राजनीतिक शब्दावली: बहुमत, हंग एसेंबली, जमानत जब्त- क्या हैं ऐसे चुनावी शब्दों के मायने, मतगणना से पहले आसान भाषा में समझिए दस शब्दों का अर्थ
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डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। अक्सर आपने चुनाव रिजल्ट के वक्त बहुमत, त्रिकोणीय मुकाबला, हंग एसेंबली, जमानत जब्त, जमानत राशि आदि जैसे नाम सुने होंगे, जो हर चुनाव के समय बड़े जोर शोर से उठते रहें हैं। इन तमाम शब्दों का मतलब कई लोगों को समझ में नहीं आते हैं कि आखिर ये होते क्या हैं? इतना ही नहीं जिन लोगों को पता होता है वो भी कई बार कन्फ्यूज हो जाते हैं। तो चलिए ऐसे 10 शब्दों का मतलब बताते हैं जो चुनाव या चुनाव के रिजल्ट के समय बड़े जोरशोर से उठते रहते हैं।
पहला शब्द - जमानत राशि
चुनावी मैदान में खड़ा होने से पहले प्रत्याशी नामांकन यानी पर्चा भरते हैं। इस पर्चे में एक तय रकम जमा करनी होती है। जिसे जमानत राशि कहते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि, पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक, हर चुनाव की जमानत राशि अलग-अलग होती है। चुनाव आयोग समय-समय पर इसे तय करता है। जमानत राशि जमा कराने के पीछे चुनाव आयोग का उद्देश्य नॉन सीरियस उम्मीदवारों को रोकना होता है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस मामले में ईसी कामयाब नहीं हो पाई है। साल 1952 में हुए पहले आम चुनाव में 40% उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई थी। वहीं 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 86% हो गया।
दूसरा शब्द - जमानत जब्त
जब कोई प्रत्याशी अपने निर्वाचन क्षेत्र में पड़े कुल वोटों की संख्या में से 1/6 से कम मत लाता है तो उसकी जमानत राशि चुनाव आयोग वापस नहीं करता है। जिसे जमानत जब्त कहते हैं। उदाहरण के तौर पर समझिए, मान लीजिए बिहार की राजधानी पटना सीट पर कुल वोटर्स की संख्या 1 लाख है। ऐसे में अगर जिस- जिस प्रत्याशी के 16,666 से कम वोट मिलते हैं तो उनकी जमानत राशि ईसी जब्त कर लेगी। हालांकि, जमानत राशि जब्त होने के बाद भी प्रत्याशी की राशी लौटाने के कुछ प्रावधान हैं जो इस प्रकार हैं
- अगर प्रत्याशी को उसके निर्वाचन क्षेत्र में पड़े कुल मतों की संख्या में से 1/6 ज्यादा वोट मिल जाएं। भले ही वो चुनाव हार जाए।
- किसी उम्मीदवार को 1/6 से कम वोट मिले हों, लेकिन वह चुनाव जीत गया हो।
- मतदान से पहले प्रत्याशी की मौत हो जाती है तो उसके कानूनी वारिस को जमानत की राशि लौटा दी जाती है।
- प्रत्याशी का नामांकन रद्द होने या उम्मीदवार की ओर से तय समय के भीतर नाम वापस लेने पर। (उम्मीदवार को कुल वोटों के 1/6 के ठीक बराबर भी वोट मिलने पर भी जमानत राशि जब्त हो जाती है।)
तीसरा शब्द- बहुमत
- विधानसभा चुनाव या लोकसभा चुनाव में जब किसी विशेष पार्टी को सदन की कुल सीटों में से आधी पर विजय हासिल हो जाती है तो उसे बहुमत हासिल करना कहते हैं। उदाहरण के तौर पर बिहार को लेकर समझते हैं- बिहार में कुल विधानसभा सीटों की संख्या 243 है। लेकिन मान लीजिए चुनाव के समय 5 सीटों पर किसी न किसी उम्मीदवार की मौत हो जाती है जिसकी वजह से इन पांच सीटों पर चुनाव फिलहाल के लिए रोक दिए जाएंगे और ईसी बाद में समय को देखते हुए पुनह मतदान कराने की घोषणा करेगी।
- यानी 238 प्रत्याशी विधायक बनकर विधानसभा में जाएंगे। इसके बाद बिहार के राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी या सबसे बड़ा गठबंधन के आधार पर उसके नेता को सरकार बनाने का न्योता देंगे। राज्यपाल नेता से एक तय समय में विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने को कहेंगे।
- सबसे बड़ी पार्टी के नेता मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर सदन में विश्वास मत हासिल करने के लिए प्रस्ताव रखेंगे। जिसको विश्वास प्रस्ताव के नाम से जानते हैं। बिहार के उदाहरण से मान लेते हैं कि विश्वास मत वाले दिन सभी विधायक सदन में मौजूद रहते हैं और वोटिंग प्रक्रिया में भाग लेते हैं। ऐसे समय में सीएम पद की शपथ लेने वाले नेता को 50%+1 के फार्मूले के तहत 238 विधायकों का बहुमत हासिल करने के लिए 119+1 यानी 220 विधायकों के सपोर्ट की जरूरत होगी। यही बहुमत का आंकड़ा होगा।
- अब तीसरी परिस्थिति की कल्पना करते हैं। बिहार में कुल 243 सीटों में से 238 सीटों पर चुनाव हुए और इनमें से दो विधायक ऐन वक्त पर किसी वजह से विश्वास मत वाले दिन विधानसभा में मौजूद नहीं हुए। ऐसे में मौजूद विधायकों की संख्या 236 हो जाएगी। इस परिस्थिति में बहुमत का आंकड़ा 118+1, यानी 119 होगा।
चौथा शब्द- हंग असेंबली
- जब किसी एक पार्टी या गठबंधन को किसी चुनाव में बहुमत के आंकड़े के बराबर या उससे ज्यादा सीटें नहीं मिलती हैं तो ऐसे हालात को Hung Assembly या हिंदी में त्रिशंकु विधानसभा कहते हैं। इसे सही तरीके से समझने के लिए उत्तर के राज्य पंजाब को लेते हैं, जहां मौजूदा समय में विधानसभा की सीटें 117 हैं और बहुमत के लिए 59 सीटों की जरूरत होंगी।
- पंजाब में चार पार्टियां पूरी तरह एक्टिव हैं। जो कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल हैं। ऐसे में अगर चारों पार्टियां चुनावी मैदान में उतरती हैं और बहुमत के आकंड़े को छू नहीं पाती हैं तो उस स्थिति को त्रिशंकु विधानसभा के नाम से जानते हैं। ऐसे परिस्थिति में प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी गठबंधन बनाने का प्रयास करती है ताकि प्रदेश में राष्ट्रपति लगने से पहले सरकार बन जाए।
- अगर काफी कोशिशों या तय समय के बाद भी सरकार का गठन नहीं होता है तो राज्यपाल, राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं। इसका उदाहरण साल 2019 में हुए महाराष्ट्र का चुनाव है। यहां कुल 288 विधानसभा सीटों पर भाजपा और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा मगर बाद में दोनों में सीएम पद को लेकर रार छिड़ गई। भाजपा ने 105 सीटें, शिवसेना ने 56, NCP ने 54 और कांग्रेस ने 44 सीट जीती थीं। किसी एक पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और विधानसभा त्रिशंकु हो गई। लेकिन, बाद में शिवसेना ने NCP और कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य में सरकार बना ली थी। हालांकि, फिर शिवसेना और एनसीपी में दो फाड़ हो जाने के बाद प्रदेश में मौजूदा समय में बीजेपी, शिंदे वाली शिवसेना और अजित पवार वाली एनसीपी की सरकार चल रही है।
पांचवां शब्द- गठबंधन
- जब दो या दो से अधिक पार्टियां आपस में सियासी रूप से हाथ मिला लेती हैं तो उसे गठबंधन कहते हैं। मोटा-मोटी देंखे तो ये दो तरह के होते हैं। पहला चुनाव से पहले और दूसरा चुनाव के बाद।
- 2019 में महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा मिलकर चुनाव लड़े थे, लेकिन नतीजे आने के बाद सीएम पद की खींचतान में दोनों की राहें अलग हो गई थी। अगर दोनों मिलकर सरकार बना लेते तो उसे चुनाव पूर्व हुए गठबंधन की सरकार कहते।
- इससे उलट, सरकार तो शिवसेना ने NCP और कांग्रेस के साथ मिलकर बनाई थी। ऐसे में इसे चुनाव बाद हुए गठबंधन की सरकार कहेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, चुनाव से पहले हुए गठबंधन को अच्छा माना जाता है,क्योंकि गठबंधन की सभी नीतियों को जानकर ही लोगों ने उन्हें मतदान किया। जबकि चुनाव के बाद गठबंधन को आमतौर पर मौकापरस्ती माना जाता है।
छठवां शब्द- विश्वास प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव
- सरकार सदन में विश्वास मत के जरिए यह साबित करती है कि उसके पास सत्ता में रहने के लिए आधे से ज्यादा सांसद या विधायक मौजूद हैं। जबकि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष यह साबित करने की कोशिश करता है कि सरकार के पास बहुमत नहीं है। सरल भाषा में समझें तो सरकार विश्वास प्रस्ताव लाती है और विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाता है।
- इसे हम बिहार के उदाहरण से समझते हैं। बिहार की विधानसभा में कुल 243 सीट हैं। अगर सभी सीटों पर चुनाव हुआ और विश्वास मत के दिन सभी 243 विधायक मौजूद होते हैं तो ऐसे में जिस भी पार्टी के पास आधे से ज्यादा यानी 122 विधायकों का समर्थन होगा, वह बहुमत हासिल करेगा।
- इससे उलट अगर विपक्षी पार्टियां दावा करती हैं कि सरकार के पास सदन में पूरा समर्थन नहीं, तो वो सदन में अविश्वास प्रस्ताव ला सकती है। अगर अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो CM को इस्तीफा देना पड़ता है।
पहली बार अविश्वास प्रस्ताव साल 1963 में आया
पहली बार अविश्वास प्रस्ताव साल 1963 में आया था। साल 1963 मे जेबी कृपलानी ने तत्कालिन पीएम जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सदन में रखा था। जिसके पक्ष में 62 और विरोध में 347 वोट पड़े थे और इस तरह देश का पहला अविश्वास प्रस्ताव पास नहीं हो पाया था।
सातवां शब्द- एग्जिट पोल ( वोट देकर निकले हुए मतदाता से ली गई राय)
- आम लोग जब वोट डालने के बाद मतदान केंद्र से बाहर आते हैं तो कुछ एजेंसियां उन लोगों के बीच जाकर सर्वे करती हैं और पता लगाने की कोशिश करती हैं कि व्यक्ति विशेष ने किस पार्टी को अपना मत दिया है। लोगों की दी गई राय के आधार पर गुणा-भाग करके पता लगाया जाता है कि इस बार किसके सिर पर जीत का सेहरा सजेगा। इसे ही एग्जिट पोल के नाम से जानते हैं। मतदान प्रक्रिया समाप्त होने के बाद ही इसके आंकड़े जारी किए जाते हैं।
- भारत में एग्जिट पोल का चलन साल 1960 के दशक के आखिरी साल से शुरू हुआ, जो निरंतर चल रहा है। सबसे पहले एग्जिट पोल और पोल सर्वें का विकास दिल्ली के CSDS यानी सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने शुरू किया था। हालांकि, देश का पहला गंभीर एग्जिट पोल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में हुआ था।
- इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा चुनाव के दौरान हुए एग्जिट पोल बड़ा ही सटीक साबित हुआ था। उस समय के युवा अर्थशास्त्री, राजनीतिक विश्लेषक और सेफोलॉजिस्ट प्रणय रॉय ने ऑक्सफोर्ड राजनीतिक वैज्ञानिक डेविड बटलर के साथ अनुमान लगाया था कि कांग्रेस को 400 सीटें मिलेंगी और कांग्रेस ने आम चुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 404 सीटें जीत ली थीं।
आठवां शब्द- प्रोटेम स्पीकर
- प्रोटेम लैटिन शब्द प्रो टैम्पोर से बना है। इसका अर्थ 'कुछ समय के लिए' होता है। प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति प्रदेश का गवर्नर करता है। इसकी नियुक्ति तब तक के लिए होती है जब तक विधानसभा को स्थायी रूप से अपना स्पीकर न मिल जाए। प्रोटेम स्पीकर ही नए विधायकों को शपथ दिलाता है। आमतौर पर सदन के सबसे सीनियर सदस्य को ही प्रोटेम स्पीकर के लिए चयन किया जाता है।
- संविधान के अनुच्छेद 180 (1) के तहत किसी भी राज्य के राज्यपाल को विधानसभा स्पीकर की कुर्सी खाली होने पर प्रोटेम स्पीकर नियुक्त करने की शक्ति है। लेकिन संविधान में प्रोटेम स्पीकर की शक्ति, उसके काम और जिम्मेदारियों को लेकर साफतौर पर कुछ कहा नहीं गया है।
कई बार टूट चुके हैं नियम
- साल 2019 में जब महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी थे तब उन्होंने बीजेपी विधायक कालिदास कोलंबकर को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त कर दिया था।
- अगर नियम की मानें तो कोश्यारी को कांग्रेस विधायक बालासाहेब थोराट को प्रोटेम स्पीकर बनाना चाहिए था क्योंकि वो 8वीं बार सदन में चुन कर पहुंचे हैं।
- इस घटनाक्रम से पहले लोकसभा में नियम को ताक पर रखा जा चुका है। सबसे सीनियर सांसद मेनका गांधी को छोड़ कर बीजेपी ने पार्टी सांसद वीरेंद्र कुमार को लोकसभा का प्रोटेम स्पीकर बना दिया था।
- कुछ ऐसी ही घटना दक्षिण के राज्य कर्नाटक में भी हो घट चुकी है। साल 2018 के सियासी उठापटक के बीच में प्रदेश के राज्यपाल रहे वाजुभाई वाला ने भाजपा विधायक केजी बोपैय्या को प्रोटेम स्पीकर के पद पर नियुक्त कर दिया, जबकि कांग्रेस विधायक आरवी देशपांडे सबसे सीनियर विधायक थे।
- 2017 में गोवा, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में भी सबसे सीनियर विधायक को किनारे कर उनकी जगह भाजपा के जूनियर विधायकों को प्रोटेम स्पीकर बनाया जा चुका है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, प्रोटेम स्पीकर की परंपरा टूट चुकी है। सियासत दान अपने-अपने हिसाब से काम करते हैं।
नवां शब्द- स्पीकर
- सदन की कार्यवाही को चलाने वाले शख्स को स्पीकर कहते हैं। सदन की कार्यवाही को संचालित करने के लिए वरिष्ठ सदस्य को स्पीकर के लिए चुना जाता है। इसके लिए ध्वनिमत से सदस्यों की सहमति जरूरी होती है। जब स्पीकर मौजूद नहीं रहता है तो सदन की कार्यवाही उपाध्यक्ष संचालन करता है। अधिकांश सरकार बनाने वाली पार्टी से ही लोकसभा और विधानसभा में स्पीकर होते हैं।
- सदन चलाने के अलावा स्पीकर के पास कई अहम जिम्मेदारियां होती हैं। कब किस मुद्दे या कानून पर चर्चा होगी? कौन कितने समय बोलेगा? कौन बिल किसी कैटेगरी में आएगा? यानी कोई बिल मनी बिल है या साधारण बिल यह भी स्पीकर तय करता है।
दसवां शब्द- राज्यपाल
- संविधान के अनुच्छेद 155 के मुताबिक, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती हैं। लेकिन यह नियुक्ति पूरी तरह केंद्र सरकार की सलाह पर ही की जाती है। प्रधानमंत्री की इजाजत पर ही राज्यपाल अपने पद पर बने रह सकते हैं। यह पद किसी भी राज्य का सबसे बड़ा संवैधानिक पद होता है। गवर्नर केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। कह सकते हैं कि राज्यपाल की दोहरी भूमिका होती है।
- जैसे संसद के तीन अंग राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा होते हैं। वैसे ही राज्य के सदन के भी 2 या तीन हिस्से होते हैं यानी जिस राज्य में विधान परिषद होगी वहां पर यह संख्या तीन होगी- राज्यपाल, विधानसभा और विधानपरिषद। जबकि जिन राज्यों में विधान परिषद नहीं होगी वहां ये संख्या 2 होगी, पहला राज्यपाल और दूसरा विधानसभा।
- विधानसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी को राज्यपाल सबसे पहले सरकार बनाने का न्योता देते हैं। जबकि, चुनावी नतीजों में दो पार्टियों के बराबर सीटें आती हैं तो इस कड़ी में राज्यपाल अहम भूमिका अदा करते हैं। ऐसी स्थिति में गवर्नर दो प्रमुख आधार पर सरकार बनाने का न्योता देते हैं।
- पहला, सबसे बड़ी पार्टी को और दूसरा- किसी गठबंधन को तब न्योता मिलता जब राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर यह मानते हों कि गठबंधन के पास सरकार बनाने के लिए पूरा विधायकों का समर्थन है। इसके लिए वे विधायकों के समर्थन पत्रों के साथ राजभवन में उनकी परेड भी लगवाते हैं।