आखिर क्यों मोदी से दोस्ती तोड़ रहे हैं नायडू, क्या हैं इसके मायने?
आखिर क्यों मोदी से दोस्ती तोड़ रहे हैं नायडू, क्या हैं इसके मायने?
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। तेलगु देशम पार्टी (TDP) के चीफ और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने अब नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस यानी NDA से अलग होने का फैसला ले लिया है। वैसे बीजेपी और TDP के बीच पिछले कुछ दिनों से रिश्ते ठीक नहीं चल रहे थे, लेकिन अब नायडू ने मोदी सरकार से अलग होने का मूड बना लिया है। दरअसल, नायडू कई दफा मोदी सरकार से आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करते रहे हैं, बावजूद सरकार ने नायडू की ये मांग मानने से इनकार कर दिया है। चुनावी साल से ठीक एक साल पहले मोदी सरकार को एक के बाद एक झटकों से साफ हो गया है कि 2019 में बीजेपी की राह उतनी आसान नहीं होगी, जितनी 2014 में थी। अब TDP के बाहर होने से लोकसभा में NDA की ताकत थोड़ी तो कमजोर होगी, लेकिन लोकसभा में इसका ज्यादा नुकसान होगा।
TDP के हटने से लोकसभा में क्या होगी स्थिति?
लोकसभा में 273 सांसद बीजेपी के पास हैं। जबकि उसके सहयोगी दल शिवसेना के 18, लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के 6, अकाली दल के 4, RLSP के 3, जनता दल यूनाइटेड (JDU) के 2, अपना दल के 2, PDP और NPP के 1-1 सांसद हैं। तेलगु देशम पार्टी के पास लोकसभा में 16 और राज्यसभा में 6 सांसद हैं। इस तरह से उसके पास कुल 22 सांसद हैं। अब TDP के बाहर होने से NDA के पास 326 में से 310 सांसदों ही रहेंगे।
राज्यसभा में होगी बीजेपी को परेशानी
नायडू के मोदी सरकार से अलग होने से लोकसभा में तो केंद्र सरकार को कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन राज्यसभा में उसे पहले से ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ेगा। सरकार को बिल पास कराने में राज्यसभा में वैसे ही मुश्किल होती है और अब TDP के जाने से सरकार की परेशानी और ज्यादा बढ़ जाएगी। अभी राज्यसभा में NDA के 83 सांसद हैं, जिसमें से TDP के 6 सांसद अलग होने से अब उसके पास सिर्फ 77 सांसद ही रह जाएंगे। जबकि विपक्ष और मजबूत हो जाएगा।
आंध्र प्रदेश में बीजेपी को क्या होगी दिक्कत?
चंद्रबाबू नायडू के अलग होने से बीजेपी को आंध्र प्रदेश में भी काफी दिक्कतें होंगी। आंध्र में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और उसके पहले लोकसभा चुनाव। यहां पर 25 लोकसभा सीटें आती हैं और 2014 में बीजेपी ने यहां से सिर्फ 2 सीटें ही जीती थीं। नायडू ने भी चुनावों को देखते ही NDA से अलग होने का फैसला लिया है। अब TDP ने मोदी सरकार पर वादाखिलाफी करने का आरोप लगाया है, जिसका खामियाजा सीधे तौर पर बीजेपी को ही होगा। नायडू के अलावा YSR कांग्रेस और कांग्रेस भी मोदी सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इससे मोदी सरकार के लिए आंध्र की जनता को ये समझा पाना कि आखिर क्यों विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता? आसान नहीं होगा और न ही बीजेपी के पास राज्य में कोई ऐसा बड़ा नेता है जो ये समझा सके।
नायडू क्यों उठा रहे हैं विशेष राज्य का मुद्दा?
चंद्रबाबू नायडू अब तेजी से आंध्र को विशेष राज्य का मुद्दा दो कारणों से उठा रहे हैं। पहला कारण तो अगले साल होने वाले लोकसभा और विधानसभा चुनाव हैं और दूसरा कारण अपने विरोधियों को पीछे छोड़ना। दरअसल, नायडू इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग YSR कांग्रेस भी बराबरी से कर रही है। अब नायडू इस मुद्दे को उठाकर और NDA से अलग होकर ये संदेश देना चाहते हैं कि वो आंध्र की जनता के साथ खड़े हुए हैं। इसके अलावा अगले साल विधानसभा चुनावों में ये मुद्दा और तेजी पकड़ेगा। ऐसे में अभी से इस मुद्दे को उठाकर नायडू दूसरी पार्टियों से आने निकलने की कोशिश कर रहे हैं। नायडू इस मुद्दे को भी उठाएंगे कि वो तो आंध्र की भलाई में खड़े थे, लेकिन मोदी सरकार ने उनका साथ नहीं दिया। इससे राज्य में बीजेपी कमजोर और TDP मजबूत होगी।
नायडू की मांग के आगे क्यों नहीं झुकी सरकार?
जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, तो चंद्रबाबू नायडू उसका हिस्सा थे। वाजपेयी सरकार में 24 पार्टियों का गठबंधन था और वो उसी भरोसे चल रही थी। ऐसे में वाजपेयी के सामने सबको खुश रखने की दिक्कत सबसे बड़ी थी। मगर अब हालात कुछ और हैं। मोदी सरकार बहुमत में है और वो अपने अकेले के दम पर सरकार चला सकती है। यही कारण है कि नायडू की धमकियों के बाद भी मोदी सरकार झुकी नहीं। हालांकि मोदी सरकार ये भी अच्छी तरह जानती है कि बिना नायडू के आंध्र में राजनीति करना उतना आसान नहीं है और इसके कई नुकसान भी होने हैं। लिहाजा केंद्र सरकार ने साफ कहा कि वो आंध्र प्रदेश की आर्थिक सहायता करने के लिए तैयार है, लेकिन उनकी ऐसी मांगों को नहीं माना जा सकता जो नामुमकिन हो। इसके अलावा मोदी सरकार को इस बात का भी अंदेशा है कि अगर आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया जाता है, तो बाकी राज्य भी इसकी मांग करने लगेंगे और फिर ऐसे में सबको संभालना और मुश्किल होगा।
क्या चंद्रबाबू नायडू गलती कर रहे हैं?
इस बात का जवाब तो आगे ही पता चलेगा, लेकिन इतना तय है कि नायडू मोदी-शाह की जोड़ी को वाजपेयी-आडवाणी की तरह समझने की गलती तो कर रहे हैं। नायडू जब NDA-1 का हिस्सा थे, तब भी वो कई बार वाजपेयी सरकार को मुसीबत में डाल देते थे। इतना ही नहीं 2004 में जब वाजपेयी सरकार की हार हुई और आंध्र में भी नायडू चुनाव हार गए, तो उन्होंने इसके लिए बीजेपी के साथ गठबंधन को ही जिम्मेदार ठहराया था। हालांकि अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं और मोदी-शाह की जोड़ी वैसा नहीं सोचती जैसा वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी सोचती थी। वाजपेयी-आडवाणी सोचते थे कि दक्षिण में पैर पसारना है तो क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन करना बहुत जरूरी है, लेकिन अब मोदी-शाह की सोच इससे ठीक उलट है। मोदी-शाह ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन से बीजेपी को नुकसान ही पहुंचता है, लिहाजा बीजेपी अपने दम पर सरकार बनाने की कोशिश में लगी है। इसका ताजा उदाहरण त्रिपुरा में देखने को मिला। त्रिपुरा में बीजेपी ने IPFT से गठबंधन तो किया, लेकिन राज्य में पार्टी के पास अब भी बहुमत हैं। अगर IPFT उससे गठबंधन तोड़ भी लेती है, तो भी बीजेपी सत्ता में बनी रहेगी। लिहाजा बीजेपी खुद गठबंधन की राजनीति से ऊपर उठने की कोशिश में है। इसके अलावा नायडू भी ये बात अच्छी तरह से समझ चुके हैं। इसलिए वो बीजेपी के खिलाफ खड़े हो गए हैं।