पंचायत चुनाव, विश्वविद्यालय के कुलपतियों पर विवाद के बाद ममता और राज्यपाल में तकरार बढ़ी
डिजिटल डेस्क, कोलकाता। काफी समय से ममता और राज्यपाल के बीच रार बढ़ती जा रही है। पश्चिम बंगाल में राजभवन और राज्य सचिवालय के बीच विवाद पिछले हफ्ते काफी बढ़ गया। दोनों के बीच खींचतान में दो मुद्दों में से पहला ग्रामीण निकाय चुनावों को लेकर जारी झड़पें और हिंसा हैं, जहां राज्यपाल ने पीड़ितों और उनके परिवारों के साथ बातचीत करने के लिए जिलों का दौरा किया। राज्य सरकार और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व ने तीखी आलोचना के साथ इसका विरोध किया। दूसरा मुद्दा विभिन्न राज्य संचालित विश्वविद्यालयों के प्रशासन पर राज्यपाल सीवी आनंद बोस द्वारा लिए गए फैसलों और दिए गए निर्देशों से संबंधित है, जिसे राज्य सरकार और सत्तारूढ़ सरकार ने राज्यपाल के संवैधानिक अधिकार से परे की कार्रवाई बताया।
चाहे वह राजभवन परिसर के भीतर एक "शांति कक्ष" खोलने का राज्यपाल का निर्णय हो, जहां झड़पों और हिंसा के पीड़ित सीधे कॉल कर सकते है या अपनी शिकायत दर्ज करा सकते है। बोस का हिंसा स्थलों पर पहुंचना और वहां पीड़ितों से सीधे बातचीत करना, सत्तारूढ़ व्यवस्था को रास नहीं आ रहा। तृणमूल कांग्रेस के राज्य प्रवक्ता कुणाल घोष और पार्टी विधायक मदन मित्रा इन मुद्दों पर राज्यपाल के खिलाफ विशेष रूप से मुखर रहे। मित्रा ने राज्यपाल को सलाह दी कि वे पंचायत चुनाव खत्म होने के बाद कोलकाता से अपना वापसी टिकट बुक करें। घोष ने एक कदम आगे बढ़ते हुए राज्यपाल पर उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक प्रकाशित करने में राजभवन के धन का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया। घोष ने राज्यपाल को 'पश्चिम बंगाल में विपक्षी दलों का चेयरमैन' भी बताया है।
राज्य विश्वविद्यालयों के प्रशासन के मुद्दे पर 11 राज्य विश्वविद्यालयों के लिए अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति, शिक्षाविदों, छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए समानांतर पुरस्कारों की घोषणा और छात्र कुलपतियों के लिए प्रावधान शुरू करने के राज्यपाल के फैसलों ने राजभवन और राज्य सचिवालय के बीच संबंघ और बिगाड़ दिए हैं। राज्य के शिक्षा मंत्री ब्रत्य बसु इस मुद्दे पर राज्यपाल के मुख्य आलोचक रहे हैं। बसु के अनुसार, राज्यपाल शुरू से ही अपनी मनमर्जी से काम करते रहे हैं और ऐसे निर्णय लेने से पहले उन्होंने राज्य सरकार या शिक्षा विभाग से कोई चर्चा नहीं की। कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील कौशिक गुप्ता के मुताबिक, गवर्नर हाउस में "शांति कक्ष" का उद्घाटन कानूनी और प्रशासनिक दृष्टिकोण से बिल्कुल सही था।
गुप्ता ने कहा, "जैसा कि मुझे विभिन्न मीडिया रिपोर्टों से पता चला कि "शांति कक्ष" में प्राप्त शिकायतों को राजभवन द्वारा कार्रवाई के लिए सीधे पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग के कार्यालय में भेजा जा रहा है। इसके माध्यम से राज्यपाल ने अपनी बात स्थापित की है कि राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में वह चुनाव संबंधी हिंसा के बारे में चिंतित हैं, कोई स्वत: संज्ञान कार्रवाई करने के बजाय वह इसे सक्षम प्राधिकारी को भेज रहे हैं, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। इस तरह के संवैधानिक रूप से स्मार्ट कदम ने राज्य सरकार या सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक बचाव के अलावा किसी प्रशासनिक या कानूनी जवाबी कार्रवाई के बिना छोड़ दिया है।"
इसी तरह, उन्होंने कहा कि राज्य विश्वविद्यालयों में अंतरिम कुलपतियों की नियुक्ति के मामले में, इन कुलपतियों को वेतन, भत्ते और अन्य वित्तीय अधिकारों के भुगतान को रोकने का आदेश देने की राज्य सरकार की जवाबी कार्रवाई की अदालत ने निंदा की है। उन्होंने कहा, "न्यायमूर्ति शिवगणनम की खंडपीठ ने न केवल ऐसी नियुक्तियों पर राज्यपाल के फैसले को बरकरार रखा है, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से कहा है कि इन कुलपतियों के वेतन, भत्ते और अन्य वित्तीय अधिकारों के भुगतान का खर्च वहन करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।"
कॉलमनिस्ट आरएन सिन्हा ने कहा कि राज्यपाल अपने पद के आधार पर सभी राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होते हैं और इसी पद के आधार पर उन्होंने अंतरिम कुलपतियों की यह नियुक्ति की है। पश्चिम बंगाल में राजभवन-राज्य सचिवालय झगड़ा कोई नई बात नहीं है। पिछले वाम मोर्चा शासन के दौरान, जब तत्कालीन राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी नंदीग्राम में पुलिस गोलीबारी और हिंसा को लेकर वाम मोर्चा शासन से अनबन कर रहे थे, तब तृणमूल कांग्रेस इसका आनंद ले रही थी। वर्तमान संदर्भ में जब तृणमूल कांग्रेस सत्ता में है, तो विपक्षी दल मनोरंजन करने वाले पर्यवेक्षक हैं।
(आईएएनएस)
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