पलाश की पत्तियों से किसानों ने सेंके बैलों के कंधे - पोला पर्व होता है खास

पलाश की पत्तियों से किसानों ने सेंके बैलों के कंधे - पोला पर्व होता है खास

Bhaskar Hindi
Update: 2019-08-30 10:27 GMT
पलाश की पत्तियों से किसानों ने सेंके बैलों के कंधे - पोला पर्व होता है खास

डिजिटल डेस्क, नागपुर। भारतीय संस्कृति में हर त्यौहार की अपनी एक विशेष परंपरा रही है। पोले के त्याहौर का महाराष्ट्र में विशेष महत्व होने के साथ ही इस त्यौहार के एक दिन पूर्व  खेतों में सालभर काम करने वाले बैलों को आराम देते हुए उनकी खातिरदारी की गई। साथ ही शाम के समय पलाश की पत्तियों से बैलों का पूजन कर पोले के दिन बैलों की देखभाल करने वाले व्यक्ति (गड़ी) सहित भोजन का आमंत्रण दिया गया। किसानों के इस बड़े त्यौहार पर बैलों के साथ ही उनको संभालने वाले अथवा किसानों के यहां बैलों की देखभाल करने वाले व्यक्ति का विशेष महत्व होता है। इस त्यौहार पर उस व्यक्ति के लिए भी नए कपड़े और अन्य सामग्री खरीदी जाती है।

परंपरा के अनुसार ग्रामीण इलाकों में पोले से एक दिन पूर्व बैलों को दोपहर के समय नदी, तालाब अथवा घर में ही नहलाया जाता है। इस दिन बैलों से किसी भी प्रकार का काम नहीं करवाया जाता है।  इससे सालभर अपनी गर्दन पर जू ढोने से वह हिस्सा कड़क अथवा उसमें जख्म हो तो वह ठीक हो जाता है। मक्खन व हल्दी का लेप लगाने के बाद परंपरा के अनुसार पलाश के पत्तियों से बैलों का पूजन किया जाता है। साथ ही मराठी में "आज आवतन घ्या, उद्या जेवायला या अर्थात आज आमंत्रण लिजिए और कल भोजन पर पधारिए। यह आमंत्रण बैलों के साथ ही उनकी देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी दिया जाता है।

परंपरा के अनुसार पोले के दूसरे दिन छोटे बच्चों का पोला होता है, जो कि महाराष्ट्र में "तान्हा पोल" कहलाता है। इसमें छोटे बच्चे हाथों से बनाए हुए लकड़ी अथवा मिट्टी के बैल लेकर पोले में पहुंचते हैं। इसके पीछे वजह यह है कि किसानों के बच्चों में बैलों को लेकर सम्मान व उनका महत्व समझाने की मंशा होती है।  

कुछ जगहों पर मखर प्रथा

ग्रामीण इलाकों में कुछ जगह पर मखर प्रथा अब भी दिखाई देती है। पोले के समय श्रृंगार किए गए गांव के मुखिया के बैल के सींग पर लकड़ी का एक पारंपरिक ढांचा रखकर उस पर दोनों ओर छोटी-छोटी मशाल (टेंभे) जलाई जाती है। यह प्रथा अब लु्प्त होती जा रही है।  विशेष बात यह है कि जिस बैल के सिर पर ढांचा रखा जाता है, वह बैल खरीदा हुआ नहीं होने के साथ ही उसे बेचा भी नहीं जा सकता। साथ ही जिस घर में वह बैल पैदा हुआ है, वह आखरी दम तक उसी घर में रहता है और उसी बैल के सींग पर मखर रखने की प्रथा है। जब तक वह बैल जिंदा है, यह सम्मान दूसरे बैल को नहीं दिया जाता। इसके पीछे मान्यता यह है कि गांव पर आने वाली विपदा को यह बैल अपने ऊपर ले लेते हैं।

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