यूएस इलेक्शन डिबेट: ओपन डिबेट से वोटर्स के डिसीजन पर पड़ता है असर, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से समझिए कितना प्रभावित करती हैं खुली बहस

    Bhaskar Hindi
    Update: 2024-05-13 14:39 GMT

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के दो पूर्व जज मदन बी लोकुर(सुप्रिम कोर्ट) और चीफ जस्टिस एपी शाह (हाई कोर्ट) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक पत्र लिखकर ओपन डिबेट करने का न्योता दिया। दोनों पूर्व जजों का मानना था कि ओपेन डिबेट करने से एक मिसाल कायम होगी और जनता दोनों नेताओं को अच्छे से जान पाएगी। हालांकि, अमेरिका जैसे बड़े देशों में यह सिस्टम पहले से ही है। जहां, चुनाव से पहले बड़े नेताओं के बीच खुली बहस कराई जाती है। इस ओपेन डिबेट का लाईव प्रसारण किया जाता है। जिससे वहां कि जनता अपने उम्मीदवार को और अच्छे से समझ जाती है। लेकिन क्या इसका फर्क मतदान के समय भी पड़ता है? क्या डिबेट के बाद मतदाता का मन मतदान के लिए बदल जाता है? क्या कहते हैं शोधकर्ता? आइए जानते हैं इसके बारे में

    हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की रिसर्च में खुलासा 

    ओपेन डिबेट के बाद लोगों का मन मतदान के लिए बदलता है कि नहीं? इसको लेकर साल 2019 में हार्वर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा एक रिसर्च की गई। जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी समेत कई देशों के 31 चुनावों के दौरान हुए 56 टीवी डिबेट्स को देखा गया। इस दौरान लगभग 94 हजार लोगों से पूछा गया कि आप किसे वोट करना चाहते हैं। ठीक यही सवाल टीवी डिबेट्स के बाद उन्हीं 94 हजार लोगों से पूछा गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके मन पर ओपेन डिबेट का कोई फर्क नहीं पड़ा है। बता दें कि यह रिसर्च साइंटिफिक अमेरिकन पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है। साइंटिफिक अमेरिकन अमेरिका में सबसे पुरानी लगातार प्रकाशित होने वाली पत्रिका है।

    क्यों नहीं बदला मन?

    खुली बहस के बाद अपने पसंदीदा उम्मीदवार के प्रति लोगों के मन का न बदलने के कई कारण हो सकते हैं। उन्हीं में से एक यह है कि जो लोग इस ओपेन डिबेट को सुनते हैं वह राजनीतिक तौर पर काफी जागरुक होते हैं। ऐसे लोग पहले ही अपने मन में अपने नेता को चुन चुके होते हैं। उनको पहले से ही पता होता की किसे वोट करना है। डिबेट के समय कोई मुद्दा उठने से भी उनके उपर कोई फर्क नहीं पड़ता।

    अन्य रिसर्च का दावा अलग

    जहां एक तरफ हार्वर्ड बिजनेस स्कूल की रिसर्च यह दावा करती है कि चुनाव के समय होने वाले डिबेट से मतदाता के मन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वहीं, दूसरी ओर टेलर एंड फ्रांसिस ऑनलाइन की स्टडी का कहना है कि इन डिबेट से जनता के मन पर काफी फर्क पड़ता है। ओपन में होने वाले इस बहस से मतदाता राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को और अच्छे से समझ जाता है। डिबेट देखने के बाद मतदाता यह तय करता है कि उसको किसे वोट करना है। रिसर्च दावा करती है कि साल 2000 से अगले 12 सालों के बीच यह पाया गया कि एक बड़े प्रतिशत ने अपना मतदान पहले से तय पार्टी की बजाए कहीं और किया।

    क्या है बहस का ‘फॉर्मूला’?

    अमेरिका जैसे बड़े देशों में चुनाव के दौरान होने वाले ओपेन डिबेट का तरीका बाकी डिबेटस से ज्यादा अलग नहीं होता। इस डिबेट में उम्मीदवारों के साथ एक मॉडरेटर होता है। जो टीवी प्रेजेंटर होता है। इस डिबेट में उम्मीदवारों के सामने दर्शक बैठे रहते हैं। दर्शकों या टीवी प्रेजेंटर में से कोई भी सवाल पूछ सकता है। हालांकि, सवाल कौन करेगा यह पहले ही तय कर लिया जाता है। सवाल का जवाब पहले कौन देगा यह सिक्का टॉस करके तय किया जाता है। वहीं, सवाल का जवाब देने के लिए उम्मीदवार को 2 मिनट का समय दिया जाता है।

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