समीकरण फेल सियासत से दूर: DB, DY, DM- मायावती ने आजमाया हर फॉर्मूला पर नहीं मिली जीत, लगातार क्यों फेल हो रहा है बहनजी का चुनावी गणित?
- बसपा के नए नए जातिगत समीकरण
- सड़क और समाज से दूर रणनीति और समीकरणों में उलझी
- वोट परसेंट में लगातार गिरावट बसपा के लिए चेतावनी
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। उत्तरप्रदेश की नगीना लोकसभा सीट से आजाद समाज पार्टी कांशीराम के अध्यक्ष चंद्रशेखर की जीत और लोकसभा चुनाव के नतीजों में बीएसपी का जीरो पर सिमट जाने से मायावती और बसपा पर सवाल उठने लगे हैं। नतीजों से संचार के तमाम माध्यमों पर बीएसपी के कमजोर होने और मायावती की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि बीएसपी कमजोर हो गई है। नगीना में चंद्रशेखर की जीत ठीक उसी तरह है जैसे बिहार के पूर्णिया में निर्दलीय पम्पू यादव की जीत। इस लोकसभा चुनाव में बीएसपी को 2.04 फीसदी वोट मिला है। वोट परसेंट के हिसाब से अभी भी बीएसपी देश में 6 वें नंबर की पार्टी है। देशभर के बहुजनों के बीच मायावती की छवि एक संघर्षशील नेता की है। यूपी के बाद मध्यप्रदेश में भी बीएसपी कोई बड़ा कमान नहीं कर पाई। हालांकि मध्यप्रदेश में इसका वोट परसेंट बढ़ा है।
2007 के विधानसभा चुनाव में अकेले के दम पर नई सोशल इंजीनियर के जरिए सत्ता की कुर्सी पर बैठी मायावती की इस बार की रणनीति भी नई थी। हालांकि ये असफल रही, इसके कई कारण हो सकते है। लेकिन अगर ये सफल होती है तो यूपी में बीएसपी का मजबूत सियासी समीकरण होता। और यूपी का राजनीतिक परिदृश्य आज कुछ और होता। मायावती की इस चुनावी रणनीति में दलित और मुस्लिम शामिल थे। जो उत्तरप्रदेश की कई लोकसभा सीटों पर में 40 से 45 फीसदी हिस्सेदारी रखते है। इसके लिए मायावती ने दर्जनभर से अधिक मुस्लिमों को चुनावी मैदान में उतारा हालांकि मुस्लिम मतदाताओं ने बीएसपी पर भरोसा न करते हुए अन्य सपा और कांग्रेस को वोट किया। इसके पीछे की मुख्य वजह ये रही दोनों ही दल बसपा को बीजेपी की बी टीम घोषित करने में जुटे रहे। और बीएसपी के वोट बैंक को तोड़ने और मोड़ने में सफल हुए।
आपको बता दें दलित -बहुजन विचारधारा से होते हुए सर्वजन और फिर दलित ब्राह्मण के सहारे 2007 में सत्ता का मजा चख चुकी बीएसपी को आगामी वर्षों में नुकसान ही उठाना पड़ा। 2014 में जीरो के बाद जब सपा के साथ गठबंधन हुआ तो 2019 में हाथी की 10 सीटों के साथ एक उम्मीद जागी थी। जिस ब्राह्मण वर्ग के वोट के साथ बीएसपी ने 2007 में सत्ता का सुख लिया वो बुद्धजीवी ब्राह्मण वोट बीजेपी के साथ चला गया। जिसकी वजह से 2014 और 2019 में बीजेपी को बंपर सीट मिली। लेकिन इस वर्ग के वोटरों की नाराजगी होने से इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी फिर सपा से पिछड़ गई। मायावती ने डीएम यानि दलित मुस्लिम के 42 फीसदी वोटों के साथ चुनाव लड़ा जो जीत में नहीं दिला सका। नतीजों के बाद इसे लेकर बीएसपी में काफी नाराजगी देखी गई। मायावती ने अपनी रणनीति में मुस्लिमों को उचित प्रतिनिधित्व देकर सियासी लड़ाई लड़ी। लेकिन बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी मतदाताओं के बीच इसे भुनाने में असफल रहे।
मायावती ने चुनावी नतीजों के बाद कहा दलित वोटरों में मेरी ख़ुद की जाति के ज़्यादातर लोगों ने वोट बीएसपी को देकर अपनी अहम ज़िम्मेदारी निभाई है। उनका मैं आभार प्रकट करती हूँ।साथ ही मुस्लिम समाज, जिसको कई चुनाव में उचित पार्टी प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है, वो बीएसपी को ठीक से नहीं समझ पाया। ऐसे में इसके बाद पार्टी उनको सोच समझकर ही भविष्य में मौक़ा देगी, ताकि भविष्य में इसका भयंकर नुक़सान ना हो। कई रानजीतिक विश्लेषक ये मानते है कि बसपा के नेताओं का सड़क समाज और सत्तारूढ़ पार्टी के विरोध से दूर रहने से डीबी यानि दलित ब्राह्मण, डी वाई (दलित यादव) और डीएम दलित मुस्लिम बसपा के समीकरण नतीजों में नहीं बदल सकें।
वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी सिंह बीबीसी से कहते हैं - मायावती का राष्ट्रीय राजनीति में धीरे-धीरे अप्रासंगिक होना और चंद्रशेखर की जीत ने उन्हें ये मौक़ा दिया है कि वो पूरे भारत में अपना संगठन मज़बूत करें। चंद्रशेखर के पास ये सुनहरा मौक़ा है। परिस्थितियां उनके अनुकूल हैं, उनका स्वास्थ्य और उम्र साथ है। उत्तर भारत की दलित राजनीति में चंद्रशेखर एक युवा चेहरा हैं। वह सड़कों पर उतरने से परहेज नहीं करते हैं और संघर्ष के दौरान जेल भी गए। बसपा नेताओं को अधिक से अधिक सत्ता का विरोध कर सड़क पर उतरकर मतदाताओं के बीच पहुंचे।
बीबीसी ने दलित चिंतक, स्तंभकार और ‘कांशीराम के दो चेहरे’ सहित कई पुस्तकों के लेखक कंवल भारती के मुताबिक लिखा है कि चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा तो बनेंगे लेकिन उनसे अभी बहुत उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास दलित मुक्ति का कोई विज़न नहीं है। वो तात्कालिक परिस्थितियों के हिसाब से रिएक्ट करते हैं। लेकिन निजीकरण, उदारीकण से लेकर दलितों को हिन्दुत्व फोल्ड से बाहर निकालकर लाने के लिए उनके पास कोई विचारधारा नहीं है। फ़ारवर्ड प्रेस के हिंदी के संपादक और जातियों की आत्मकथा पुस्तक के लेखक नवल किशोर कुमार भी चंद्रशेखर की सांगठनिक क्षमता पर सवाल उठाते हैं।वो कहते है मूंछ से ज्यादा विवेक से काम लेना होगा।
साल दर साल चुनावी आंकड़ों पर नजर डाले तो बसपा का वोट बैंक बिखरता जा रहा है। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी को 19.43 प्रतिशत वोट मिले थे और पार्टी ने 10 सीट पर जीत दर्ज की थी। 2022 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 12.88 प्रतिशत हो गया था। पार्टी महज एक सीट पर जीत दर्ज कर पाई थी। इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 9.39 प्रतिशत हो गया है और पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई।
बीबीसी से.नवल किशोर कहते हैं कि बीएसपी का समय अब भी गया नहीं है। अब भी 9 फ़ीसदी उसका कोर वोटर है। हालांकि यूपी में एससी वोटर्स 25 फीसदी के करीब है। मायावती 2007 में जब यूपी की सत्ता में आई तो उनके साथ पिछड़ा, अति पिछड़ा, जाटव, ग़ैर जाटव सब थे। मायावती ने इस बीच कई दिग्गज नेताओं को पार्टी से बाहर भी निकाल दिया था। जिसका खामियाजा बीएसपी को अब उठाना पड़ रहा है।
मायावती ने युवा नेतृत्व के तौर पर अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी और बसपा का राष्ट्रीय समन्वयक बनाया था। लेकिन अनुशासित पार्टी होने के नाते बीएसपी के युवा नेता आकाश आनंद के एक विवादित बयान के चलते उन्हें पद से हटा दिया था। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि देश की राजनीति में फिर से बसपा को स्थापित करने के लिए युवाओं की भूमिका के साथ साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी।
Created On :   7 Jun 2024 4:38 PM IST