अंसतुष्ट और हारे नेताओं के पुनर्वास में कौन आगे, कांग्रेस के संकल्प पत्र को भाजपा कर सकती है पूरा!

मध्य प्रदेश अंसतुष्ट और हारे नेताओं के पुनर्वास में कौन आगे, कांग्रेस के संकल्प पत्र को भाजपा कर सकती है पूरा!

Bhaskar Hindi
Update: 2022-05-16 08:38 GMT
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डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। मध्यप्रदेश  विधानसभा चुनाव 2018 के दलगत परिणामों से पता चलता है कि 15 साल के बाद कांग्रेस ने बीजेपी को मात दी। कांग्रेस ने भले ही जीत हासिल की हो लेकिन चुनावी मैदान में उतरने के इच्छुक तमाम नेता पार्टी से नाराज हो गए थे। हालांकि बढ़ते इस विरोध को शांत करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने विधानसभा परिषद बनाने की घोषणा जिससे रुष्ठ नेताओं को मनाया जाए।

विधानसभा 2018 की  चुनावी घोषणाओं में  कांग्रेस ने विधान परिषद गठन करने का वचन दिया था , जिसे वो करना भी चाह रही थी। तत्कालीन  कमलनाथ सरकार ने इस ओर कदम बढ़ाए हालांकि वे कामयाब नहीं हो सके। विधानपरिषद बनाने के पीछे कांग्रेस तर्क देती है कि इससे जनता से जुड़े अहम मुद्दों पर चर्चा करने का एक और नया मौका मिलेगा। उनका मानना है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में द्विसदनीय व्यवस्था के तहत  मध्यप्रदेश में भी विधानसभा सदन के साथ साथ विधानपरिषद होना चाहिए। 

जानकारी के लिए आपको बता दें विधान परिषद में ऐसे लोगों को मौका मिलता है जो प्रत्यक्ष रूप से राजनीति नहीं करना चाहते लेकिन अपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ और अनुभवी होने का साथ  शिक्षित नागरिक को  मौका मिलता है जो अपनी विशिष्टता, विशेषज्ञता, सुझावों और मार्गदर्शन से  जनहित के लिए रीति-नीतियां बनाने के साथ साथ सरकार को अहम मुद्दों से परिचय कराने के साथ उनसे होने वाले नफा नुकसान से विकास की दशा और दिशा तय करने में उपयोगी साबित होते हैं, इसलिए तो संविधान में भी विधानपरिषद बनाने का प्रावधान किया गया है।  लेकिन अभी तक प्रदेश का दुर्भाग्य रहा है कि यहां के बौद्धिक, विशेषज्ञ वर्ग के लिए विधानपरिषद का गठन नहीं हो पाया है। कई वरिष्ठ पत्रकार विधान परिषद बनाने के पक्ष में हैं।

लोगों का मानना है कि परिषद के लिए कोई नया इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं करना है।   सरकार को सिर्फ वित्तीय खर्च का अतिरिक्त भार पड़ेगा जो लोकतांत्रिक देश में जन हित से ऊपर नहीं है। लोकतांत्रिक आधार पर विधानपरिषद का गठन करना जरूरी है, लेकिन कुछ लोग आर्थिक खर्च के लिहाज से इसके विरोध में तर्क देते है। जिसे लोकतांत्रिक के लिहाज से उचित नहीं ठहराया जा सकता। अब सबसे बड़ा सवाल ये आता है कि मात्र आर्थिक व्यय के डर के आधार पर ही लोकतांत्रिक  संस्थाओं को खत्म कर देना कितना उचित है?  लोकतांत्रिक व्यवस्था और प्रक्रिया में किसी भी किसी संस्थान को मात्र  इसलिए नहीं नकारा जा सकता कि वह अधिक  खर्चीली है, या उसकी आवश्यकता नहीं है। जबकि सरकारों का प्रयास होना चाहिए कि कम खर्च कर सरकार चलाई जाए लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म न किया जाए।  

पूर्व सरकारों के असफल प्रय़ास

वैसे तो राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 की धारा 33 (1) और सातवें संविधान संशोधन की धारा 8 (2) में मध्य प्रदेश के लिए विधान परिषद की व्यवस्था की गई थी, जिसके बाद विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराना आवश्यक नहीं रहा था। भले ही कांग्रेस विधान परिषद बनाने की बात कहती हो लेकिन अभी तक सिर्फ खोखले इरादों में ही नजर आई है। कांग्रेस के कई मुख्यमंत्रियों ने परिषद गठन  करने के लिए प्रयास किए लेकिन वो सभी झूठे और बेमन से किए गए प्रयास नजर आते हैं। डीपी मिश्रा सरकार की बात की जाए तो विधान परिषद का गठन होना ही था केंद्र सरकार की तरफ से भी हरी झंडी मिल गई थी लेकिन मिश्रा सरकार ने  कमजोर वित्तीय हालातों का हवाला देकर परिषद नहीं बनने दी। नब्बे के दशक में भी तत्कालीन दिग्विजय सरकार में भी ऐसे प्रयास किए गए जो असफल रहे, वहीं कमलनाथ ने भी प्रयत्न किया लेकिन तब तक उनकी सरकार चली गई।

शिवराज मार सकते है बाजी

लेकिन दो दशक से सत्ता पर काबिज बीजेपी सरकार ने तब भी कोई प्रयास नहीं किए जबकि केंद्र और राज्य दोनों जगह बीजेपी की ही सरकार है। बीजेपी के पास अच्छा मौका है कि वह प्रदेश में विधान परिषद का गठन कर कांग्रेस से एक कदम आगे निकलकर जनता को एक संदेश दे सकती है। जिससे जनता में विशेषकर शिक्षित वर्ग में  सरकार के प्रति एक नई सोच एक नया भरोसा उत्पन्न होगा जिसका लाभ पार्टी को आने वाले चुनावों में भी देखने को मिल सकता है, बीजेपी  ऐसा कर जनता के बीच कांग्रेस की नाकामी के तौर पर प्रचारित कर सकती है।साथ ही बीजेपी यदि विधान परिषद का गठन करती है तो वह अपने उन नेताओं  को मनाने में सफल हो जाएगी जो अभी तक रूठे हुए है,  पार्टी इसका लाभ आने वाले चुनावों में उठा सकती है। 

मध्यप्रदेश में कितनी सीट होगी MLC

संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक  किसी राज्य  में  विधान परिषद  सदस्यों की संख्या  40 से लेकर उस राज्य की कुल विधानसभा सीटों की एक तिहाई के बराबर हो सकती है।  चूंकि मध्य प्रदेश में विधानसभा सदस्यों की संख्या 230  है, तब  विधान परिषद सदस्यों की संख्या अधिकतम 76 या 77 हो सकती है। 

 

 

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