केंद्र की सुप्रीम कोर्ट से अपील : समलैंगिक विवाह के मसले को संसद पर छोड़ दें
नई दिल्ली केंद्र की सुप्रीम कोर्ट से अपील : समलैंगिक विवाह के मसले को संसद पर छोड़ दें
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मंजूरी देने की मांग वाली याचिकाओं में उठाए गए सवालों को संसद के लिए छोड़ने पर विचार किया जाए। सुनवाई के पांचवें दिन केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष कहा कि अदालत बहुत जटिल विषय से निपट रही है, जिसका समाज पर गहरा असर पड़ेगा।
मेहता ने कहा कि शादी के अधिकार का मतलब सरकार को शादी की नई परिभाषा गढ़ने के लिए बाध्य करना नहीं हो सकता और उन्होंने शीर्ष अदालत से आग्रह किया कि इसे और आगे ले जाने के बजाय इस मामले को संसद पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि सभी धर्म विवाह को एक सामाजिक संस्था के रूप में मानते हैं, जो कानूनी स्थिति प्रदान करता है और वह पूर्व-डेटिंग कानून हैं और यह एक मूल्य निर्णय नहीं है।
उन्होंने कहा, यह अदालत एक ही कानून के तहत विभिन्न श्रेणियों के व्यक्तियों के लिए अलग-अलग लेंस का उपयोग नहीं कर सकती है। इस अदालत के लिए स्थितियों को सुलझाना असंभव होगा। और एलजीबीटीक्यूआईए प्लस में, यह नहीं बताया गया है कि प्लस का क्या मतलब है और प्लस में कम से कम 72 शेड्स और लोगों की श्रेणियां हैं।
मेहता ने कहा कि अगर यह अदालत अपरिभाषित श्रेणियों को मान्यता देती है और निर्णय 160 कानूनों को प्रभावित करेगा, तो इस परि²श्य को कैसे नियंत्रित किया जाएगा। उन्होंने कहा कि असली सवाल यह है कि कौन तय करेगा कि शादी किससे और किसके बीच होगी और इस मुद्दे की जटिलता और इस विषय में शामिल सामाजिक प्रभाव को देखते हुए इस मुद्दे को संसद पर छोड़ देना चाहिए।
उन्होंने कहा, न केवल समाज पर कई प्रभाव हैं, बल्कि अन्य कानूनों पर भी अनपेक्षित प्रभाव हैं और विभिन्न कानूनों में कई कानूनी प्रावधान हैं, जिन्हें अगर याचिकाओं में की गई प्रार्थनाओं की अनुमति दी जाती है, तो उनका समाधान नहीं किया जा सकता है।
मेहता ने पीठ में शामिल जस्टिस एसके कौल, एस रवींद्र भट, हेमा कोहली, और पीएस नरसिम्हा से पूछा, क्या मामला पहले संसद या राज्यों की विधानसभाओं के पास नहीं जाना चाहिए? उन्होंने कहा कि 2019 का ट्रांसजेंडर अधिनियम न केवल ट्रांसजेंडर, बल्कि विभिन्न अन्य समुदायों को अपने भीतर लाकर विधायी नीति बताता है और सवाल यह है कि क्या न्यायिक आदेश के रूप में विवाह के अधिकार की प्रार्थना की जा सकती है?
मेहता ने कहा कि केवल घोषणा कि उनके पास एक अधिकार है, पर्याप्त नहीं होगा और जिस क्षण विवाह के अधिकार को मान्यता दी जाती है, उसे विनियमित करना होगा और जोर देना होगा कि विषम जोड़ों के लिए भी विवाह करने का कोई पूर्ण अधिकार नहीं है और कानून के अनुसार न्यूनतम आयु है, द्विविवाह गैरकानूनी है, अलगाव आदि पर एक नियम है।
उन्होंने सवाल किया कि कैसे उन अधिकारों को विनियमित किया जाएगा और कई नियामक प्रावधान एक सामाजिक रिश्ते की कानूनी मान्यता का पालन करते हैं और केवल संसद ही ऐसी कई स्थितियों की कल्पना कर सकती है जो उत्पन्न हो सकती हैं और उन्हें विनियमित कर सकती हैं, और जोर देकर कहा कि अदालत के लिए सभी संभावित परि²श्यों की कल्पना करना संभव नहीं है और संसद ने जानबूझकर विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) के तहत इस प्रावधान को छोड़ दिया और पुरुष और महिला (एसएमए में) के स्थान पर व्यक्ति व्यापक आयाम का है।
मेहता ने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि अदालतों को विधायी नीतियों के मामलों में संयम बरतना चाहिए। पीठ अगर डॉब्स (गर्भपात के खिलाफ अमेरिकी फैसले) पर भरोसा कर रही है, हम इससे बहुत आगे हैं और सौभाग्य से ऐसा है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि डॉब्स ने कहा कि एक महिला के पास कोई शारीरिक स्वायत्तता नहीं है और इस सिद्धांत को हमारे देश में बहुत पहले खारिज कर दिया गया है और कहा कि सौभाग्य से, हम कई मुद्दों पर कई पश्चिमी देशों से बहुत आगे निकल गए हैं। गुरुवार को भी इस मामले में जिरह जारी रहेगी। शीर्ष अदालत समलैंगिक विवाहों को कानूनी मंजूरी देने की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।
(आईएएनएस)
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