जानिए कब है स्वामी करपात्री महाराज की जयंती
डिजिटल डेस्क, भोपाल। स्वामी करपात्री जी महाराज की 111 वीं जयंती 13 अगस्त को मसमानों गांव स्थित करपात्री सेवा सदन में मनाई जाएगी। स्वामी जी की प्रतिमा के समक्ष धार्मिक अनुष्ठान के साथ जयंती समारोह का आरंभ होगा। धर्मसम्राट स्वामी करपात्री (1907-1982) भारत के एक महान संत, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे। उनका मूल नाम हरि नारायण ओझा था। वे हिन्दू दसनामी परम्परा के सन्यासी थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम "हरिहरानन्द सरस्वती" हो गया था किन्तु वे "करपात्री" नाम से ही प्रसिद्ध रहे क्योंकि वे अपने अंजुली का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे। उन्होंने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनैतिक दल भी बनाया था। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें "धर्मसम्राट" की उपाधि प्रदान की गई।
स्वामी श्री का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व. श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ।
बचपन में उनका नाम "हरिनारायण" रखा गया। स्वामी जी 8-9 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतु घर से पलायन कर रहे थे की घर वालों ने 9 वर्ष की आयु में ही सौभाग्यवती कुमारी महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न कर दिया। विवाह पश्चात वे 16 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर चले गये। उसी वर्ष ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली।
तब वे हरि नारायण से "हरिहर चैतन्य" बन गये। वे स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती के शिष्य थे। स्वामी जी की स्मरण शक्ति "फोटोग्राफिक" जैसी थी, उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी वे बता देते थे कि ये अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ पर अमुक रूप में लिखा हुआ है। उन्होंने तर्क धुरंधर मदन मोहन मालवीय जी एवं स्वामी दयानंद सरस्वती जी को भी परास्त किया था, उन्हें सरस्वती जी का वरदान था कि स्वप्न में भी उनकी वाणी शास्त्र विरूद्ध नहीं होगी। उनके लिए शास्त्र सम्मत भगवान का स्वरूप ही ग्राह्य था।
स्वामी जी कभी वैष्णव मतों के विरूद्ध नहीं थे, और तो और जब काशी के विद्वत्परिषद् ने भागवत्पुराण के नवम् दशम् स्कन्ध को अश्लील एवं क्षेपक कहकर निकालने का निर्णय कर लिया तब करपात्रीजी ने पूरे दो माह पर्यन्त भागवत की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत कर सिद्ध कर दिया कि वह तो भागवत की आत्मा ही है, हाँ जब कुछ वैष्णवों ने करपात्रीजी के लिए अपने ग्रंथों में कटु शब्दों का प्रयोग किये तब उनके शास्त्रार्थ महारथी शिष्यों ने उसका उसी भाषा में उत्तर दिया।
इससे उन्हें वैष्णव विरोधी समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। आज जो रामराज्य संबंधी विचार गांधी दर्शन तक में दिखाई देते हैं, धर्म संघ, रामराज्य परिषद्, राममंदिर आन्दोलन, धर्म निरपेक्ष राज्य, आदि सभी के मूल में स्वामी जी ही हैं। संतों के वैचारिक विरोधों के साथ ही उनमें आपसी प्रेम भी बहुत था हमें उसे नहीं भूलना चाहिए।
शिक्षा
नैष्ठिक ब्रम्हचर्य श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्कृत अध्ययन षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया।
तपस्वी जीवन
17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा करने का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग करने के बाद विधिवत, सन्यास धारण किया। एक ढाई गज कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही रहता था। विद्याध्ययन ग्रहण करने की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में ही हृदयंगम कर लेते थे।
गंगातट पर घास-फूस की झोपड़ी में एकाकी निवास, घर-घर भिक्षाग्रहण करना, चौबीस घंटों में मात्र एक बार भोजन करना। भूमिशयन, सिर्फ पद यात्रा करना। गंगातट नखर में प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में एक लकड़ी की कील गाड़कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या में रत रहते थे। चौबीस घंटे व्यतीत होने पर जब सूर्य की धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती है जहां 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण "करपात्री" कहलाए। श्री विद्या में दीक्षित होने पर धर्मसम्राट का नाम षोडशानन्द नाथ पड़ा
दण्ड ग्रहण
24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर "अभिनवशंकर" के रूप में उनका प्राकट्य हुआ। फिर एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" कहलाए। अखिल भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना स्वामी करपात्री जी ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें प्राप्त की थी। सन् 1952, 1957 एवं 1962 के विधानसभा चुनावों में हिन्दी क्षेत्रों (मुख्यत: राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी
ब्रह्मलीन
माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 (7 फरवरी 1982) को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधी दी गई। स्वामी करपात्री जी महाराज ने वाराणसी में "धर्मसंघ" की स्थापना की। उनका अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता। वे अद्वैत दर्शन के अनुयायी एवं शिक्षक थे। सन् 1948 में उन्होने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना की जो परम्परावादी हिन्दू विचारों का राजनैतिक दल है।
स्वामी करपात्री जी महाराज ने सनातन धर्म की बहुत सेवा की। आपने अनेक अद्भुत ग्रन्थ लिखे जैसे :-
वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष, मार्क्सवाद और रामराज्य आदि। आपके ग्रंथो में भारतीय परंपरा का बड़ा ही अद्भुत एवं प्रामाणिक अनुभव प्राप्त होता है। आप ने सदैव ही विशुद्ध भारतीय दर्शन को बड़ी दृढ़ता से प्रस्तुत किया है।
Created On :   12 Aug 2018 2:43 PM IST