विधानसभा चुनाव नतीजे 2023: शिवराज ने फिर वही किया जो 1999 में किया और जीत लिया था आलाकमान का दिल, क्या इस बार भी काम आएगा वही पुराना स्टाइल
- एमपी का अगला सीएम कौन?
- मुख्यमंत्री को लेकर बीजेपी में माथापच्ची चालू
डिजिटल डेस्क,भोपाल। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने प्रचंड जीत हासिल की है। बीजेपी ने प्रदेश के 230 विधानसभा सीटों में से 163 सीटों पर विजय प्राप्त की है जो पिछले डेढ़ दशक में सबसे ज्यादा सीट पाने वाली पार्टी बन गई है। लेकिन बीजेपी की जबरदस्त जीत के बावजूद सीएम पद को लेकर पेंच फंस गया है। इस चुनाव में बीजेपी ने चार बार के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान को आगे नहीं किया था। चुनाव से पहले राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं थी कि मौजूदा सरकार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी बनी हुई है जिसको देखते हुए आलाकमान ने शिवराज सिंह चौहान के नाम को आगे नहीं रखा। हालांकि, अब सियासी पंडितों का कहना है कि, भाजपा ने जो मध्य प्रदेश में परिणाम हासिल किए हैं उसकी वजह सिर्फ मोदी मैजिक नहीं शिवराज सरकार की लाडली लक्ष्मी योजना भी है, नहीं तो जीत हासिल करना इतना आसान नहीं होता।
सीएम पद पर शिवराज का बयान
इन सबसे इतर मुख्यमंत्री पद को लेकर बीजेपी में गहमागहमी शुरू हो गई है। एमपी के अगले सीएम पद को लेकर शिवराज का बड़ा बयान सामने आया है। उन्होंने कहा है कि, पार्टी हाईकमान जो भी मुझे काम देगी उसे मैं पूरे मन से करूंगा। शिवराज भाजपा का एक छोटा सा कार्यकर्ता है। चौहान के इस भावुक बात को अटल बिहारी बाजपेयी सरकार से जोड़ कर देखा जा रहा है। जब अटल जी ने उन्हें केंद्र में कैबिनेट मंत्री का ऑफर दिया था।
दोहराया 1999 का इतिहास
मध्यप्रदेश की तरह बीजेपी ने राजस्थान में भी सीएम फेस क्लियर नहीं किया है। लेकिन वहां वसुंधरा राजे सिंधिया ने शक्ति प्रदर्शन शुरु कर दिया है। इससे इतर लगातार चार बार सीएम रहे शिवराज सिंह चौहान बिलकुल खामोश हैं। खामोशी की ये आदत आज की नहीं है। साल 1999 के बाद बनी अटल सरकार के बाद शिवराज के पास एक फोन आया। दूसरी तरफ से आवाज आई कि उन्हें मंत्री पद मिल रहा है, दिल्ली आना है। इसके कुछ ही समय बाद फिर एक फोन आया कि आपको गलती से फोन लगा। मतलब साफ था कि वो मंत्री नहीं बनने वाले थे। लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने न तो मंत्री बनने वाले फोन पर खुशी जाहिर की और न ही दूसरे फोन पर अफसोस जताया। पार्टी के फैसले को उन्होंने चुपचाप कबूल किया।
एकमात्र चुनाव हारे
चुनाव चाहे सांसद का हो या विधायक का। शिवराज कभी कोई चुनाव नहीं हारे। सिवाय एक को छोड़कर। साल 2003 में जब बीजेपी ने मध्यप्रदेश में बड़े बदलाव लाने का ठान लिया था। उस वक्त शिवराज को भी दिग्विजय सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ने राघौगढ़ भेज गया। शिवराज जानते थे कि दो बार के सीएम रहे दिग्विजय सिंह को उन्हीं के गढ़ में जाकर चुनौती देना आसान नहीं है। लेकिन उन्होंने आलाकमान के आदेश को सर्वोपरि रखा। और चुनावी समर में कूद गए और हारे भी। इस हार से चुनावी कद भले ही घटा हो लेकिन आलाकमान की एक आवाज पर पार्टी के प्रति कुछ भी कर गुजरने के जज्बे ने दिल्ली दरबार में शिवराज का कद ऊंचा कर दिया। शायद यही वजह रही कि जब उमा भारती के बाद प्रदेश में एक मुफीद चेहरे को सत्ता सौंपने की बात आई तो शिवराज सिंह चौहान का नाम सबसे ऊपर आया।
क्या अब काम आएगा पैंतरा?
जब जब ऐसा पेंच फंसा है कि अब शिवराज का क्या होगा। तब बहुत ज्यादा मुखर होने की जगह शिवराज ने हमेशा यही संदेश दिया है कि वो पार्टी के फैसले को ही मान्य करेंगे। लेकिन इस बार सूरते हाल कुछ और है। पहले वो आलाकमान की गुडबुक्स में हुआ करते थे। लेकिन मौजूदा आलाकमान खासतौर से पीएम नरेंद्र मोदी और उनके बीच फासले साफ नजर आते हैं। क्या ऐसे में निष्ठावान और सौम्य छवि वाले कार्यकर्ता की ये छवि शिवराज सिंह चौहान को फायदा पहुंचाएगी। या अब ये पैंतरा अपनी उम्र पूरी कर चुका है और शिवराज को कुछ नया मुकाम चुनना होगा।