मेरा 40 वर्षों का सफर: जिज्ञासा से भक्ति तक
‘प्रेम रस सिद्धांत’ नाम की एक पुस्तक ने कैसे शांत की मेरी दशकों की जिज्ञासा।
कुछ दिन पहले मेरे हाथ एक ऐसी किताब लगी जिसने मेरी सालों पुरानी जिज्ञासाओं के उत्तर दे दिये। मुझे याद है जब मैं शायद पहली कक्षा में पढ़ता था तब मैं अपने पापा से ढेरों सवाल पूछा करता था कि ये दुनिया कैसे बनी, इंसान का जन्म क्यों होता है, भगवान् कौन है, लोग उसकी पूजा क्यों करते हैं, मरने के बाद लोग कहाँ जाते हैं, वगैरह वगैरह।
पापा की विडंबना यह रही होगी कि एक पाँच-छह साल के बच्चे को ऐसी गूढ़ बातें कोई कैसे समझाए। सच तो यह है कि शायद मेरे बाल मन के बहुत सारे सवाल ऐसे रहे होंगे जिनका उत्तर पापा भी न जानते हों। लिहाज़ा बचपन से मेरे मन में ऐसी कई पहेलियाँ अनसुलझी ही रह गयीं। फिर स्कूल, कॉलेज, नौकरी, शादी और बच्चों का चक्र इतनी तेज़ी से घूमा कि दर्शनशास्त्र के ये तमाम सवाल रोटी-कपड़ा-मकान की जद्दोजहद के तले दब के रह गए।
अब 40 की उम्र में जब कुछ किताबों की सोहबत हुई, कुछ समान विचारधारा वाले मित्रों का संग मिला और गूगल जैसा हथियार मेरे हाथ लगा तो ख्याल आया कि क्यों न कुछ पुरानी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया जाये। वैसे भी इस उम्र में मैं शायद उन अस्तित्ववादी प्रश्नों का हल समझने की बेहतर स्थिति में हूँ। और सच कहूँ तो अब उनका उत्तर जानने की ज़्यादा ज़रूरत भी महसूस होती है क्योंकि भाई 40 के तो हो गए, 60 साल के सीनियर सिटीज़न बनने में भी ज़्यादा समय नहीं लगेगा और फिर क्या पता कब जीवन का टिकट कट जाये।
विवेकानंद और टैगोर से परिचय
इसी उधेड़बुन को सुलझाने के लिए मैंने कई फिलोसोफर्स की किताबें पढ़ीं।
स्वामी विवेकानंद और जिद्दू कृष्णमूर्ति से लेकर सर्वपल्ली राधाकृष्णन और चाणक्य तक; वेद व्यास और रामानुज से लेकर रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी तक मैंने सबका दर्शन पढ़ डाला। काफी बौद्धिक समृद्धता प्राप्त हुई, बहुत कुछ जानने को मिला, परन्तु मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हो पायी।
बल्कि जैसे-जैसे मैं ज्ञान रूपी इस गुफा के अंदर जाता गया, उजाले की बजाय मैं और अँधेरे से घिरता गया। दिमाग भ्रमित सा हो गया। जो पिछली किताब में लिखा था वो सही है या जो मैं अब पढ़ रहा हूँ वो सही है। तर्क से सोचने पर तो दोनों ही सही जान पड़ते हैं, पर दोनों कैसे सही हो सकते हैं, यह तो एक दूसरे की विरोधी बातें हैं।
‘प्रेम रस सिद्धांत’ से पहली मुलाकात
बस इसी कश्मकश में मैं एक के बाद एक किताब पढ़ता जा रहा था जब मुझे पहली बार 'प्रेम रस सिद्धांत' के बारे में पता चला। किताब का नाम और कवर इंटरेस्टिंग लगा, फिर लेखक का नाम देखा तो वो था जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज। पुस्तक विश्वसनीय जान पड़ी तो मैं उसे खरीदकर घर ले आया।
किताब के इंडेक्स पर मैंने एक बार नज़र दौड़ाई तो मन में उत्साह हुआ। जीव का चरम लक्ष्य, ईश्वर का स्वरूप, संसार का स्वरूप, कर्मयोग की क्रियात्मक साधना जैसे चैप्टर्स देखकर लगा कि जैसे किसी ने मेरे दिमाग के सारे प्रश्न चुराकर एक लिस्ट बनायी हो और फिर उसपर एक किताब लिख दी हो। परन्तु मैंने अपने उत्साह को नियंत्रित किया। पहले भी एक-दो बार मुझे इस प्रकार की विषय वस्तु की किताबें मिली थीं लेकिन वे भी मेरी ज्ञान की उत्कंठा को शांत नहीं कर पायीं थीं।
पूरा हुआ जिज्ञासा से भक्ति तक का सफर
रविवार के दिन मैं नहा-धोकर, नाश्ता करते ही वो किताब लेकर अपनी स्टडी टेबल पर बैठ गया। पहले चैप्टर की पहली लाइन "विश्व का प्रत्येक जीव बिना किसी प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करता" से ही मैं उस किताब की लेखन शैली से बंध गया। पुस्तक के लेखक जगद्गुरु कृपालु महाराज का तरीका कुछ ऐसा है कि ये पहले एक प्रश्न करते हैं - मुमकिन है कि ये वही प्रश्न हो जो आपके दिमाग में चल रहा हो। फिर ये उस प्रश्न के सारे पहलू आपके सामने रखते हैं, उसे तर्क, दर्शन और सनातन धर्म के ग्रंथों की कसौटी पर कसते हैं और फिर उसके अनेक उदाहरण देते हुए सत्य को सिद्ध कर देते हैं। इस प्रकार सिद्धांत के हर पक्ष के खंडन-मंडन को पढ़ने के बाद आपके मस्तिष्क की सभी शंकाएँ काफूर हो जाती हैं।
'प्रेम रस सिद्धांत' पुस्तक की सबसे अच्छी बात मुझे ये लगी कि इसमें आम बोल-चाल की भाषा में ही क्लिष्ट सिद्धांतों को समझा दिया गया है, अन्यथा दर्शन के भारी-भरकम शब्दों को पढ़कर बड़े-बड़ों का सिर चकराना आम बात है।
भाषा की सरसता का यह अर्थ नहीं कि इसमें ज्ञान के स्तर में कुछ न्यूनता है। वैसे तो इस पुस्तक में वेद, शास्त्र, गीता, भागवत, रामायण आदि सब ग्रंथों के प्रमाण मौजूद हैं पर उनका विवरण बड़ी ही सरल भाषा में किया गया है।
लगभग 300 पन्नों की इस पुस्तक को जब मैं पढ़ कर उठा तो मन बहुत शांत था।
लगा जैसे जिस ज्ञान को मैं इतने सालों से ढूंढ रहा था, वो मुझे मिल गया हो। मेरे अतीत का जिज्ञासु बालक अब एक 40 वर्ष के वयस्क का रूप ले चुका था जिसे अपने सारे सवालों के जवाब भक्ति की चौखट पर आकर मिल चुके थे।
Created On :   1 Feb 2025 2:00 PM IST