Friendship Day Special: राजनीति की दुनिया में इन नेताओं ने कायम की दोस्ती की अनोखी मिसाल
Friendship Day Special: राजनीति की दुनिया में इन नेताओं ने कायम की दोस्ती की अनोखी मिसाल
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। फिल्मी दुनिया से लेकर आम लोगों के बीच तक दोस्ती के किस्से बहुत मशहूर होते हैं। पर बात राजनीति की हो तो अलग अलग या एक ही दल के नेताओं के बीच दोस्ती की दास्तानें मशहूर होना मुश्किल ही नजर आता है। पर, नामुमकिन नहीं है। फ्रैंडशिप डे के मौके पर जानिए ऐसे ही कुछ राजनेताओं की दोस्ती के किस्से जो सियासी गलियारों आज भी सुने और सुनाए जाते हैं।
अटल-नरसिम्हा
अटल बिहारी वाजपेयी और नरसिम्हा राव दोनों की दोस्ती बहुत पक्की थी। दोनों ही नेताओं के दोस्ती के किस्से सियासत की गलियों में काफी सुने जाते हैं। दोनों ही अलग पार्टी से थे और दोनों नेताओं की विचारधारा भी अलग थी। फिर भी दोनों नेता एक दूसरे की मदद लेने से या एक दूसरे की तारीफ करने से नहीं झिझकते थे।
नरसिम्हा राव का अधूरा काम पूरा किया
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का एक अधूरा काम था, जो अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरा किया था। बात साल 1996 की है, कांग्रेस चुनावों में हार चुकी थी और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी। नरसिम्हा राव इस बात से खुश थे कि प्रधानमंत्री वाजपेयी जी बने हैं। जब शपथ समारोह शुरु हुआ था तो नरसिम्हा राव वाजपेयी जी के पास आये और कहा कि “अब मेरे अधूरे काम को पूरा करने का समय है”। ये अधुरा काम था परमाणु परीक्षण का। जो प्रधानमंत्री रहते राव पूरा नहीं कर सके थे। जब दोस्त को अपनी कुर्सी संभालते देखा तो ये उम्मीद भी बंधी की अधुरा काम वही परा करेंगे। अटलजी भी परमाणु परीक्षण कराकर दोस्ती की कसौटी पर खरे उतरे। 2004 में नरसिम्हा राव के अंतिम संस्कार के दो दिन बाद, वाजपेयी अपने पुराने दोस्त को श्रद्धांजली देने पहुंचे। इस कार्यक्रम में उन्होंने अपने दोस्त को परमाणु कार्यक्रम का "true father" कहा था। वाजपेयी ने आगे कहा कि प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद मई 1996 में, ‘राव ने मुझे बताया था कि बम तैयार है। मैंने बस इसे आगे बढ़ाते हुए इसका विस्फोट किया।‘
पाकिस्तान को दो दोस्तों ने मिलकर हराया
यह बात है 27 फरवरी 1994 की जब पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC) के जरिए प्रस्ताव रखा था। उसने अपनी चाल खेलते हुए कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत की निंदा की। नरसिम्हा राव सरकार पर संकट के बादल गहराये हुए थे। भारत के सामने परेशानी यह थी कि अगर यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत को UNSC के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता।
नरसिम्हा राव उस समय कई तरफ से चुनौतियों का सामना कर रहे थे। तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव ने इस मसले को खुद अपने हाथों में लिया और जिनेवा में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए सावधानीपूर्वक एक टीम बनाई। कहते है कि संकट के समय हमें हमेशा अपने दोस्तों की याद आती है और नरसिम्हा को याद आयी अपने अटल की। उन्होंने तुरंत एक प्रतिनिधिमंडल बनाया, जिसमें उन्होंने वाजपेयी के अलावा तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, ई. अहमद, नैशनल कॉन्फ्रेंस प्रमुख फारूक अब्दुल्ला और हामिद अंसारी को शामिल किया। वाजपेयी जी उस समय विपक्ष के नेता थे और उन्हें इस टीम में शामिल करना मामुली बात नहीं थी।
इसके बाद नरसिम्हा राव और वाजपेयी ने उदार इस्लामिक देशों से संपर्क शुरू किया। राव और वाजपेयी ने ही OIC के प्रभावशाली 6 सदस्य देशों और अन्य पश्चिमी देशों के राजदूतों को नई दिल्ली बुलाने का प्रबंध किया। दूसरी तरफ, अटल बिहारी वाजपेयी ने जिनेवा में भारतीय मूल के व्यापारी हिंदूजा बंधुओं को तेहरान से बातचीत के लिए तैयार किया। वाजपेयी इसमें सफल हुए।
प्रस्ताव पर मतदान वाले दिन जिन देशों के पाकिस्तान के समर्थन में रहने की उम्मीद थी उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच लिए। इंडोनेशिया और लीबिया ने OIC द्वारा पारित प्रस्ताव से खुद को अलग कर लिया। सीरिया ने भी यह कहकर पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली कि वह इसके रिवाइज्ड ड्राफ्ट पर गौर करेगा। 9 मार्च 1994 को ईरान ने सलाह-मशवरे के बाद संशोधित प्रस्ताव पास करने की मांग की। चीन ने भी भारत का साथ दिया। अपने दो महत्पूर्ण समर्थकों चीन और ईरान को खोने के बाद पाकिस्तान ने शाम 5 बजे प्रस्ताव वापस ले लिया और भारत की जीत हुई।
संजय गांधी-कमलनाथ
कमलनाथ का राजनीतिक सफर जब भी लिखा जायेगा, तब उसमें एक नाम जरूर आयेगा और वो नाम संजय गांधी का है। संजय गांधी और कमलनाथ की दोस्ती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक दौर में यह नारा काफी मशहूर था- इंदिरा के दो हाथ, संजय और कमलनाथ। कमलनाथ को इंदिरा अपना तीसरा बेटा मानती थीं। कमलनाथ दून स्कूल के दिनों से ही संजय के बेहद करीब थे।
वो घटना जिसके बाद संजय के और करीब आये कमलनाथ
इमरजेंसी के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने संजय गांधी को गिरफ्तार कर लिया था। संजय को दिल्ली के तिहाड़ जेल में रखा गया था, लेकिन इंदिरा को जेल में उनकी सुरक्षा की चिंता सताने लगी। कमलनाथ को जब इंदिरा के डर का पता चला तो उन्होंने एक नायाब तरीका निकाला। कोर्ट में जब मामले की सुनवाई चल रही थी तब कमलनाथ ने कागज का गोला बनाकर जज के ऊपर फेंक दिया। इस अपराध में उन्हें भी जेल भेज दिया गया। कमलनाथ और इंदिरा यही चाहते भी थे। इसके बाद से ही कमलनाथ, इंदिरा गांधी के सबसे विश्वासपात्रों में शामिल हो गए।
जयललिता-शशिकला
तमिलनाडु की पूर्व सीएम जयललिता और शशिकला की दोस्ती का किस्सा काफी दिलचस्प है। तत्कालीन सीएम एमजी रामचंद्रन के करीबी आईएएस अधिकारी चंद्रलेखा जयललिता और शशिकला की दोस्ती का जरिया बनीं। उस वक्त शशिकला के पति नटराजन चंद्रलेखा के सहयोगी थे। उन्होंने ही चंद्रलेखा से कह कर दोनों की मुलाकात करवाई। दरअसल शशिकला सीएम की करीबी नेता जयललिता का वीडियो शूट करा चाहती थीं। वीडियो शूटिंग के सिलसिले में हुई पहली मुलाकात दोनों की पक्की दोस्ती में बदल गई।
वर्ष 1988 में शशिकला परिवार को लेकर जयललिता के घर आ गयीं और उनके साथ रहने लगीं। धीरे-धीरे शशिकला विश्वासपात्र बनती गयीं। पार्टी से जुड़े फैसलों में भी शशिकला की भूमिका बढ़ती गयी। पार्टी से निष्कासन और नियुक्ति जैसे कार्य शशिकला के ही जिम्मे थे। जानकारों का कहना है कि जयललिता की संपत्ति की देख-रेख की जिम्मेदारी शशिकला और उनके पति नटराजन के हाथों में ही थी।
सचिन-ज्योतिरादित्य
सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ने ही अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस से की थी। दोनो ही कांग्रेस में युवा नेता के तौर पर जाने जाते थे। सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ही काफी अच्छे दोस्त हैं। सचिन पायलट ने हाल ही में सिंधिया से ये दोस्ती निभायी भी। अभी मध्यप्रदेश में हुए उपचुनाव में सचिन पायलट ने सिंधिया के गढ़ ग्वालियर-चंबल में दनादन 9 सभाएं कीं लेकिन उन्होंने एक भी सभा में सिंधिया के खिलाफ कुछ भी नहीं बोला। जब मीडिया ने उनसे सवाल किया, तो उन्होंने कहा कि वे अपनी पार्टी का काम करने आए हैं। वहीं सिंधिया ने कहा कि वे अपना काम कर रहे हैं और कांग्रेस अपना। सचिन पायलट सिंधिया के खिलाफ नहीं बोल रहे थे। इसके पीछे का कारण केवल एक ही था कि सचिन पायलट ने राजनीति से ऊपर दोस्ती को रखा। सिंधिया के बीजेपी में आने के बाद सचिन के भी कांग्रेस छोड़ने के कयास लगते रहे हैं।
नुसरत-मिमी
नुसरत जहां और मिमी चक्रवती दोनो बंगाल फिल्म इंडस्ट्री से हैं। दोनों ही युवा सांसद हैं और काफी मॉडर्न भी हैं। दोनों बंगाल फिल्म इंडस्ट्री की शान तो हैं ही राजनीति में दोनों एक साथ ही आईं। संयोग ये है कि दोनों ने एक साथ ही, एक ही पार्टी (टीएमसी) से लोकसभा चुनाव जीता। पहली जीत के बाद जब दोनों एक साथ संसद पहुंची तो सबकी नजरें उन्हीं पर टिकी हुई थीं। साड़ी और सूट की परंपरा वाली संसद में दोनों जींस टॉप में पहुंची थीं। तकरीबन एक जैसे लिबास और एक जैसे अंदाज वाली इन नेताओं की ट्रोलिंग भी हुई। इसके बाद नुसरत जहां अक्सर अपनी शादी, अपने मजहब को लेकर ट्रोल होती रहीं हैं। और मिमी अक्सर उनके बचाव के लिए आगे आती रही हैं।