संवैधानिक अधिकार: आजीवन कारावास से जुड़ी याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत हुआ सुको
- आजीवन कारावास से जुड़ी याचिका पर सुनवाई
- आजीवन कारावास का मतलब
- सजा से छूट देना एक वैधानिक अधिकार
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उस याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमत हो गया जिसमें यह बताने का अनुरोध किया गया है कि क्या ‘आजीवन कारावास’ का मतलब पूरे जीवन के लिए होगा या इसे क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 432 के तहत प्राप्त शक्तियों द्वारा कम या माफ किया जा सकता है? सीआरपीसी की धारा 432 सजा को निलंबित करने या कम करने की शक्ति से संबंधित है। जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर चंद्रकांत झा द्वारा दायर पिटीशन पर जवाब मांगा। झा हत्या के तीन मामलों में दोषी ठहराए जाने के बाद आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा है। झा ने अपनी याचिका में कहा कि उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 201 (अपराध के सबूतों को गायब करना) के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है।
याचिका में कहा गया है, इस अदालत के समक्ष उठाया गया मुख्य मुद्दा यह है कि क्या ‘आजीवन कारावास’ का मतलब पूरे जीवन तक होगा या इसे सीआरपीसी की धारा 432 के तहत छूट की शक्तियों के माध्यम से कम या माफ किया जा सकता है।’
आपको बता दें दिल्ली हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट से मिली उसकी मौत की सजा को कम करते हुए उसे आजीवन कारावास में बदल दिया था। याचिका में कहा गया है, यहां यह उल्लेख करना उचित है कि आईपीसी की धारा 302 में स्पष्ट रूप से दो दंडों का उल्लेख किया गया है, एक है मौत की सजा और दूसरा है आजीवन कारावास। इसमें इन दोनों के अलावा किसी अन्य सजा का जिक्र नहीं है।
याचिका में कहा गया है कि यदि आजीवन कारावास का मतलब अपनी अंतिम सांस तक कैद में रहना होता है तो यह दोषी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। याचिका में कहा गया है कि हत्या के अपराध के लिए अंतिम सांस तक कारावास की सजा देना असंवैधानिक है क्योंकि यह किसी दोषी व्यक्ति के सुधार का मौका पूरी तरह से छीन लेता है और इससे राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित छूट नीति और नियमों का उल्लंघन होता है।
सरकारी न्यूज एजेंसी भाषा के अनुसार रिट पिटीशन में कहा गया है, यहां यह उल्लेख करना भी उचित है कि सीआरपीसी की धारा 432 के तहत किसी व्यक्ति को सजा से छूट देना एक वैधानिक अधिकार है। इसमें कहा गया कि हाईकोर्ट की ओर से याचिकाकर्ता को दी गई सजा पूरी तरह से उचित नहीं है।