आजादी के 71 साल बाद भी इस गांव के लोग खुद को मानते हैं गुलाम
आजादी के 71 साल बाद भी इस गांव के लोग खुद को मानते हैं गुलाम
- इस गांव की पूरी जमीन को अंग्रेजी हुकूमत ने नीलाम कर दिया था। सरकारी रिकॉर्ड में आज भी ग्रामीणों को उनकी जमीन नहीं मिली है।
- स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस पर आज तक रोहनात गांव में तिरंगा नहीं फहराया गया।
- हरियाणा का एक गांव ऐसा भी है जो अब तक अपने आप को गुलाम मानता है।
डिजिटल डेस्क, भिवानी। देश को आजाद हुए 71 साल हो चुके हैं, लेकिन हरियाणा का एक गांव ऐसा भी है जो अब तक अपने आप को गुलाम मानता है। यही वजह है कि इस गांव में स्वतंत्रता या गणतंत्र दिवस पर आज तक तिरंगा नहीं फहराया गया। हालांकि हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर ने पहली बार आजादी के बाद 23 मार्च 2018 को शहीद दिवस के दिन तिरंगा फहराया था।
इस गांव के लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जमकर भाग लिया था। इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के सामने कभी घुटने नहीं टेके और शहीद हो गए। बावजूद इसके ये गांव सालों से सरकार की उपेक्षा का शिकार बना हुआ है। इस गांव की पूरी जमीन को अंग्रेजी हुकूमत ने नीलाम कर दिया था। सरकारी रिकॉर्ड में आज भी ग्रामीणों को उनकी जमीन नहीं मिली है। इसीलिए ग्रामीण आज भी खुद को गुलाम समझते हैं।
जलियांवाला बाग जैसा नरसंहार
हरियाणा के इस गांव का नाम है रोहनात। इस गांव की आबादी 4200 के करीब है। अंग्रेजों ने रोहनात गांव में भी जलियांवाला बाग जैसा नरसंहार किया था। दरअसल, यहां के लोगों को 1857 के क्रांति में भाग लेने की खौफनाक सजा दी गई थी। ग्रामीणों के अनुसार हांसी में अंग्रेज़ों की छावनी होती थी। वर्ष 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी हिसार- हांसी भी पहुंची थी। देश को आजाद करवाने की ज्वाला दिल में लेकर 29 मई 1857 को मंगल खां के विरोध का साथ देते हुए रोहनात के निवासी स्वामी बरण दास बैरागी, रूपा खाती व नौंदा जाट सहित हिंदू व मुस्लिम एकत्रित होकर हांसी पहुंचे। गांव रोहनात के अलावा आसपास के गांवों के ग्रामीणों ने भी अंग्रेजों पर हमला बोल दिया, जिसमें हांसी व हिसार के दर्जन-दर्जन भर अंग्रेजी अफसर मारे गए। यहां के क्रांतिकारी वीरों ने जेल में बंद कैदियों को रिहा करवा दिया और तत्कालीन अंग्रेजी सल्तनत के खजाने भी लूटे। जब अंग्रेज आला अधिकारियों को इस बात की सूचना मिली तो विरोध की इस चिंगारी को दबाने के लिए एक प्लाटून को जरनल कोर्ट लैंड की अगुवाई में हांसी भेजा।
रोहनात गांव को नीलामी की भी सजा मिली थी। ग्रामीणों द्वारा की गई मुखालफत अंग्रेजों को फूटी आंख नहीं सुहाई और उन्होंने रोहनात को बागी गांव घोषित कर दिया। हिसार के तत्कालीन अंग्रेजी अधिकारी ने तत्कालीन क्षेत्र के तहसीलदार से गांव की सारी ज़मीन का रिकॉर्ड तलब किया और 20 अप्रैल 1858 को गांव की जमीन को नीलाम कर दिया, जिसके तहत 20,656 बीघे, 19 बीसवे ज़मीन की नीलामी की गई। अन्य गांवों के लोगों ने नीलामी के दौरान गांव की पूरी जमीन को 61 खरीददारों ने 8100 रुपए में खरीदा।
कुल पूंजी का चौथाई हिस्सा यानि दो हज़ार 25 रुपये उसी वक्त जमा करवाया गया। शेष राशि 6075 रुपए बाद में जमा करवाते ही अंग्रेज़ों ने खरीददारों को कब्ज़ा दिला दिया और ग्रामीणों को बागी करार दे दिया। नीलामी के दौरान 13 बीघे जमीन को छोड़ दिया गया, जहां पर यह तालाब, कुंआ और बरगद के पेड़ हैं। गांव के सरपंच प्रतिनिधि रविंद्र बूरा ने कहा कि नीलामी के कुछ सालों बाद ग्रामीणों ने मेहनत के दम पर आस-पास की जमीन खरीद ली। लेकिन आज भी सरकारी रिकॉर्ड में रोहनात के साथ उन गांवों के नाम भी जुड़े हैं, जिन्होंने नीलामी में उसे खरीदा था। सरकारी रिकॉर्ड में दिक्कत के कारण विकास कार्य भी प्रभावित हो रहे हैं।
इतना ही नहीं अंग्रेजों का विरोध करने वाले ग्रामीणों को अंग्रेज़ अपने साथ हांसी ले गए, जहां पर उनके शरीर के ऊपर से रोड रोलर फेर दिया, जिससे यह सड़क खून से लथपथ होकर लाल हो गई और वर्तमान में भी यह सड़क लाल सड़क के नाम से जानी जाती है। हांसी की लाल सड़क रोहनात व आसपास के ग्रामीणों के बलिदान की निशानी है, यह सड़क आज भी मौजूद है। गांव के लोगों की आंखें उस मंजर को याद कर छलछला उठती हैं। दर्द ये है कि जिस गांव ने देश के लिए इतना कुछ किया उस गांव के लिए सरकारों ने कुछ भी नहीं किया। गांव के हर उम्र तबके के लोगों का कुछ ऐसा ही कहना था।
अंग्रेजों ने गांव पुठी मंगल क्षेत्र में तोपें लगवाकर रोहनात पर हमला बोला। गांव रोहनात के सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। गांव के बिरड़ दास बैरागी को तोप पर बांध कर उनके शरीर को चीथड़ों की तरह उड़ा दिया। अपनी आबरू बचाने के लिए गांव की कई महिलाएं गांव के एक कुंए में कूद गई। वहीं कई नौजवानों को पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई। जिस कुएं में ये महिलाएं कूदी थीं और जिस बरगद के पेड़ पर गांव के नौजवानों को फांसी पर लटकाया गया था, वो कुआं और बरगद का पेड़ आज भी अंग्रेजों के दिए दर्द के गवाह के रूप में मौजूद हैं।