निजाम के उस्मानिस्तान के सपने को पटेल ने कुचला

जयंती विशेष निजाम के उस्मानिस्तान के सपने को पटेल ने कुचला

Bhaskar Hindi
Update: 2022-10-29 11:31 GMT
निजाम के उस्मानिस्तान के सपने को पटेल ने कुचला

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। कई बड़ी रियासतें इस दुविधा में थीं कि अस्तित्व में आ रहीं दोनों डोमिनियनों में से किसी एक में उन्हें शामिल होना है या अलग रहना है। इनमें प्रमुख रूप से रूप से भोपाल के नवाब, चैंबर ऑफ प्रिंसेस के चांसलर, हैदराबाद के निजाम, कश्मीर के महाराजा और त्रावणकोर के महाराजा शामिल थे।

सामंती राजकुमार नए डोमिनियन में शामिल होने के बजाय अपने स्वतंत्र असितत्व के बारे में सोच रहे थे। कश्मीर में हरि सिंह ने डोगरिस्तान के बारे में व हैदराबाद में निजाम ने उस्मानिस्तान के बारे में सोचा। त्रावणकोर के महाराजा ने अंग्रेजों से सीधे बातचीत की कोशिश की। लेकिन नेहरू, सरदार पटेल और वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन चाहते थे कि उन्हें कोई छूट न दी जाए। इनमें सबसे अमीर निजाम को अंग्रेजों ने महामहिम की उपाधि दी थी। विडंबना यह है कि हिंदू राजा हरि सिंह ने मुस्लिम बहुमत की और मुस्लिम राजा निजाम ने हिंदू बहुमत का प्रतिनिधित्व किया।

अपने सपनों की दुनिया में रह रहे हैदराबाद के निजाम ने दोनों डोमिनियनों से हैदराबाद की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए 9 जुलाई, 1947 को एक बार फिर वायसराय को अपने पक्ष में मनाने की कोशिश की। इस संबंध में उन्होंने माउंटबेटन को एक भावनात्मक पत्र लिखा।

निजाम ने महसूस किया कि भारतीय स्वतंत्रता विधेयक के खंड 7 ने उन्हें और अन्य बड़े राज्यों को लाभ मिला है। वह अंग्रेजों के रुख से निराश थे। वे अटल इरादों वाले पटेल की सोच का अनुमान नहीं लगा पाए, जो उन्हें स्वतंत्र होने की इजाजत नहीं दे सकते थे।

निजाम ने वायसराय को जो पत्र भेजा, उसमें लिखा था कि मैंने भारतीय स्वतंत्रता विधेयक के खंड सात को देखा है। मुझे इससे निराशा हुई। इस पर भारतीय नेताओं के साथ तो चर्चा की गई, लेकिन मेरे राज्य के प्रतिनिधियों के साथ कोई बातचीत नहीं की गई।

निजाम ने लिखा कि मैं यह देखकर व्यथित था कि इस खंड में न केवल ब्रिटिश सरकार द्वारा संधियों का एकतरफा खंडन शामिल है, बल्कि इसमें यह भी उल्लेख है कि जब तक मैं दोनों डोमीनियनों में से किसी एक में शामिल नहीं हो जाता तब तक मेरा राज्य ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का हिस्सा भी नहीं बनेगा।

पत्र में आगे जिक्र किया कि जिन संधियों द्वारा ब्रिटिश सरकार ने बाहरी आक्रमण और आंतरिक अव्यवस्था के खिलाफ मेरे राज्य को सुरक्षा की गारंटी दी थी, विधेयक के खंड 7 में उसे नजरअंदाज किया गया।

16 जुलाई, 1947 को बर्मा व भारत के राज्य सचिव अर्ल ऑफ लिस्टोवेल ने भारतीय स्वतंत्रता विधेयक को पढ़ा था। इसी में विवादास्पद खंड 7 निहित था।

खंड 7 का उपखंड (1) का प्रावधान भारतीय राज्यों के साथ संबंधों से संबंधित हैं। कैबिनेट मिशन ने 12 मई, 1946 के अपने ज्ञापन में राज्यों को सूचित किया था कि महामहिम की सरकार किसी भी परिस्थिति में नहीं होगी। सत्ता का स्थानांतरण भारत सरकार को होगा। इस संकल्प का हम दृढ़ता से पालन करते हैं। लेकिन वह समय तेजी से आ रहा है, जब दो डोमिनियन सरकारों को सत्ता का हस्तांतरण, हमारे लिए उन राज्यों के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करना असंभव बना देगा, जो भारत सरकार के लिए ग्रेट ब्रिटेन की जिम्मेदारी है।

इसलिए हम प्रस्ताव कर रहे हैं कि जिस तारीख से नए डोमिनियन स्थापित किए जाएंगे, वे संधियां और समझौते, जो हमें राज्यों पर आधिपत्य प्रदान करते हैं, शून्य हो जाएंगे।

उस क्षण से क्राउन प्रतिनिधि और उसके अधिकारियों की नियुक्तियां और कार्य समाप्त हो जाएंगे और राज्य अपने भाग्य के खुद स्वामी होंगे। वे यह चुनने के लिए स्वतंत्र होंगे कि उन्हें किसी डोमिनियन में शामिल होना है या अलग रहना है। लेकिन मुझे लगता है कि दोनों डोमिनियनों में से किसी एक में शामिल होना राज्यों के हित में होगा। यह राज्य भारत के साथ नहीं जुड़ते हैं, तो एक त्रासदी ही होगी।

नए डोमिनियन और राज्यों के बीच समायोजन को लेकर गहन विचार और चर्चा की आवश्यकता होगी। इसलिए हम अंतरिम सरकार द्वारा राज्यों के साथ वार्ता का स्वागत करते हैं। लेकिन इस वार्ता की सफलता दोनों पक्षों की सद्भावना पर निर्भर है।

सरदार पटेल का यह आश्वासन कि कांग्रेस की इच्छा राज्यों के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप करने की नहीं है, एक स्वागत योग्य संकेत है कि कांग्रेस अपने शासकों पर अनुचित दबाव डालने के लिए अपनी राजनीतिक ताकत का उपयोग नहीं करेगी। सरदार पटेल का यह कथन कि संघीय सरकार का अधिकार मात्र रक्षा, विदेशी मामलों और संचार तक सीमित होगा। उनके इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि भारत का डोमिनियन ईमानदारी से राज्यों की स्वायत्तता का सम्मान करेगा। जिन्ना ने भी कहा है कि पाकिस्तान सरकार राज्यों की इच्छा का समर्थन करेगी।

माउंटबेटन को लिखे पत्र में निजाम ने कहा कि महामहिम जानते हैं कि जब आप इंग्लैंड में थे, तो मैंने पूछा था कि जब अंग्रेज भारत छोड़ेंगे तो मेरे राज्य को डोमिनियन का दर्जा दिया जाना चाहिए। मैंने हमेशा महसूस किया कि एक सदी से अधिक समय तक ईमानदार सहयोगी रहे हमारे राज्य को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य होना चाहिए। लेकिन विधेयक का खंड 7 मुझे इससे भी इनकार करता प्रतीत होता है। मुझे अब भी उम्मीद है कि मेरे और महामहिम की सरकार के साथ सीधे संबंधों के बीच किसी को भी हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

निजाम ने लिखा कि मुझे आशा है कि मेरे राज्य और ब्रिटिश क्राउन के बीच एक घनिष्ठ संबंध बना रहेगा। लेकिन मैं यह महसूस कर रहा हूं कि ब्रिटिश सरकार अब हमारे उपेक्षा कर रही है।

मुझे आशा है कि महामहिम मेरे पत्र को एचएमजी (महामहिम की सरकार) के समक्ष रखेंगे। मैं फिलहाल इसे प्रकाशित करने से परहेज करूंगा। लेकिन मुझे इसे प्रकाशित करने का अपना अधिकार बरकरार रखना चाहिए।

न तो वायसराय न ही ब्रिटेन में वापस आई लेबर सरकार ने हैदराबाद के लिए कोई सहानुभूति दिखाई। उन्हें यह बताया गया था कि एचएमजी (महामहिम की सरकार) कभी भी डोमिनियन सरकार को स्वीकार नहीं करेगी।

इस मामले पर माउंटबेटन की त्वरित प्रतिक्रिया थी कि हैदराबाद को भी अन्य रियासतों की भांति अधिकार प्रदान किए जाएंगे। लेकिन निजाम के सलाहकारों ने उन्हे इसे स्वीकार न करने की सलाह दी। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने को अपनी सेना का गठन शुरू किया। उनको विश्वास था कि उनका घनिष्ठ सहयोगी ब्रिटेन उनके बचाव में आएगा।

ब्रिटिश शासन अंत होने पर हैदराबाद स्वतंत्र रहा, लेकिन जैसे ही उनका प्रभाव कम होने लगा पटेल और मेनन ने निजाम पर धावा बोल दिया। जब तक माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल रहे, तब तक निजाम की माउंटबेटन के साथ बातचीत का सिलसिला जारी रहा।

माउंटबेटन के भारत से चले जाने के दो दिन बाद निजाम ने संकेत दिया कि वह माउंटबेटन योजना के रूप में जानी जाने वाली व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार है। सरदार पटेल ने जवाब दिया कि अब बहुत देर हो चुकी है, माउंटबेटन योजना घर के लिए रवाना हो गई है। इसके तुरंत बाद पुलिस कार्रवाई में तेजी आई और भारतीय सेना हैदराबाद में घुस कर उस पर कब्जा कर लिया।

लियोनार्ड मोस्ले ने डाउनफॉल ऑफ द एम्पायर - द लास्ट डेज ऑफ द ब्रिटिश राज में लिखा है, एक रियासत के रूप में उनका दिन खत्म हो गया था। कुछ ही हफ्तों में भारत उन्हें अपने में शामिल कर लिया। रियासत को हथियाने की प्रक्रिया भारत के रणनीतिकारों की ओर से एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी, क्योंकि यह लगभग रक्तहीन था।

यह निजाम के लिए बहुत बड़ा झटका था, जो मानते थे कि क्राउन प्रतिनिधि लॉर्ड माउंटबेटन हर कीमत पर उनके हितों की रक्षा करेंगे।

 

 (आईएएनएस)

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