RSS Foundation Day: स्वदेशी नीति की सफलता के लिए 'वोकल फॉर लोकल' का पालन जरूरी- मोहन भागवत
RSS Foundation Day: स्वदेशी नीति की सफलता के लिए 'वोकल फॉर लोकल' का पालन जरूरी- मोहन भागवत
डिजिटल डेस्क, नागपुर। देशभर में आज विजयादशमी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थापना दिवस पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में शस्त्र पूजा की। इस पर मौके पर मोहन भागवत देशवासियों को संबोधित किया। उन्होंने कहा- 9 नवंबर को रामजन्मभूमि के मामले में अपना निर्णय देकर सर्वोच्च न्यायालय ने इतिहास बनाया। भारतीय जनता ने इस निर्णय को संयम और समझदारी का परिचय देते हुए स्वीकार किया।
मोहन भागवत ने कहा, Vocal for Local यह स्वदेशी संभावनाओं वाला उत्तम प्रारंभ है। परन्तु इन सबका यशस्वी क्रियान्वयन पूर्ण होने तक बारीकी से ध्यान देना पड़ेगा। इसीलिये स्व या आत्मतत्त्व का विचार इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में सबने आत्मसात करनाहोगा,तभी उचित दिशामें चलकर यह यात्रा यशस्वी होगी। भारतीय विचार में संघर्ष में से प्रगति के तत्त्व को नहीं माना है। अन्याय निवारण के अंतिम साधन के रूप में ही संघर्ष मान्य किया गया है। विकास और प्रगति हमारे यहाँ समन्वय के आधार पर सोची गई है। हमारे राष्ट्र के विकास व प्रगति के बारे में हमें अपनी भाव भूमि को आधार बनाकर, अपनी पृष्ठभूमि में, अपने विकास पथ का आलेखन करना पड़ेगा। उस पथ का गंतव्य हमारे राष्ट्रीय संस्कृति व आकांक्षा के अनुरूप ही होगा।
मोहन भागवत ने कहा, विश्व के अन्य देशों की तुलना में हमारा भारत संकट की इस परिस्थिति में अधिक अच्छे प्रकार से खड़ा हुआ दिखाई देता है। भारत में इस महामारी की विनाशकता का प्रभाव बाकी देशों से कम दिखाई दे रहा है, इसके कुछ कारण हैं। अपने समाज की एकरसता का, सहज करुणा व शील प्रवृत्ति का, संकट में परस्पर सहयोग के संस्कार का, जिन सब बातों को सोशल कैपिटल ऐसा अंग्रेजी में कहा जाता है, उस अपने सांस्कृतिक संचित सत्त्व का सुखद परिचय इस संकट में हम सभी को मिला। भागवत ने कहा, स्वतंत्रता के बाद धैर्य, आत्मविश्वास व सामूहिकता की अनुभूति अनेकों ने पहली बार पाई है।
मोहन भागवत ने कोरोना वायरस महामारी को लेकर कहा, संदर्भ में चीन की भूमिका संदिग्ध रही यह तो कहा ही जा सकता है, परंतु भारत की सीमाओं पर जिस प्रकार से अतिक्रमण का प्रयास अपने आर्थिक सामरिक बल के कारण मदांध होकर उसने किया वह तो सम्पूर्ण विश्व के सामने स्पष्ट है। भारत का शासन, प्रशासन, सेना तथा जनता सभी ने इस आक्रमण के सामने अड़ कर खड़े होकर अपने स्वाभिमान, दृढ़ निश्चय व वीरता का उज्ज्वल परिचय दिया, इससे चीन को अनपेक्षित धक्का मिला लगता है। इस परिस्थिति में हमें सजग होकर दृढ़ रहना पड़ेगा।
मोहन भागवत ने कहा, श्रीलंका, बांग्लादेश, ब्रह्मदेश, नेपाल ऐसे हमारे पड़ोसी देश, जो हमारे मित्र भी हैं और बहुत मात्रा में समान प्रकृति के देश हैं, उनके साथ हमें अपने सम्बन्धों को अधिक मित्रतापूर्ण बनाने में अपनी गति तीव्र करनी चाहिए। हमारी सेना की अटूट देशभक्ति व अदम्य वीरता, हमारे शासनकर्ताओं का स्वाभिमानी रवैया तथा हम सब भारत के लोगों के दुर्दम्य नीति-धैर्य का परिचय चीन को पहली बार मिला है।
मोहन भागवत ने कहा, हम सभी से मित्रता चाहते हैं। वह हमारा स्वभाव है।परन्तु हमारी सद्भावना को दुर्बलता मानकर अपने बल के प्रदर्शन से कोई भारत को चाहे जैसा नचा ले,झुका ले,यह हो नहीं सकता,इतना तो अब तक ऐसा दुःसाहस करने वालों को समझ में आ जाना चाहिए। समाज में किसी प्रकार से अपराध की अथवा अत्याचार की कोई घटना हो ही नहीं,अत्याचारी व आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों पर पूर्ण नियंत्रण रहे और फिर भी घटनाएं होती हैं तो उसमें दोषी व्यक्ति तुरंत पकड़े जाएँ और उनको कड़ी से कड़ी सजाहो,यह शासन प्रशासन को सुनिश्चित करना चाहिए।
मोहन भागवत ने कहा, शासन-प्रशासन के किसी निर्णय पर या समाज में घटने वाली अच्छी बुरी घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते समय अथवा अपना विरोध जताते समय,राष्ट्रीय एकात्मता का ध्यान व सम्मान रखकर, संविधान कानून की मर्यादा के अंदर ही अभिव्यक्त हो यह आवश्यक है।
मोहन भागवत ने कहा, हिन्दुत्व’ऐसा शब्द है,जिसके अर्थ को पूजा से जोड़कर संकुचित किया गया है।संघ की भाषा में उस संकुचित अर्थ में उसका प्रयोग नहीं होता।वह शब्द अपने देश की पहचान को,अध्यात्म आधारित उसकी परंपरा के सनातन सातत्य तथा समस्त मूल्य सम्पदा के साथ अभिव्यक्ति देने वाला शब्द है। मोहन भागवत ने कहा, संघ मानता है कि ‘हिंदुत्व’शब्द भारतवर्ष को अपना मानने वाले,उसकी संस्कृति के वैश्विक व सर्वकालिक मूल्यों को आचरण में उतारना चाहने वाले तथा यशस्वी रूप में ऐसा करके दिखाने वाली उसकी पूर्वज परम्परा का गौरव मनमें रखने वाले सभी 130 करोड़ समाज बन्धुओं पर लागू होता है।
मोहन भागवत ने कहा, हिंदू’ शब्द के विस्मरण से हमको एकात्मता के सूत्र में पिरोकर देश व समाज से बाँधने वाला बंधन ढीला होता है।इसीलिए इस देश व समाज को तोड़ना चाहने वाले,हमें आपस में लड़ाना चाहने वाले, इस शब्द को,जो सबको जोड़ता है,अपने तिरस्कार व टीका टिप्पणी का पहला लक्ष्य बनाते हैं। हिन्दू’ किसी पंथ, सम्प्रदाय का नाम नहीं है, किसी एक प्रांत का अपना उपजाया हुआ शब्द नहीं है, किसी एक जाति की बपौती नहीं है, किसी एक भाषा का पुरस्कार करने वाला शब्द नहीं है। वह इन सब विशिष्ट पहचानों को कायम, स्वीकृत व सम्मानित रखते हुए, भारत भक्ति के तथा मनुष्यता की संस्कृति के विशाल प्रांगण में सबको बसाने वाला, सब को जोड़ने वाला शब्द है।
मोहन भागवत ने कहा, देश की एकात्मता के व सुरक्षा के हित में ‘हिन्दू’ शब्द को आग्रहपूर्वक अपनाकर, उसके स्थानीय तथा वैश्विक, सभी अर्थों को कल्पना में समेटकर संघ चलता है। संघ जब "हिन्दुस्थान हिन्दू राष्ट्र है" इस बात का उच्चारण करता है तो उसके पीछे कोई राजनीतिक अथवा सत्ता केंद्रित संकल्पना नहीं होती। समस्त राष्ट्र जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक, इसलिए उसके समस्त क्रियाकलापों को दिग्दर्शित करने वाले मूल्यों का व उनकी व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यवसायिक और सामाजिक जीवन में अभिव्यक्ति का नाम ‘हिन्दू’ शब्द से निर्दिष्ट होता है।
मोहन भागवत ने कहा, हिन्दू’ शब्द की भावना की परिधि में आने व रहने के लिए किसी को अपनी पूजा, प्रान्त, भाषा आदि कोई भी विशेषता छोड़नी नहीं पड़ती। केवल अपना ही वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा छोड़नी पड़ती है। स्वयं के मन से अलगाववादी भावना को समाप्त करना पड़ता है। भारत की विविधता के मूल में स्थित शाश्वत एकता को तोड़ने का घृणित प्रयास, हमारे तथाकथित अल्पसंख्यक तथा अनुसूचित जाति जनजाति के लोगों को झूठे सपने तथा कपोलकल्पित द्वेष की बातें बता कर चल रहा है।’भारत तेरे टुकड़े होंगे’ ऐसी घोषणाएँ देने वाले लोग इस षड्यंत्रकारी मंडली में शामिल हैं।
मोहन भागवत ने कहा, राजनीतिक स्वार्थ, कट्टरपन व अलगाव की भावना, भारत के प्रति शत्रुता तथा जागतिक वर्चस्व की महत्वाकांक्षा, इनका एक अजीब सम्मिश्रण भारत की राष्ट्रीय एकात्मता के विरुद्ध काम कर रहा है। भारत की भावनिक एकता व भारत में सभी विविधताओं का स्वीकार व सम्मान की भावना के मूल में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू परम्परा व हिन्दू समाज की स्वीकार प्रवृत्ति व सहिष्णुता है। स्वावलम्बन में स्व का अवलम्बन अभिप्रेत है।हमारी दृष्टि के आधार पर हम अपने गंतव्य तथा पथ को निश्चित करते हैं।दुनिया जिन बातों के पीछे पड़कर व्यर्थ दौड़ लगा रही है,उसी दौड़ में हम शामिल होकर पहले क्रमांक पर आतेहैं तो इसमें पराक्रम और विजय निश्चित है। परन्तु स्व का भान व सहभाग नहीं है।
मोहन भागवत ने कहा, कृषि नीति का हम निर्धारण करते हैं, तो उस नीति से हमारा किसान अपने बीज स्वयं बनाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। हमारा किसान अपने को आवश्यक खाद, रोगप्रतिकारक दवाइयाँ व कीटनाशक स्वयं बना सके या अपने गाँव के आस-पास पा सके यह होना चाहिए।से लम्बा है। इसलिये उसमें से कालसुसंगत, अनुभवसिद्ध, परंपरागत ज्ञान तथा आधुनिक कृषि विज्ञान से देश के लिये उपयुक्त व सुपरीक्षित अंश, हमारे किसान को अवगत कराने वाली नीति हो।
मोहन भागवत ने कहा, अर्थ, कृषि, श्रम, उद्योग तथा शिक्षा नीति में स्व को लाने की इच्छा रख कर कुछ आशा जगाने वाले कदम अवश्य उठाए गए हैं। व्यापक संवाद के आधार पर एक नई शिक्षा नीति घोषित हुई है। उसका संपूर्ण शिक्षा जगत से स्वागत हुआ है, हमने भी उसका स्वागत किया है।
मोहन भागवत ने कहा, सप्ताह में एक बार हम अपने कुटुम्ब में सब लोग मिलकर श्रद्धानुसार भजन व इच्छानुसार आनन्दपूर्वक घर में बनाया भोजन करने के पश्चात्, 2-3 घण्टों की गपशप के लिए बैठ जाएँ और पूरे परिवार में आचरण का संकल्प लेकर, उसको परिवार के सभी सदस्यों के आचरण में लागू करने करें।
मोहन भागवत ने कहा, पर्यावरण का विषय सर्वस्वीकृत व सुपरिचित होने से अपने घर में पानी को बचाकर उपयोग,प्लास्टिक का पूर्णतया त्याग व घर के आंगन में,गमलों में हरियाली, फूल,सब्जी बढ़ाने से लेकर वृक्षारोपण के उपक्रम कार्यक्रम तक कृति की चर्चा भी सहज व प्रेरक बन सकती है।
मोहन भागवत ने कहा, समाज के सभी जाति,भाषा,प्रांत,वर्गों में हमारे मित्र व्यक्ति व मित्र कुटुम्ब हैं कि नहीं? हमारा तथा उनका सहज आने-जाने का, साथ उठने-बैठने, खाने-पीने का सम्बन्ध है कि नहीं, यह सामाजिक समरसता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण आत्मचिंतन कुटुम्ब में हो सकता है। समाज में चलनेवाले कार्यक्रम,उपक्रम व प्रयासोंमें हमारे कुटुम्ब का योगदान हमारी सजगता व आग्रहका विषय हो सकताहै।प्रत्यक्ष सेवा के कार्यक्रम-जैसे रक्तदान,नेत्रदान आदिमें सहभागी होना अथवा समाज का मन इन कार्यों के लिये अनुकूल बनाना,इसमें अपना कुटुम्ब योगदान दे सकता है।
मोहन भागवत ने कहा, छोटे-छोटे उपक्रमों के द्वारा व्यक्तिगत जीवन में सद्भाव, शुचिता, संयम, अनुशासन सहित मूल्याधारित आचरण का विकास कर सकते हैं। उसके परिणाम स्वरूप हमारा सामूहिक व्यवहार भी नागरिक अनुशासन का पालन करते हुए परस्पर सौहार्द बढ़ाने वाला व्यवहार हो जाता है। शतकों की आक्रमणग्रस्तता के अंधकार से मुक्त हुए अपने इस स्वतंत्र राष्ट्र के नवोदय की पूर्व शर्त यह समाज की स्वस्थ संगठित अवस्था है। इसी को खड़ा करने के लिए हमारे महापुरुषों ने प्रयत्न किए।