सिनेमा: राजनीति तिकड़मी लोग चलाते हैं और सिनेमा क्रिएटिव लोग बनाते हैं उमाशंकर सिंह (आईएएनएस साक्षात्कार)
ओटीटी पर बिहार की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी दो वेब सीरीज 'महारानी' और 'खाकी : द बिहार चैप्टर' ने खूब हंगामा मचाया। इन वेब सीरीज की कहानी को पन्नों पर कलमबद्ध करने वाले उमाशंकर सिंह इससे पहले एक हिंदी फिल्म 'डॉली की डोली' भी लिख चुके थे। इस फिल्म को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया था।
नई दिल्ली, 22 अप्रैल (आईएएनएस)। ओटीटी पर बिहार की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी दो वेब सीरीज 'महारानी' और 'खाकी : द बिहार चैप्टर' ने खूब हंगामा मचाया। इन वेब सीरीज की कहानी को पन्नों पर कलमबद्ध करने वाले उमाशंकर सिंह इससे पहले एक हिंदी फिल्म 'डॉली की डोली' भी लिख चुके थे। इस फिल्म को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया था।
ऐसे में फिल्म राइटर उमाशंकर सिंह से आईएएनएस ने खास बातचीत की। उनसे उनकी आगामी प्रोजेक्ट्स सहित राजनीति और सिनेमा के साथ ही मायानगरी के बारे में तमाम सवाल पूछे गए, जिसका जवाब उमाशंकर सिंह ने बेहद सधे अंदाज में दिया है।
सवाल :- आपने वेब सीरीज 'महारानी' की कहानी लिखी, जिसको लेकर सवाल उठे कि इसकी कहानी बिहार की राजनीति से प्रेरित है, इस पर आपका क्या कहना है ?
जवाब :- सब कुछ कहीं न कहीं से प्रेरित होता है या कहीं न कहीं से प्रेरित लगता है। हमारी 'महारानी' बिहार की राजनीति से प्रेरित नहीं है, प्रेरित लग रही है। उसकी एक तो ये वाजिब वजह है कि हमारी नायिका रानी भारती बिहार की एक्सिडेंटल सीएम बनती हैं। बिहार में अब तक एक ही महिला सीएम बनीं हैं। वो भी एक्सीडेंटल सीएम थीं। तो, तुलना का आधार बनता है। इसके अलावा दोनों में कोई समानता नहीं है। दोनों की अलग-अलग जर्नी है। इसके बावजूद भी लोग यदि इसे बिहार या देश की राजनीति से जोड़ के देखते हैं तो असल में यह हमारी सफलता है। हमने कोई दूसरे प्लानेट का या कोई स्टेंड अलोन शो तो बनाया नहीं है, हमने एक राजनीतिक शो बनाया है जो इस देश और दुनिया का है। बिहार के बैकड्रॉप पर है तो उसमें बिहार और देश की राजनीति की छवियां, उसकी आड़ी-तिरछी रेखाएं, उसके अदले-बदले प्रतिबिंबब दिखने ही चाहिए।
सवाल :- 'महारानी' वेब सीरीज के अंतिम दो सीजन का जब-जब टीजर या ट्रेलर आया बिहार में सरकार बदल गई, क्या यह महज इत्तेफाक था या कुछ और?जवाब :- है तो ये इत्तेफाक ही, मगर ये थोड़ा विचित्र इत्तेफाक है और ये इतनी बार हो गया कि हम पर लोग इसे आरोप की तरह चस्पा भी करने लगे हैं। इसके बदले उन्हें अपने नेताओं से पूछना चाहिए कि क्यों 'महारानी' आने से पहले वे इतना उल्टासन करके हमारी मार्केटिंग करते हैं? वैसे सवाल तो ये होना चाहिए कि कभी भी क्यों करते हैं? हमारी राजनीति में सरेआम कुछ भी बोलकर सरपट पलट जाना इतना आसान क्यों हो गया है? हमारी राजनीति का आलम ये है कि ड्रामा में जो दिखाते हुए हमें अजीब लगता है उससे कई गुना ज्यादा वे रियल में करने से नहीं झिझकते।
सवाल :- क्या आपकी कोई और वेब सीरीज आने वाली है? अगर हां तो आपकी अगली सीरीज की कहानी का प्लॉट क्या होगा?
जवाब :- कहानियों के मामले में जितना विविध हमारा देश है उतनी विविधता हमारे कंटेंट में नहीं है। मेरी आने वाली फिल्में उन विषयों पर है, जिसे यहां कभी छुआ नहीं गया है। अभी हम कास्टिंग के प्रोसेस में हैं। एक बार जब ये ऑफिसियल हो जाए तब इसके बारे में विस्तार से बात की जा सकती है। इसके अलावा हमारे जो माइथोलॉजिकल हीरो हैं, मैं उन्हें सुपरहीरो की तरह किसी वेब सीरीज में दिखाना चाहूंगा। हमारी समस्या ये है कि जब भी हम टीवी या कहीं और माइथोलॉजिकल सब्जेक्ट उठाते हैं तो उसके रिलीजियस पावर का दोहन करके आसान सफलता चाहते हैं। उसके भीतर नहीं उतरते।
सवाल :- आपकी फिल्म 'डॉली की डोली' आई थी, उसके बाद आप बड़े पर्दे पर किसी फिल्म की कहानी के साथ नहीं आए, इसके पीछे की वजह?
जवाब :- इसके पीछे की वजह मैं ही हूं। असल में 'डॉली की डोली' मुझे मुंबई आती ही मिल गई थी। अरबाज खान इसे 'दबंग' और 'दबंग 2' के बाद बना रहे थे। मैं तब इंडस्ट्री को ज्यादा समझता नहीं था। मुझे नहीं पता कि इसे आगे कैसे परश्यू करूं। इंडस्ट्री मुझे उस वक्त कुछ खास तरह के काम ही दे रही थी, जबकि मैं अपने लिए कुछ अलहदा चाहता था। मुझे समझना चाहिए था ये प्रयोग करने का नहीं, टिकने का समय है तो मैंने उन दिनों कुछ गलत फैसले लिए। कई फिल्में करने से इनकार कर दिया। कई बन रही थी जो अटक गई और मैं घेरे से बाहर हो गया। घेरे में फिर से घुसने में समय लगा। सिनेमा का दरवाजा बंद तो बहुत आसानी से हो जाता है पर खुलता मुश्किल से है। उसी दरवाजे को धक्का देने में, दोबारा खोलने में वक्त लग गया। उस वक्त ने और उस जद्दोजहद ने काफी कुछ सिखाया।
सवाल :- अपनी पहली फिल्म के बाद आप कहीं किसी खास विषय पर अपनी अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे या भविष्य में आपकी लिखी कहानी पर कोई फिल्म दर्शकों के बीच होगी क्या ?
जवाब :- 2014-15 के बाद भारत बहुत बदला है। जब समय बदल रहा हो तो पुरानी आउटडेटेड कहानियां कहने का कोई मतलब नहीं था। और, नई कहानियां गढ़ने में जितनी मुश्किल आती है उससे ज्यादा मुश्किल उसे बेचने में आती है। अब कई लोग उन कहानियों को बनाना चाहते हैं। पर समस्या ये है कि वह उसे इसलिए नहीं बनाना चाहते क्योंकि उन कहानियों में उनका यकीन आ गया हो, वह इसिलए बनाना चाहते हैं कि अब मेरे थोड़े बहुत काम-नाम के कारण उनका मुझमें यकीन हो गया है। जबकि मैं चाहता हूं वह मुझे नहीं, उन कहानियों को तौलकर फिल्म बनाएं। कुछ ऐसे लोग मिले हैं जो उन कहानियों को लेकर बहुत एक्साइटेड हैं और अपने प्लान ऑफ एक्शन में उन्हें फिट कर रहे हैं। जल्द ही वे कहानियां बड़े पर्दें पर सजीव होंगी।
सवाल :- दिल्ली में पत्रकारिता से सीधे मायानगरी में कदम रखना, आपका यह सफर कैसा रहा ?
जवाब :- मजेदार, रोमांचक, तूफानी। एक तो अपने को बचाए और टिकाए रखने की जद्दोजहद और दूसरा फिल्मों के बनने का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता और उसके खट्टे-मीठे अनुभव। एक तो मुंबई की बाहरी दुनिया से तालमेल, द्वंद्व-प्यार का संबंध और दूसरा आपके भीतर आपके कहानियों के किरदारों से सजी पूरी दुनिया। ये सिर्फ इसी पेशे में हो सकता है। फिर देखते-देखते ओटीटी, डिजिटल की नई दुनिया खुल गई। नए माध्यम और नए हथियार मिल गए। तो, नए हथियारों से करतब भी नए दिखाने होंगे। पुराना खेला चलेगा नहीं। इस सबके बीच नौ दिन में चले ढाई कोस वाला सफर रहा है मेरा।
सवाल :- मायानगरी में क्या आपको किसी खास किस्म की परेशानियों से दो-चार होना पड़ा ?
जवाब :- सिर्फ मेरी बात नहीं है। मुझमें से ज्यादातर को यहां दो तरह की मुख्य परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। पहली जीने का संघर्ष और दूसरी कला का संघर्ष। जीने का सबका अपना-अपना संघर्ष होता है। कई साल तक बिना काम के और बिना काम की गारंटी के मुंबई जैसे महंगे शहर में रहना अपने आप में एक कला है, और मुंबई ये कला आपको सिखा भी देती है। बहुत लोग जुगाड़ू हो जाते हैं। बहुत लोग टूट जाते हैं। बहुत से समझौते करने पड़ते हैं। जिस उम्र में आपके बाकी साथी लोग अपनी जिंदगी में आगे बढ़ रहे होते हैं आप कई सालों तक वहीं टिके रहते हो, सिर्फ एक उम्मीद में, अपने पर भरोसा करके, ये आसान नहीं है। कई बार ये तिल-तिल मरने जैसा होता है। पर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री की एक खासियत है, 'देयर इज ऑलवेज ए चांस फोर यू'। और जब ये चांस आपको मिलता है फिर आप उस बॉल को कैसे खेलते हैं सब कुछ उस पर निर्भर करता है।
इसके अलावा एक दूसरा संघर्ष है जो आप कर रहे हैं उसे और कैसे बेहतर करें। एक कहानी सौ तरीके से कही जा सकती है। आप उसे कैसे उसके बेस्ट-वे में कह सकते हैं। हर फिल्म एक नई फिल्म होती है और आप वही पुराने आदमी होते हैं जो कल थे तो आज अपने को नया कैसे करें ? रोज नई होती दुनिया में अपने को, अपनी स्टोरी को, अपनी स्टोरी टेलिंग के स्टाइल को कैसे प्रासंगिक बनाए रख सकें।
सवाल :- क्या फिल्मी दुनिया और खासकर मायानगरी के बारे में जो आम राय है कि यहां आप बिना किसी सहारे के बहुत कुछ नहीं कर सकते, यह बात कहां तक सही है और इसको लेकर आपका अनुभव कैसा रहा ?
जवाब :- सिनेमा और क्रिकेट एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें पूरे भारत के लोग आना चाहते हैं और मौके यहां बहुत कम हैं। क्रिकेट में फिर भी आईपीएल आ गया। बीसियों नई टीम आ गई और प्लेयर्स के लिए मौके बहुत बढ़ गए। पर सिनेमा में ऐसा नहीं है। फिर यहां सक्सेस रेट भी बहुत कम मतलब प्वाइंट नाइन नाइन परसेंट जैसा है। फिर ऐसे में बहुत सी धारणाएं बनने लगती हैं। बिना गॉड फादर के कुछ नहीं कर सकते, बिना लक के कुछ नहीं होता वगैरह-वगैरह। लेकिन सबसे बड़ी बात है बिना मेरिट और हार्ड वर्क के यहां कुछ नहीं होगा। हो सकता है उसके साथ भी नहीं हो, पर उसके बिना तो होगा ही नहीं। सिनेमा की सबसे अच्छी बात यह है कि इसके मालिक दर्शक हैं, जनता-जनार्दन है। वह जिसे चलाएगी वह चलेगा, जिसे बिठाएगी वो बैठेगा। बीच में कुछ मीडियेटर्स हैं जो अपनी तरह से गेम को इफेक्ट करने की कोशिश करते हैं। पर एक लिमिट से ज्यादा वह भी कुछ कर नहीं सकते।
सवाल :- आपने 'खाकी : द बिहार चैप्टर' की कहानी लिखी, उसके क्रिएटर नीरज पांडे के साथ काम करने का आपका अनुभव कैसा रहा? इसके साथ ही इस वेब सीरीज को लिखते समय आपके मन में क्या चल रहा था?
जवाब :- नीरज पांडेय के साथ काम करने का मौका मिलना बड़ी बात थी। मैं इस मौके को जाया नहीं करना चाहता था। खाकी के लिए मुझसे पहले वह कई लेखक से मिल चुके थे, पर कोई उन्हें जंच नहीं रहा था। तब उन्हें डायरेक्टर शिवम नायर ने मेरा नाम सुझाया था। पहली ही मुलाकात में उन्होंने मुझे गो अहेड तो कह दिया। पर उनकी आंखों में हल्का सा अविश्वास मुझे दिखा था। कुछ दिन बाद जब मैंने उन्हें पहला एपिसोड मेल किया, उसके बाद हमारे बीच सब बदल गया। नीरज पांडेय सर ऐसे प्रोड्यूसर और क्रिएटर हैं, जो अपने राइटर को इम्पावर करते हैं, फ्री हैंड देते हैं। यह एक राइटर के तौर पर आपको और रिस्पांसिबल बना देता है। कहीं कुछ प्रॉब्लेम हो तो वे सिर्फ प्रॉब्लम नहीं बताते, सॉल्यूशन के साथ आते हैं। और सबसे बड़ी बात उनकी कंपनी में स्क्रिप्ट सबसे महत्वपूर्ण होती है। एक बार जब स्क्रिप्ट लॉक हो जाती है तो उसे और कोई बदल नहीं सकता। वहां स्क्रिप्ट बहुत स्ट्रिक्टली फॉलो होती है। जो जैसे लिखा है वह वैसे शूट होता है। डॉयलॉग्स के पॉज, कॉमा और फुल स्टॉप तक। इस सीरीज के लिखने से पहले मैं 'महारानी' का सीजन वन सुभाष कपूर सर के साथ लिख चुका था। 'महारानी' और खाकी दोनों बिहार बेस्ड था। ऐसे में मेरे लिए ये चुनौती थी कि दोनों की राइटिंग को एक-दूसरे से अलग कैसे रखूं और मुझे लगता है, मैं ये कर पाया।
सवाल :- क्या आपकी कहानी पर बनी फिल्म को दर्शक बड़े पर्दे पर जल्द देख पाएंगे, क्या फिलहाल ऐसा कोई प्रोजेक्ट आपके पास है ?
जवाब :- मेरी दो स्क्रिप्ट तैयार है। हम उसकी कास्टिंग कर रहे हैं। दोनों 2025 में आ सकती है।
सवाल :- आपकी आने वाली वेब सीरीज या फिल्म कौन-कौन सी है ?
जवाब :- 'महारानी 4' के लिए चैनल से बहुत प्रेशर है। पर मेरे को-राइटर और क्रिएटर सुभाष कपूर सर और हम सब की थोड़ी अपनी-अपनी व्यस्तताएं हैं। जितनी जल्दी हो पाए हम लोग उसे समेट कर महारानी 4 के बारे में सोचना शुरू करेंगे।
सवाल :- राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री के बीच आपको क्या-क्या समानता और अंतर नजर आता है?
जवाब :- दोनों बिजनेस है, पर बहुत अलग बिजनेस है। राजनीति तिकड़मी लोग चलाते हैं और सिनेमा क्रिएटिव लोग बनाते हैं।
सवाल :- आप मायानगरी में अपना भाग्य आजमाने के लिए आने वाले लोगों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
जवाब :- मुंबई आना किसी की भी जिंदगी का एक बहुत बड़ा फैसला होगा, तो इसे एक बड़े फैसले की तरह ही यहां आने वाले लें। पहले अपने को बहुत तौल लें। कुर्सी की पेटी बांध लें फिर इस तूफानी सफर पर निकलें। अगर लेखक हैं तो बहुत सारे आइडियाज और स्टोरी के साथ आएं। और वे कम से कम वैसी हों कि कभी किसी को सुनाने का मौका मिले तो सामने वाले को ये नहीं लगे कि आपने उसका वक्त खराब किया है और आपके बाद वे किसी नए लेखक से मिलने से पहले दो बार सोचें। आइडयली तो आपके आइडियाज और स्टोरी ऐसी होनी चाहिए कि सामने वाला कुर्सी से खड़ा हो जाए। जिस दिन आप ऐसा कर पाए, जिस दिन आप कई मैसेजेज के बाद मिले पांच मिनट की मीटिंग को दो घंटे की मीटिंग में तब्दील कर ले गए, उस दिन आप अपने पहले फिल्म के बहुत करीब होंगे।
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