसभा चुनाव में 9-9 , 1984 में 13 और 1989 में 12 निर्दलीय सांसद थे। साल 1991 ही एक ऐसा साल था जब सिर्फ एक ही निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीत पाया था, वहीं 1996 में 9, 1998 और 1999 में 6-6, 2004 में 5 और 2009 में 9 निर्दलीय कैंडिडेट्स ने चुनाव जीते थे।

साल 1991 को छोड़ दें तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या सबसे कम रही थी। 2014 में केवल 3 वहीं 2019 में महज 4 ऐसे निर्दलीय लोकसभा चुनाव जीत पाए थे।

क्यों होती रही है रोक लगाने की बात?

निर्दलीय उम्मदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने को लेकर हमेशा आवाज उठती रही है। विधि आयोग का कहना था कि ज्यादातर निर्दलीय उम्मीदवार डमी कैंडिडेट होते हैं या वे चुनाव को गंभीरता से नहीं लेते हैं। विधि आयोग ने सरकार से 2015 में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 4 और 5 में संशोधन करने का सुझाव दिया था और कहा था कि सिर्फ उन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की इजाजत दी जाए जो किसी पंजीकृत राजनीतिक दल से हो।

Created On :   22 April 2024 12:31 PM GMT

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