लू के कारण स्वास्थ्य, कृषि क्षेत्र पर रहेगा दबाव: रिपोर्ट
नई दिल्ली लू के कारण स्वास्थ्य, कृषि क्षेत्र पर रहेगा दबाव: रिपोर्ट
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत में लू की आवृत्ति, तीव्रता और घातकता बढ़ रही है, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि और अन्य सामाजिक-आर्थिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर बोझ पड़ रहा है। ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय के रामित देबनाथ और उनके सहयोगियों द्वारा पीएलओएस क्लाइमेट में प्रकाशित अध्ययन, लेथल हीट वेव्स आर चैलेंजिंग इंडियाज सस्टेनेबल डेवलपमेंट में यह बात कही गई है। इसमें सुझाव दिया गया है कि लू की आशंका जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ गई हैं। इसकी वजह से सतत विकास लक्ष्यों की दिशा में भारत की प्रगति बाधित हो सकती है। भारत ने गरीबी उन्मूलन, बेहतर स्वास्थ्य एवं आरोग्य और अच्छा काम तथा आर्थिक विकास सहित संयुक्त राष्ट्र के 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के प्रति प्रतिबद्धता जताई है। वर्तमान आकलन से इस बात का पूरी तरह पता नहीं चलता कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी लू एसडीजी की प्रगति को कैसे प्रभावित कर सकती है।
भारत की जलवायु को संभावित खतरे और जलवायु परिवर्तन एसडीजी प्रगति को कैसे प्रभावित कर सकता है, इसके विश्लेषण के लिए शोधकर्ताओं ने भारत के ताप सूचकांक का जलवायु संकट सूचकांक के साथ एक विश्लेषणात्मक मूल्यांकन किया। जलवायु संकट सूचकांक में सामाजिक-आर्थिक, आजीविका और जैव-भौतिक कारकों को शामिल कर इसे एक समग्र सूचकांक बनाया गया है। गंभीरता श्रेणियों को वर्गीकृत करने के लिए उन्होंने केंद्र सरकार के राष्ट्रीय डेटा और विश्लेषण प्लेटफॉर्मो से राज्य स्तरीय जलवायु संकट सूचकांकों के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटा का उपयोग किया है।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने 2001 से 2021 के दौरान एसडीजी में भारत की प्रगति की तुलना मौसम के उग्र रूप (लू, शीतलहर, भारी बारशि आदि) से संबंधित मौतों के साथ की। शोधकर्ताओं ने पाया कि लू ने एसडीजी प्रगति को पहले के अनुमान से कहीं अधिक कमजोर कर दिया है और वर्तमान मूल्यांकन मेट्रिक्स जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति भारत की कमजोरियों का सही अनुमान लगाने में विफल हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, अध्ययन के अनुसार, ताप सूचकांक के आंकलन से पता चलता है कि देश का लगभग 90 प्रतिशत भाग लू के प्रभाव से खतरे में है।
जलवायु संकट सूचकांक के अनुसार, देश का लगभग 20 प्रतिशत भाग जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। इसी तरह के प्रभाव राष्ट्रीय राजधानी के लिए देखे गए थे, जहां लू के प्रभाव के अनुमानों से पता चलता है कि लगभग पूरी दिल्ली को जबरदस्त लू का खतरा है, जो जलवायु परिवर्तन के लिए इसकी हालिया राज्य कार्य योजना में परिलक्षित नहीं होता है। हालाँकि, इस अध्ययन की कई सीमाएँ थीं। उदाहरण के लिए जलवायु संकट सूचकांक डेटा (2019-2020) और ताप सूचकांक डेटा (2022) के लिए असंगत समय सीमा। भविष्य के अध्ययनों में अधिक से अधिक हाल के डेटा को शामिल करना चाहिए। लेखकों के मुताबिक, इस अध्ययन से पता चलता है कि लू जलवायु परिवर्तन के लिए पहले से अनुमानित जलवायु संकट सूचकांक की तुलना में अधिक भारतीय राज्यों को कमजोर बनाती हैं।
भारत और भारतीय उपमहाद्वीप में लू ज्यादा चल रही है और ज्यादा लंबे समय के लिए चल रही है। यह सही समय है कि जलवायु विशेषज्ञ और नीति निमार्ता देश के जलवायु संकट का आकलन करने के लिए मेट्रिक्स का पुनर्मूल्यांकन करें। लेखक कहते हैं: भारत में लू की तीव्रता बढ़ रही है। इससे देश के 80 प्रतिशत लोग खतरे में हैं। देश के वर्तमान जलवायु संकट आकलन में इसके बारे में नहीं सोचा गया है। यदि इसका तुरंत समाधान नहीं किया जाता है तो सतत विकास लक्ष्यों की दिशा में भारत की प्रगति सुस्त पड़ सकती है।
(आईएएनएस)
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