विलुप्त समुद्री बिच्छू के जीवाश्म मिले, 50 करोड़ वर्ष पहले विंध्य में था समंदर!

सतना विलुप्त समुद्री बिच्छू के जीवाश्म मिले, 50 करोड़ वर्ष पहले विंध्य में था समंदर!

Bhaskar Hindi
Update: 2022-05-30 12:11 GMT
विलुप्त समुद्री बिच्छू के जीवाश्म मिले, 50 करोड़ वर्ष पहले विंध्य में था समंदर!

डिजिटल डेस्क, सतना। यह आश्र्चयजनक  किंतु सत्य तथ्य है कि अब से तकरीबन 50 करोड़ वर्ष पूर्व रीवा-पन्ना के पठार पर स्थित विंध्य के सतना-रीवा क्षेत्र में समंदर ठाठें मारा करता था। इसी अथाह समुद्री जल में यूरीप्टेरिड (समुद्री बिच्छू) विचरण किया करते थे। एपीएस यूनिवर्सिटी रीवा के भू विज्ञान के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डा.डीपी दुबे के साथ मिलकर उनके दो सहयोगी छात्रों डा.प्रवीण तिवारी तथा डा.अरुण त्रिपाठी ने समुद्री बिच्छू के जीवाश्म (फॉसिल्स) खोज निकाले हैं। डा.दुबे के दावे के मुताबिक रीवा-सतना जिलों के संधिस्थल पर स्थित वनकुइयां के लाइम स्टोन में यूरीप्टेरिड की जीवाश्म की महत्वपूर्ण खोज इंडियन स्ट्रेटीग्राफिक में बड़े बदलाव की संभावना भी है। उन्होंने कहा कि संभवत: देश  में अपने किस्म की यह पहली खोज है। उल्लेखनीय है, रीवा-सतना के भूगर्भ में बहुतायत में लाइम स्टोन का भंडार मौजूद है।  
४० वर्ष पहले मिले थे संकेत :--
डा.दुबे के मुताबिक यूरीप्टेरिड के जीवाश्म पूर्णतया परिरक्षित हैं। हालांकि चूने के जमाव के कारण इनकी मोटाई और भार बढ़ गया है। जीवाश्मों का कार्बनीकरण हुआ है । सिलिका का भी प्रभाव है। भू विज्ञान के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डा. दुबे वर्ष १९७६ से रीवा क्षेत्र के लाइम स्टोन पर काम कर रहे हैं। वर्ष १९८२ में उन्होंने सर्वप्रथम अपने रिसर्च पेपर में लाइम स्टोन के भंडार में यूरीप्टेरिड के जीवाश्मों की संभावना जताई थी। अर्सा बाद उन्होंने अपने दो छात्रों की मदद से एक बार फिर से उन क्षेत्रों को अध्ययन प्रारंभ किया जहां उन्हें अस्पष्ट जीवाश्म दिखे थे। विचित्र सी दिखने वाली यही सरंचनाएं खोज का आधार बनीं। ये सरंचनाएं चूना पत्थर  की कास्र्ट संरचनाओं से भिन्न थीं। इन पत्थरों के स्लेब सावधानी से तोडऩे पर  कार्बनीकृत यूरीप्टेरिड के जीवाश्म मिले।  एक ही संस्तर में एक से अधिक जीवाश्म एक दूसरे से गुथे हुए थे।    
७ फुट लंबे हैं फॉसिल्स:- 
वनकुइयां की खोज में 2.23 मीटर(लगभग 7 फुट 4 इंच ) लंबे जीवाश्म मिले हैं। कुछ इनसे छोटे हैं। डा.दुबे के अनुमान के मुताबिक ज्यादा लंबे जीवाश्म अभी भी परतों में दबे हैं। शोधकर्ताओं की राय में जीवाश्मों पर अन्य शैलों की तुलना में चूना पत्थर की रासायनिक क्रियाओं का प्रभाव ज्यादा पड़ता है। इन जीवाश्मों पर भी इसका असर है। यूरीप्टेरिड आर्थोपोडा समुदाय के मीरोस्टोमेटा वर्ग में आता है। 
वर्तमान बिच्छू भी इसी आर्थोपोडा समुदाय के हैं, पर वर्ग अरकनिडा है। केकड़ा भी इसी वर्ग का वंशज है। बिच्छू की तरह यूरोप्टेरिड के शरीर और उपांग खंडित होते थे। इसीलिए इसे समुद्री बिच्छू की संज्ञा दी गई। पूर्णतया विलुप्त समुद्री बिच्छू विशालकाय अकेशेरूकी(बिना रीढ़ वाले) समुद्री जल जीव थे। इनके कुछ प्रकार ८ फीट से भी लंबे होते थे। 
अचानक विलुप्त होने का अनुमान:-- 
भू वैज्ञानिक समय पैमाने पर पुराजीवी  महाकल्प(पेलियोजोइक इरा) के मध्य आर्डोविसियनकाल(46.7 करोड़ वर्ष) की शैलों में यूरीप्टेरिड के खंडित जीवाश्म मिलते हैं, लेकिन सिल्युरियन (४४.४ करोड़ से ४१.९ करोड़ वर्ष) तथा डिवोनियनकाल (41.9  से 35.9 करोड वर्ष)की शैलों में इनके पूर्णत: परिरक्षित जीवाश्म मिले हैं। डा. दुबे मुताबिक पर्मियनकाल के अंत तक(25.1 करोड़ वर्ष) प्राप्त जीवाश्मों के आधार पर ये विशालकाय आर्थोपोडा पूर्णत: अचानक विलुप्त हुए होंगे। संभवत: वातावरण में आक्सीजन की कमी और समुद्री क्षेत्र के पूर्ण निर्गमन इनके विलुप्त होने की वजह रही होगी। 
महत्वपूर्ण  क्यों है खोज:----
एपीएसयू के भू विज्ञान के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डा.डीपी दुबे की राय में भू वैज्ञानिक , संस्तर शैल विज्ञान तथा जीवाश्म विज्ञान की दृष्टि से इस शोध की सफलता अत्यंत महत्वपूर्ण है।  इससे 4000 मीटर मोटाई के विन्ध्य वृहद समूह की ऊपरी आयु सीमा के निर्धारण में भी सहायता मिलेगी। यह अध्ययन विकासवादी जीवविज्ञान(इवोल्युशनरी बायोलॉजी) की दृष्टि से भी अहम हो सकता है। इन जीवाश्मों के अन्य आर्थिक पहलुओं का अध्ययन भी आवश्यक है। लाइम स्टोन में प्राचीन आस्ट्रोकोडर्म मछलियों के जीवाश्म मिलने की भी प्रबल संभावना है। यूरीप्टेरिड के जीवाश्मों के मद्देनजर विंध्य क्षेत्र भारत का एक विशिष्ट भाग है। इसे इसे यूरीप्टेरिडपार्क के रुप में भी संरक्षित किया जा सकता है।
 

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