होली के रंग युवाओं के संग -रंगोत्सव में गीत–ग़ज़ल से युवाओं ने भरे सतरंगी रंग

भोपाल होली के रंग युवाओं के संग -रंगोत्सव में गीत–ग़ज़ल से युवाओं ने भरे सतरंगी रंग

Bhaskar Hindi
Update: 2023-03-13 04:40 GMT
होली के रंग युवाओं के संग -रंगोत्सव में गीत–ग़ज़ल से युवाओं ने भरे सतरंगी रंग

डिजिटल डेस्क, भोपाल। विश्व रंग' के अंतर्गत होली के रंग युवाओं के संग रंगोत्सव गीत–ग़ज़ल संगोष्ठी का यादगार आयोजन स्कोप कैम्पस सभागार, भोपाल में किया।

इस गीत–ग़ज़ल संगोष्ठी में युवा रचनाकार योगेश पाण्डेय, अभय शुक्ला, सुभाष जाटव, निहारिका सिंह, शिव सफ़र, प्रशस्त विशाल, श्रीराम पाण्डेय, दिप्ती गवली, कृष्णा पाठक, मशगूल मेहरबानी, ऋषि विश्वकर्मा अपनी रचनाओं से सतरंगी रंग भर दिए।

यह संगोष्ठी  वरिष्ठ कथाकार एवं वनमाली सृजन पीठ भोपाल के अध्यक्ष मुकेश वर्मा, डॉ. अदिति चतुर्वेदी वत्स, निदेशक, आईसेक्ट ग्रुप ऑफ युनिवर्सिटीज के आत्मीय सान्निध्य में आयोजित हुई।

इस संगोष्ठी में एलआईसी, जश्न–ए–अल्फ़ाज, सोज़–ए–सुखन, कोशिश सोसायटी, भोपाल ने सहयोग प्रदान किया।

संगोष्ठी का संयोजन संजय सिंह राठौर, विकास अवस्थी, प्रशांत सोनी, विश्व रंग सचिवालय, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा किया गया।

 

गीत–गजल संगोष्ठी में अभय शुक्ला ने अपनी ग़ज़ल में माँ के त्याग को परिभाषित करते हुए कहा–

उतरना पार था मुश्किल हमारा,

ज़रा नाराज़ था साहिल हमारा।

 

हमारी मां के गहनों से बना है,

चमकता क्यूं न मुस्तकबिल हमारा।

 

सुभाष जाटव ने प्रेमरंग से सराबोर गीत में कहा–हो गई है प्रीत,

मेरे गीत पूरे हो रहे हैं।

भाव-नद में

बह रहा नवनीत,

मेरे गीत पूरे हो रहे हैं।

 

दीप्ति गवली ने अपनी रचना में प्रेम को बयां करते हुए कहा–

मै तुझको खो के भी कब  भूल पाई हूं जानाॅं

तेरा   ख़्याल    मुझे    तेरे   पास   रखता  है

 

निहारिका सिंह ने मानवीयता और जीवन की जद्दोजहद को बयां करते हुए कहा–

बड़ी तक़लीफ़ होती है किसी के ग़म को देखे से

 करें क्या  सोचते हैं ,पास जाते, बैठ जाते हैं

 

अग़र हिम्मत कभी टूटे तो आंखें बंद करते हैं

 सफ़र को देखते ,हिम्मत जुटाते ,बैठ जाते हैं

 

कृष्णा नंद पाठक ने अपनी ग़ज़ल में सामाजिक उलझावों पर कहा–

कौन है अंदर मिरे ये कौन बाहर आ गया

इक ज़रा सी बात पर मैं इस क़दर झल्ला गया

 

पंछियों के काफ़िले पर इक शिकारी का धनुष

चलने ही वाला था और फिर मैं वहाँ पर आ गया

 

याद कर वो रात जब तू बेबसी के नाम पर

झूट ही कहता रहा और पास ही आता गया

 

मैं किसी के साथ था और तू किसी के साथ था

बात कोई थी नहीं पर मसअला बढ़ता गया

 

शिव सफ़र ने अपनी ग़ज़ल में कहा–

है बस इस जिस्म को साँसों का कब्रिस्तान करना

बहुत मुश्किल नहीं होता है ग़म आसान करना

 

सुकूँ से देख लो पहले मुझे तुम राख बनते

फिर उसके बाद तुम अपनी ख़ुशी ऐलान करना

 

 

श्रीराम पाण्डेय. ने अपनी रचना में कहा–

शब्द के जाल में बांधकर , एक अधूरी कहानी बुनी ।

जिंदगानी तुम्हे सौंप दी , ज़िन्दगी का भरोसा नहीं है ।

 

 

किसको अपनी सुनाएं व्यथा , किससे मिलने की बातें करें ,

किसको सौपें कलश प्रेम का , हांथ में हांथ किसके धरें ,

हांथ में किसके खंजर नहीं , अब गले से लगाएं किसे ,

आदमी , आदमी ना रहा , आदमी का भरोसा नहीं है ।

 

योगेश पाण्डेय ने अपनी ग़ज़ल में कहा–

उदासी की कबा ओढ़े हुए हम

ख़ुद अपने हाल पे हंसते हुए हम

 

तुम्हारा जिस्म पाकर क्या करेंगे

तुम्हारी रूह में ठहरे हुए हम

 

प्रशस्त विशाल ने अपने गीत में कहा-

 

गुलमोहर ने पगडण्डी पर बिछा दिया सिंदूर,

सुहागन हुई धरा..

 

भवरों को मधुपान कराती है महुए की क्यारी,

रश्मि के परिधान उढ़ाए सब को सूर्य ललारी!

मैनाओं को ताल दे रही है नदिया की कलकल,

ताल पकड़ कर सारी-सरहज कूक रही हैं गारी

 

और घटाओं ने भड़काया है मन का कर्पूर,

सुहागन हुई धरा..

 

मेघा रानी ने ढलकाया इंद्रधनुष का आँचल,

पुष्प हवा के हाथों भेज रहे हैं पीले चावल..

रूएँ बनकर शाखों पर नव-पल्लव फूट रहे हैं

और क्षितिज पर फैल रहा है नई पहर का काजल

 

सपनों की देहरी पर बजते हैं सौ-सौ संतूर,

सुहागन हुई धरा..

 

प्रशस्त विशाल ने अपनी ग़ज़ल में कहा–

-तुम्हारा ज़िक्र जब लाती है दुनिया

मुसलसल बोलती जाती है दुनिया

 

तुम्हारे नाज़ की डोली उठाकर

कहारों की तरह गाती है दुनिया

 

तरस खाती हो तुम दुनिया के ऊपर

मिरे ऊपर तरस खाती है दुनिया

 

मशगूल मेहरबानी ने अपनी ग़ज़ल में कहा–

 

बड़ी  मुद्दत  से  जिसकी  इंतज़ारी   थी  वो  पल आया

कई  मग़रूर  माथों    पर  मिरे   होने   से   बल  आया

वहाँ  का  शोर कुछ  पड़ता नहीं कानों  में अब  शायद

मै  बाज़ार-ए-मोहब्बत  से  बहुत  आगे  निकल  आया

 

ऋषि विश्वकर्मा. ने अपनी रचना में कहा–

सब जिन पलों के ख़्वाब आंखों में सजाए हैं

मैंने वो पल तो होश में रहकर गँवाए हैं

 

अपना जहाँ में एक ही तो शख़्स है वो मैं

बाक़ी ये जितने लोग हैं सारे पराए हैं

 

पहचान लेंगे मुझको अंधेरे में चंद लोग

रब ने दिए हैं कुछ तो कुछ मैंने कमाए हैं

 

इक दिन ख़ुदा से फिर मेरी तकरार हो गई

वो कह रहा था रिश्ते सब मेरे बनाए हैं

 

हर दम मुझे आँसू मिले सज़ा के तौर पे

जब जब भी मैंने कुछ ख़ुशी के पल चुराए हैं

 

जिसने कभी कोई दिया बुझने नहीं दिया

उस आदमी के घर भी अंधेरों के साए हैं

 

ऋषि विश्वकर्मा ने अपनी रचना में कहा–

अपना हिस्सा लिखकर हमने,

फिर पन्ने को मोड़ दिया है

बाक़ी उन पर छोड़ दिया है।

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