रुद्रप्रयाग की प्रसिद्ध सिद्धपीठ कालीमठ में मौजूद हैं देवी काली के पैरों के निशान

उत्तराखंड रुद्रप्रयाग की प्रसिद्ध सिद्धपीठ कालीमठ में मौजूद हैं देवी काली के पैरों के निशान

Bhaskar Hindi
Update: 2022-07-03 11:31 GMT
रुद्रप्रयाग की प्रसिद्ध सिद्धपीठ कालीमठ में मौजूद हैं देवी काली के पैरों के निशान

डिजिटल डेस्क, रुद्रप्रयाग। यूं तो देश के कई मंदिरों में अनेक चमत्कार देखने-सुनने को मिलते हैं। लेकिन, देवों की भूमि यानि देवभूमि उत्तराखंड देवताओं के कई रहस्यों से सराबोर हैं। इन्हीं चमत्कारों और देव रहस्यों के बीच देवभूमि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ की चोटियों से घिरा हिमालय में सरस्वती नदी के किनारे स्थित प्रसिद्ध शक्ति सिद्धपीठ श्री कालीमठ मंदिर स्थित है। यह मंदिर समुद्रतल से 1463 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग जिले के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। इस मंदिर को भारत के प्रमुख सिद्ध शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। कालीमठ मंदिर हिंदू देवी काली को समर्पित है। कालीमठ मंदिर तन्त्र व साधनात्मक दृष्टिकोण से यह स्थान कामख्या व ज्वालामुखी के सामान अत्यंत ही उच्च कोटि का है।

देवी काली के पैरों के निशान : स्कंदपुराण के अंतर्गत केदारनाथ के 62 अध्धाय में मां काली के इस मंदिर का वर्णन है। कालीमठ मंदिर से 8 किलोमीटर की खड़ी ऊंचाई पर स्थित दिव्य चट्टान को काली शिला के रूप में जाना जाता है, जहां देवी काली के पैरों के निशान मौजूद हैं और कालीशीला के बारे में यह विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ, निशुंभ और रक्तबीज का वध करने के लिए कालीशीला में 12 वर्ष की बालिका के रूप में प्रकट हुई थीं।

कालीशीला में देवी देवता के 64 यंत्र है, मां दुर्गा को इन्हीं 64 यंत्रों से शक्ति मिली थी। कहते है कि इस स्थान पर 64 योगनिया विचरण करती रहती हैं। मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी। तब मां प्रकट हुई और असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला में पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर युद्ध में दोनों दैत्यों का संहार कर दिया।

इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं :

कालीमठ मंदिर के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसमें कोई मूर्ति नहीं है, मंदिर के अन्दर भक्त कुंडी की पूजा करते है, यह कुंड रजतपट श्री यन्त्र से ढंका रहता है। केवल पूरे वर्ष में शारदे नवरात्री में अष्ट नवमी के दिन इस कुंड को खोला जाता है और दिव्य देवी को बाहर ले जाया जाता है और पूजा भी केवल मध्यरात्रि में ही की जाती है, तब केवल मुख्य पुजारी ही मौजूद होते हैं।

सबसे ताकतवर मंदिरों में से एक :

मान्यता के अनुसार कालीमठ मंदिर सबसे ताकतवर मंदिरों में से एक है, जिसमें शक्ति की शक्ति है। यह केवल ऐसी जगह है, जहां देवी माता काली अपनी बहनों माता लक्ष्मी और मां सरस्वती के साथ स्थित है। कालीमठ में महाकाली, श्री महालक्ष्मी और श्री महासरस्वती के तीन भव्य मंदिर है।

दुर्गासप्तशती के वैकृति रहस्य के अनुसार, इन मंदिरों का निर्माण उसी विधान से संपन्न है, जैसा की दुर्गासप्तशती के वैकृति रहस्य में बताया है अर्थात् बीच में महालक्ष्मी, दक्षिण भाग में महाकाली और वाम भाग में महासरस्वती की पूजा होनी चाहिए। स्थानीय निवासीओं के अनुसार, यह भी किवदंती है कि माता सती ने पार्वती के रूप में दूसरा जन्म इसी शिलाखंड में लिया था।

वहीं, कालीमठ मंदिर के समीप मां ने रक्तबीज का वध किया था। उनका रक्त जमीन पर ना पड़े, इसलिए महाकाली ने मुंह फैलाकर उनके रक्त को चाटना शुरू किया। रक्तबीज शिला नदी किनारे आज भी स्थित है। इस शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। रक्तबीज शीला वर्तमान समय में आज भी मंदिर के निकट नदी के किनारे स्थित है।

कालीमठ मंदिर की मान्यता :

कालीमठ मंदिर के बारे में यह मान्यता है कि सच्चे मन से मांगी गई मनोकामना या मुराद जरूर पूरी होती है। इस मंदिर में एक अखंड ज्योति निरंतर जली रहती है एवं कालीमठ मंदिर पर रक्तशिला, मातंगशिला व चंद्रशिला स्थित हैं। कालीमठ मंदिर में दानवों का वध करने के बाद मां काली मंदिर के स्थान पर अंतध्र्यान हो गई, जिसके बाद से कालीमठ में मां काली की पूजा की जाती है। कालीमठ मंदिर की पुनस्र्थापना शंकराचार्य जी ने की थी।

गांव कालीमठ मूल रूप से और अभी भी गांव कवल्था के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि भारतीय इतिहास के अद्वितीय लेखक कालिदास का साधना स्थल भी यही रहा है। इसी दिव्य स्थान पर कालिदास ने मां काली को प्रसन्न कर विद्वता को प्राप्त किया था। इसके बाद कालीमठ मंदिर में विराजित मां काली के आशीर्वाद से ही उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें से संस्कृत में लिखा हुआ एकमात्र काव्य ग्रन्थ मेघदूत जो कि विश्वप्रसिद्ध है, रुद्रशूल नामक राजा की ओर से यहां शिलालेख स्थापित किए गए हैं, जो बाह्मी लिपि में लिखे गए हैं। इन शिलालेखों में भी इस मंदिर का पूरा वर्णन है।

शीला से हर साल निकलता है रक्त :

मंदिर के नदी के किनारे स्थित कालीशीला के बारे में यह मान्यता है कि कालीमठ में मां काली ने जिस शीला पर दानव रक्तबीज का वध किया, उस शीला से हर साल दशहरा के दिन वर्तमान समय में भी रक्त यानी खून निकलता है।

यह भी माना जाता है कि मां काली शिम्भ, निशुम्भ और रक्तबीज का वध करने के बाद भी शांत नहीं हुई, तो भगवान शिव मां काली के चरणों के नीचे लेट गए थे, जैसे ही मां काली ने भगवान शिवजी के सीने में पैर रखा, तो मां काली का क्रोध शांत हो गया और वह इस कुंड में अंतध्र्यान हो गई, माना जाता है कि मां काली इस कुंड में समाई हुई है और कालीमठ मंदिर में शिवशक्ति भी स्थापित है।

हर साल नवरात्रि में कालीमठ मंदिर में भक्तों की भीड़ का तांता लगा रहता है और दूर-दूर से श्रद्धालु मां काली का आशीर्वाद लेने के लिए पहुंचते हैं। इस सिद्धपीठ में पूजा अर्चना के लिए श्रद्धालु मां को कच्चा नारियल व देवी के श्रृंगार से जुड़ी सामग्री जिसमें चूड़ी, बिंदी, छोटा दर्पण, कंघी, रिबन, चुनरिया अर्पित करते हैं। देशभर में कालीमठ मंदिर एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां पर मां काली, मां सरस्वती और मां लक्ष्मी के अलग अलग मंदिर बने हुए हैं।

ऐसे पहुंचें यहां :

कालीमठ मंदिर तक पहुंचने के लिए सर्वप्रथम रुद्रप्रयाग से गौरीकुंड हाइवे के जरिए 42 किमी का सफर तय कर गुप्तकाशी पहुंचे। उसके बाद गुप्तकाशी से सड़क मार्ग से आठ किलोमीटर का सफर तय कर कालीमठ मंदिर पहुंचा जा सकता है।

 

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