कर्नाटक विजय के साथ बढ़ा खड़गे का राजनीतिक कद, अपनी चतुर योजनाओं और सियासी दांवपेंच से भाजपा को किया चारों खाने चित
वर्षों पुरानी अवधारणा को बदला
डिजिटल डेस्क, बेंगलुरु। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बंपर जीत के बाद जिस शख्स का कद सबसे ज्यादा मजबूत हुआ है वह हैं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे। पिछले साल अक्टूबर में पार्टी की कमान संभालने के बाद अपने गृहराज्य कर्नाटक में विधानसभा चुनाव जीतना उनके लिए बड़ी अग्निपरीक्षा थी, जिसमें वह पास हुए हैं। आइए जानते हैं कि किस तरह खड़गे ने अपनी सियासी पैंतरेबाजी से जहां एक तरफ बीजेपी को करारी पटखनी दी वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर बनी वर्षों पुरानी अवधारणा को तोड़ा।
अपने पहले इम्तिहान में सफल रहे खड़गे
कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने के बाद कर्नाटक चुनाव उनका पहला इम्तिहान था। हालांकि उनके अध्यक्ष बनने के बाद गुजरात और हिमाचल में भी चुनाव हुए थे जिनमें हिमाचल में पार्टी को जीत जबकि गुजरात में हार मिली थी। हालांकि इन जीत और हार का क्रेडिट खड़गे को नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह चुनाव उनके अध्यक्ष बनने के कुछ ही समय बाद हुए थे। उनकी असली परीक्षा कर्नाटक चुनाव था, वह इसलिए क्योंकि कर्नाटक उनका गृहराज्य है। अगर पार्टी यहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती तो अध्यक्ष के रूप में खड़गे की साख को बड़ा नुकसान पहुंचता। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत से खड़गे ने अपनी पहली और बड़ी परीक्षा पास कर ली है।
जीत के सबसे बड़े शिल्पकार
कर्नाटक के क्षेत्रीय नेताओं से लेकर राष्ट्रीय नेताओं का भी मानना है कि कर्नाटक विजय के सबसे बड़े शिल्पकार मल्लिकार्जुन खड़गे ही रहे हैं। जिस तरह से वह इस चुनाव में सक्रीय रहे उसे देखकर ऐसा लगता था कि सारा दारोमदार उन्हीं के कंधों पर है। उन्होंने राज्य के लगभग हर हिस्से का दौरा किया। दो दर्जन से ज्यादा रैलियां की, रोडशो किए। साथ ही खड़गे ने चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी में उठे बागी स्वरों को एकजुट रखा। खासतौर पर राज्य में पार्टी के दो खेमे सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के खेमे को एकजुट रखने का काम महत्वपूर्ण कार्य खड़गे ने किया। 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती से राज्य में आए खड़गे वोटिंग होने तक कर्नाटक में ही रहे। इस दौरान वह चुनाव की रणनीति बनाने व प्रचार करने में दिन-रात लगे रहे। यह उनकी चुनावी सूझबूझ और कुशल नेतृत्व ही था कि टिकट बंटवारे को लेकर जिस कांग्रेस पार्टी में चुनाव के पहले तक खींचतान मची रहती थी उसने चुनाव से 45 दिन पहले अपने प्रत्याशियों की पहली लिस्ट जारी कर दी थी।
इसके अलावा उन्होंने गृहराज्य का होने के चलते भरपूर इमोशनल कार्ड भी खेला। अपने एक रैली में खड़गे ने कहा, ‘मैं अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से कहना चाहता हूं कि मैं कर्नाटक और कलबुर्गाी का भूमिपुत्र हूं। आपको जो अधिकार गुजरात में प्राप्त है, वह मुझे यहां है और मुझे वह मिलना चाहिए। आपने मेरे घर के लिए कुछ नहीं किया है, लेकिन मैं अपने क्षेत्र के लिए काम करने के बाद मांगने आया हूं। आपने वोट पाने के लिए यहां क्या किया है?’
उन्होंने कहा, ‘कलबुर्गी के लोगों का आशीर्वाद है कि वह संसद में हैं, विधानसभा में रहे और विपक्ष के नेता सहित विभिन्न पदों पर काम करने का मौका मिला। हालांकि, खड़गे लोकसभा चुनाव में हार गए थे, लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें राज्यसभा भेजा और विपक्ष का नेता बनाया था। इस सबसे ऊपर वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) के अध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा, ‘यह गुलबर्गा (कलबुर्गी) के लोगों के लिए, राज्य की जनता के लिए गर्व का क्षण है, मेरे लिए नहीं।’ खड़गे की इन बातों ने लोगों को दिल छू लिया, उन्होंने कांग्रेस को भारी मात्रा में मतदान किया।
उन्होंने नरेंद्र मोदी पर हमला करने और वोटों को बंटोरने के लिए दलित और उदार टैग का भरपूर इस्तेमाल किया। जब मोदी पर उनके जहरीली सांप वाले बयान को बीजेपी ने मुद्दा बनाया तो खड़गे ने बड़ी चालाकी से इसका जवाब दिया। उन्होंने अपने इस बयान को दलित समाज से जोड़ते हुए कहा कि, 'मेरा इरादा किसी को भावना को आहत करने का नहीं था। मैं बड़े पदों पर बैठे लोगों की तरह व्यक्तियों और उनकी तकलीफों का मजाक उड़ाता, क्योंकि मैंने गरीबों व दलितों का दुख दर्द देखा और सहा भी है। पांच दशकों से बीजेपी और आरएसएस की विभाजनकारी विचारधारा से, उनके नेताओं से मेरा विरोध जरूर रहा है।'
उनके इस बयान के बाद यह मुद्दा वोटरों को उतना प्रभावित नहीं कर पाया, जितनी बीजेपी को उम्मीद थी। उल्टा उनके इस बयान में दलित समुदाय का जिक्र होने के चलते दलित वोटरों पर इसका सकारात्मक असर पड़ा। हालांकि खड़गे हमेशा सीधे तौर पर दलित कार्ड खेलने से बचते रहे हैं। पर पार्टी ने इसे जरूर भुनाया है। दरअसल, दलित समुदाय से आने वाले खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर पहुंचने वाले बाबू जगजीवनराम के बाद दूसरे नेता हैं। पार्टी ने आंतरिक स्तर पर इसे भरपूर भुनाया है। पूरे चुनाव प्रचार में यह भी प्रचार किया गया कि किस तरह देश की सबसे पुरानी पार्टी ने दलित समुदाय से आने वाले नेता को अध्यक्ष बनाया है।
वर्षों पुरानी अवधारणा को बदला
देश की सबसे पुरानी पार्टी में मुखिया का पद संभालने के लिए एक परेप्शन या अवधारणा की लड़ाई को जीतना होता है। वह अवधारणा यह है कि कांग्रेस में अध्यक्ष कोई भी रहे लेकिन रिमोट कंट्रोल तो गांधी परिवार के हाथ में रहता है। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। उन्हें भी अपने 10 साल के प्रधानमंत्री कार्यकाल में इस अवधारणा की लड़ाई का सामना करना पड़ा था। जब से खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं तब से ही बीजेपी भी उन पर यही आरोप लगाती रही थी। बीजेपी द्वारा हाल ही में यह कई बार कहा गया है कि खड़गे तो मात्र स्टांप हैं असली निर्णय तो गांधी परिवार का ही होता है। कर्नाटक में जीत के साथ ही खड़गे ने इस अवधारणा की लड़ाई में जरूर जीत हासिल की है। क्योंकि उन्होंने कांग्रेस पार्टी के दशकों पुराने उस रिवाज को बदला जिसके अंतर्गत उम्मीदवारों का चयन चुनाव से कुछ ही दिन पहले होता था। कर्नाटक चुनाव में खड़गे ने 45 दिन पहले ही चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर दी। उनके इस निर्णय का पार्टी के चुनावी प्रदर्शन पर सकारात्मक असर पड़ा। इस तरह कर्नाटक में कांग्रेस की जीत ने बतौर राजनेता उनके कद में बड़ा इजाफा किया है। उनके उन आलोचकों को भी इस जीत से करारा जवाब मिला है जो उन पर गांधी परिवार के वर्चस्व का आरोप लगाते थे।