Film Review: जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी राजनीति के गंदे खेल की रियलिस्टिक स्टोरी

  • कलाकार: उर्वशी रौतेला, सिद्धार्थ बोडके, रवि किशन, पीयूष मिश्रा, विजय राज, रश्मि देसाई
  • निर्देशक: विनय शर्मा
  • बैनर: महाकाल मूवीज़ प्राइवेट लिमिटेड
  • प्रोड्यूसर: प्रतिमा दत्ता
  • अवधि: 02 घंटे 30 मिनट
  • रेटिंग : 4 स्टार्स

Bhaskar Hindi
Update: 2024-06-20 07:38 GMT

"अगर जीत भी गए तो कुर्सी ज्यादा दिन तक संभाल नहीं पाएंगे।" इस तरह के संवादों से भरी इस सप्ताह रिलीज हुई फिल्म "जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी" एक पॉलिटिकल ड्रामा है। यूनिवर्सिटी कैम्पस में होने वाली राजनीति को इस पिक्चर में प्रभावी ढंग से निभाया गया है। फ़िल्म की पृष्ठभूमि में कुछ साल पहले दिल्ली की एक यूनिवर्सिटी में हुई कुछ विवादास्पद घटनाएं भी हैं जिनको मीडिया में बहुत सुर्खियां मिली थी ।

फिल्म जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी एक छोटे शहर के रहने वाले सौरभ शर्मा (सिद्धार्थ बोडके) की कहानी है जो इस विश्वविद्यालय का छात्र है। वहाँ वह वामपंथी छात्रों की गतिविधियों से बेचैन हो जाता है जो राष्ट्र-विरोधी हैं और उनके खिलाफ आवाज उठाता है। सौरभ को अखिलेश पाठक उर्फ बाबा (कुंज आनंद) का सहयोग मिलता है जो यूनिवर्सिटी में वामपंथी वर्चस्व का विरोध करने में उसका मार्गदर्शन करते हैं। इस रास्ते पर सौरभ को ऋचा शर्मा (उर्वशी रौतेला) एक सहायक रूप में मिलती है। वामपंथी गिरोह को सौरभ ने कड़ी चुनौती दी, जिससे वे बेचैन हो गए क्योंकि सौरभ ने यूनिवर्सिटी में एक इतिहास रचते हुए चल रहे चुनावों में से एक जीतकर जेएनयू की राजनीति में प्रवेश किया। काउंसलर के पद पर रहते हुए, वह वामपंथियों के राष्ट्र-विरोधी एजेंडे का विरोध करता है और यूनिवर्सिटी के छात्रों के पक्ष में काम का समर्थन करता है; जिससे उसे छात्रों के बीच लोकप्रियता हासिल होती है। बाबा के सपोर्ट से सौरभ उनके सभी राष्ट्र-विरोधी प्रदर्शनों और संस्थान में हो रही सभी गलत गतिविधि का विरोध करता रहता है। 2014 में, सौरभ विश्वविद्यालय के जॉइंट सेक्रेटरी के पद पर हावी वामपंथी पार्टी के खिलाफ चुनाव जीतता है। 2019 में, जब जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में आरुषि घोष के छात्रों की फीस बढ़ाने के फैसले की घोषणा सरकार द्वारा की गई थी, वामपंथी छात्रों द्वारा जबरदस्त विरोध किया गया। फीस में बढ़ोतरी का समर्थन करने वाले छात्रों को बुरी तरह से पीटा गया, जिसमें एबीवीपी के छात्र भी शामिल थे। बाद में, यूनिवर्सिटी में एक रात एबीवीपी के छात्र एकजुट हुए और वामपंथ के खिलाफ कार्रवाई की।

जहां तक अभिनय की बात करें तो किसना कुमार के रोल में अतुल पांडेय और सौरभ शर्मा के चरित्र में सिद्धार्थ बोकडे ने गज़ब की अदाकारी की है। बाबा के रोल को कुंज आनंद ने बखूबी निभाया है। दरअसल यह फ़िल्म ढेर सारे किरदारों से भरी है और सभी एक्टर्स ने अपने हिस्से का काम शानदार ढंग से निभाया है। गुरु जी के रूप में पीयूष मिश्रा ने गहरा असर छोड़ा है। रवि किशन और विजय राज की जोड़ी ने हास्य का रंग भरा है। सायरा के रोल को शिवज्योति राजपूत, नायरा के रोल को जेनिफर और युवेदिता मेनन की भूमिका रश्मि देसाई ने निभाई है। सोनाली सहगल की मात्र झलकियां नज़र आई हैं।

फ़िल्म का निर्देशन विनय शर्मा ने बेहतर किया है। सभी कलाकारों से उनका बेस्ट परफॉर्मेंस निकलवाने में वह सफल रहे हैं। फ़िल्म का बैकग्राउंड म्युज़िक और डायलॉग इसके हाइलाइट्स हैं।

यूनिवर्सिटी की गंदी राजनीति के चक्कर मे निराश होकर जब एक छात्र खुदकुशी कर लेता है तो गुरु जी पीयूष मिश्रा का संवाद जानदार है कि लोग कहते हैं कि नेता अच्छा नहीं है और जब खुद राजनीति के मैदान में उतरने की बात होती है तो..."

"जब जब धरती पर अधर्म बढ़ता है तो किसी न किसी को हथियार उठाना पड़ता है" या "जेल जाना क्रांतिकारी की निशानी होता है।" जैसे संवाद छू जाते हैं।

दरअसल यह फ़िल्म गंदी राजनीति के खेल में मोहरे की तरह इस्तेमाल होने वाले छात्रों, आम लोगों के संदर्भ में है। फ़िल्म काफी रियल और रॉ लगती है और यही वजह है कि इसमें पब्लिक से जुड़ने की क्षमता है। 

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